1987 में मलियाना को किसी की नजर लग गई, तो वहीं दूसरी ओर 22 मई, 1987 हाशिमपुरा के लिए मनहूस दिन था. दरअसल, पीएसी के जवानों ने मलियाना और हाशिमपुरा में मौत का जो तांडव किया, यह सचमुच एक अनोखी बात है. ये बातें आज तक सामने नहीं आईं कि किस अधिकारी या नेता ने इसकी मंजूरी थी दी. क्या है सच?
page-3जब गुजरात के सरदारपुरा दंगे में शामिल 31 लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा मिलती है, तो देश की न्यायिक व्यवस्था पर विश्वास बढ़ता है. गुजरात में दंगा हुआ, संपत्तियां नष्ट हुईं, हत्याएं हुईं, यह सब सच है, पर इस सच को लोगों की नज़र में सच के रूप में लाना अदालत का काम है और गुजरात में अदालत ने यही किया. कोर्ट जब ऐसे फैसले देता है, तो लोगों को लगता है कि न्यायिक व्यवस्था में आस्था रखनी ही चाहिए. लेकिन कुछ फैसले ऐसे होते हैं, जिनसे लोगों का विश्वास हिल जाता है. देश का सिख समुदाय आंदोलित है, क्योंकि सज्जन कुमार को कोर्ट ने बरी कर दिया है. यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा. मीडिया की सुर्खियों में भी रहेगा. सिखों के पास वह सामर्थ्य भी है, जिससे वे अपनी लड़ाई खुद लड़ सकते हैं. वे मेट्रो बंद कर सकते हैं और दिल्ली ठप्प करने की भी उनकी ताकत है, लेकिन आज हम इतिहास के एक ऐसे काले अध्याय के बारे में आपको बताते हैं, जिसकी तुलना देश के किसी भी दंगे से नहीं की जा सकती. चौथी दुनिया देश का अकेला अ़खबार था, जिसने उस वक्त इस दंगे की असलियत दुनिया के सामने रखी थी. यह घटना 22-23 मई, 1987 की है. पच्चीस साल का वक्त कम नहीं होता. अब तक इस मामले में न तो किसी को सजा मिली है और न ही सजा मिलने की कोई आशा बची है. मलियाना के केस में एफआईआर तक गायब है. हाशिमपुरा के लोग ग़रीब हैं. वे मज़दूरी करके अपना जीवन चलाते हैं. इन दंगों में किसी अमीर की मौत नहीं हुई, कोई एमपी या एमएलए का परिवार आहत नहीं हुआ. यही वजह है कि इनके लिए कोई न्याय मांगने आगे नहीं आया. मीडिया चुप है, एक्टिविस्ट चुप हैं, राजनीतिक दल चुप हैं और सिविल सोसायटी भी चुप है.
1987 में मलियाना को किसी की नज़र लग गई. उस दिन अजीब सा माहौल था. अ़फवाहों का बाज़ार गर्म था. लोग कह रहे थे कि यहां गिरफ्तारियां होंगी. शक सच साबित हो गया, जब पुलिस ने ग्यारह बजे के क़रीब पूरे गांव को घेर लिया और तलाशी के नाम पर उसने लोगों को घर से बाहर निकालना शुरू कर दिया. पीएसी के जवान गोलियां चलाने लगे. सिर पर गोली, गले में गोली, सीने पर गोली. जिसे भी गोली लगी, वहां लगी, जहां लगने के बाद बचना नामुमकिन होता है. तीन घंटे तक गोलियां चलती रहीं. सबसे पहले सत्तार वल्द मोहम्मद अली का घर लूटा गया. इस परिवार के लगभग 11 लोग मारे गए. उनकी लाशों को कुएं में डालकर उन पर नमक डाल दिया गया. इसके बाद दंगे की आग पूरे गांव में फैल गई. यहां पुलिस ने दहशत फैलाने के लिए एक घर जला दिया. मकान के साथ-साथ इस परिवार के छह लोग जलकर राख हो गए. इस घर में चार बच्चे थे. जब लाशें निकाली गईं, तो सबसे छोटा बच्चा मां की गोद से चिपका मिला. देखते ही देखते मलियाना गांव के सौ-सवा सौ मकानों में आग लगा दी गई. क़रीब 73 लोगों की मौत हुई, जबकि सरकारी आंकड़े यह संख्या बहुत ही कम बताते हैं. दंगाइयों में आसपास के लोगों के अलावा, बाहर के भी कई लोग थे.
घटना के तुरंत बाद मोहम्मद याक़ूब ने थाने में एफआईआर की. उन्होंने सोचा कि कम से कम दंगाइयों को क़ानून से सज़ा मिल जाए. जिन पुलिसवालों ने बेगुनाहों की जान ली है, उन्हें सज़ा मिल जाए, लेकिन यह पता नहीं था कि इस दंगे से ज़्यादा गहरा घाव न्याय दिलाने वाले संघर्ष से मिलने वाला है. मोहम्मद याक़ूब ने बताया कि उन्होंने 93 लोगों के ़िखला़फ एफआईआर की थी और 75 गवाह हैं. इतने साल बीत गए, यह पता ही नहीं चला कि मामले का क्या हुआ, एफआईआर कहां गई, उन पीएसी के जवानों पर क्या कार्रवाई हुई. इतने लोग मारे गए, लेकिन किसी ने यह भी नहीं सोचा कि इन पीड़ित परिवारों को न्याय दिलाया जाए. बीस साल के बाद कोर्ट ने मोहम्मद याकूब को सम्मन किया कि मामले की सुनवाई होने वाली है. ये लोग अदालत पहुंचे, अपना वकील किया. जो कुछ कर सके, वह सब किया. पहले ही दिन विपक्ष के वकील ने कहा कि इसमें एफआईआर नहीं है. जब तक एफआईआर की सर्टिफाइड कॉपी नहीं होगी, तब तक मुक़दमा नहीं चल सकता. उसके बाद जज ने पूछताछ की. पता करने की कोशिश की कि किसने ग़ायब की, कहां खो गई यह एफआईआर. मलियाने के लोग थाने गए और पूछा कि 23 मई, 1987 को एक एफआईआर की गई थी, उसकी कॉपी चाहिए. थानेदार ने कहा कि एफआईआर नहीं है, थाने में स़िर्फ पांच साल का ही रिकॉर्ड रहता है. उसने सा़फ-सा़फ कह दिया कि अब तो हमारे पास न रिकॉर्ड है और न हम कुछ बता सकते हैं. इन लोगों ने हर जगह चिट्ठी लिखी, लेकिन एफआईआर का पता नहीं चल सका. इसके बाद जज ने कहा कि जो गवाह हैं, उन्हें पेश करो. वह फास्ट ट्रैक अदालत थी. हर हफ्ते तारीख़ लगती थी. एक साल तक एक ही आदमी की गवाही हुई. फिर एक साल बाद दूसरी गवाही पेश की गई.
मलियाना के लोग उदास हो गए. उन्हें समझ में आ गया कि ऐसे तो पचहत्तर साल लग जाएंगे. पच्चीस साल ऐसे भी हो गए हैं. आने वाले पचहत्तर सालों में न तो कोई मुजरिम रहेगा और न कोई गवाह बचेगा. इतनी तो किसी की उम्र भी नहीं होती. एक बात और, इस मामले को फिर फास्ट ट्रैक से दूसरी अदालत में ट्रांसफर कर दिया गया, जो फास्ट ट्रैक कोर्ट नहीं थी. इस कोर्ट में जब ये लोग पहुंचे, तो जज ने वही सवाल किया कि एफआईआर कहां है, वर्ना मैं यह मुक़दमा नहीं चलाऊंगा. पहले एफआईआर की सर्टिफाइड कॉपी लाओ. अब बेचारे मलियाना के ग़रीब लोग कहां से एफआईआर लाएंगे. एफआईआर को पेश करने का काम किसका है? न एफआईआर मिली, न केस आगे बढ़ा. ऐसे में किसे इंसाफ मिलेगा?
इस मामले के पहले गवाह से जब हमने बात की, तो उन्होंने बताया कि हमने जो देखा, वह कोर्ट में बताया. मुक़दमा इतना सुस्त चल रहा है कि क्या इंसा़फ होगा. 25 साल में आज तक इतना भी नहीं हुआ कि हमारे ज़ख्मों को ज़रा सा भी मरहम लगाया जाता कि हां, तुम्हारे साथ ज़ुल्म हुआ और न गुनहगारों को सज़ा मिली. अगर मिल भी गई, तो क्या हमारी क़ब्र पर रखेंगे इंसा़फ? न जाने कितनी आंखें बंद हो गईं इसी इंतज़ार में. इस मामले के पहले गवाह वकील साहब ने बताया कि 23 मई को नौ बजे तक माहौल बिल्कुल शांत था. फिर ग्यारह बजे पीएसी ने शराब का ठेका लुटवाया. पुलिस ने ताला तोड़ा और दंगाई शराब लूटकर ले गए. इसके बाद मलियाना में पुलिस और दंगाइयों का क़हर शुरू हुआ. दंगाइयों के साथ पुलिस मुस्लिम आबादी वाले इलाक़े में घुस गई. पहले पथराव हुआ. पथराव में रेलवे लाइन के पत्थरों का इस्तेमाल हुआ. रेलवे लाइन मलियाना से का़फी दूर है. मतलब यह कि दंगाइयों ने पहले से ही पत्थरों का इंतज़ाम किया था. दंगे की प्लानिंग पहले ही हो गई थी. वह कहते हैं कि मैं उस वक्त अपने घर की छत पर था. इधर-उधर देख रहा था कि कहां, क्या हो रहा है. गोकुल लाला की छत पर पीएसी के जवान तैनात थे. वे गोली चला रहे थे. यह नहीं लगा कि इतनी दूर से मुझे गोली लग सकती है. मुझे दो गोलियां लगीं. एक पेट में और दूसरी हाथ में. माहौल इतना खराब था, इतनी बदहवासी का था कि किसी को मालूम नहीं था कि बेटी कहां है, पति कहां है, मां कहां है, बेटा कहां है. जो लोग बचकर भाग रहे थे, उन पर पीएसी डंडे चला रही थी. कोई फरियाद भी कर रहा था, तो उसकी सुनने वाला कोई नहीं था.
यह सचमुच अनोखी बात है. पीएसी के जवानों ने मलियाना और हाशिमपुरा में मौत का जो तांडव किया, क्यों किया, किसके कहने पर किया? किस अधिकारी या नेता ने इसकी मंजूरी दी थी, कांग्रेस की राज्य सरकार क्या कर रही थी? मुख्यमंत्री से इस्ती़फा क्यों नहीं लिया गया, अधिकारियों को जेल क्यों नहीं भेजा गया? केंद्र में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते यह सब कैसे हो गया? क्या यह संभव है कि किसी राज्य में इतनी बड़ी घटना हो जाए और सरकार को पता न चले? मलियाना और हाशिमपुरा की घटना और चश्मदीद गवाहों के बयानों से यह सा़फ होता है कि सब कुछ नियोजित था. नाज़ियों से भी भयंकर घटना को अंजाम देने वाली पीएसी और पुलिस के किसी भी अधिकारी को सज़ा नहीं मिली, बल्कि कुछ को तो बाक़ायदा प्रमोशन मिला और वे आज भी नौकरी कर रहे हैं. क्या यही है सेकुलर देश का सरकारी तंत्र और न्याय? किसी भी दंगे का पच्चीस साल बाद आकलन करना बड़ा कठिन काम है. यह काम तब और कठिन हो जाता है, जब दंगे के गुनहगार आज़ाद घूम रहे हों. दंगे की मार सबसे ज़्यादा पेट पर पड़ती है. दंगे के बाद मलियाना और हाशिमपुरा में रोजी-रोटी का सिलसिला बिगड़ गया. दंगे के दौरान आगजनी और लूटपाट से हुए ऩुकसान का अंदाज़ा लगाना तो वैसे भी बेहद मुश्किल काम है. जले और लुटे हुए सामानों की क़ीमत तो जोड़ी जा सकती है, लेकिन पच्चीस साल से लगातार बहते आंसुओं की क़ीमत लगाने की हिम्मत किसमें है? ईद और रमजान में खुशियों की जगह घर के चिराग़ों के गुम होने की पीड़ा की क़ीमत कौन लगाएगा? सरकार ने तो हद ही कर दी. चालीस हज़ार रुपये में सब कुछ बराबर कर दिया और उसे ही न्याय समझ लिया.
 हाशिमपुरा सामूहिक हत्याकांड
22 मई, 1987 का मनहूस दिन. बेहद गर्मी थी. दंगा हो रहा था, कर्फ्यू भी लगा था. लोग अपने घरों में ही थे. क़रीब दो बजे मिलिट्री और पीएसी तलाशी के बहाने मुहल्ले में दाखिल हुई. लोग अलविदा की नमाज़ पढ़ रहे थे. हर घर में पीएसी पहुंची और जितने भी मर्द थे, उन्हें घर से बाहर आने को कहा गया. इस घटना के चश्मदीद गवाह उस्मान ने बताया, घर से बाहर निकालने के बाद बल्ली गली में लाकर बैठाया गया. वहां का़फी आदमी बैठे थे. पुलिस ने सबको कहा कि चलो, हाथ ऊपर करो और हाथ ऊपर उठाकर हमें सड़क पर लाकर बैठा दिया गया. जब हम सड़क पर आए, तो पता चला कि पूरे मुहल्ले को ही गिरफ्तार कर लिया गया है. बूढ़े और बच्चे अलग बैठे थे और जवानों की टोलियां अलग. मिलिट्री, पीएसी और पुलिस सब लोग मौजूद थे. मैं बच्चों में पहुंच गया. उन्होंने कहा कि बूढ़ों और बच्चों को छोड़ देंगे. जब जवान-जवान भरकर भेज दिए, तो बूढ़ों और बच्चों का नंबर आया, तो मुझे उसमें से छांट लिया गया. मतलब जो तगड़ा दिखा, उसे एक तऱफ निकाल लिया गया. जब हम खड़े हुए, तो वहां सैकड़ों लोग खड़े थे. मेरे आगे जो चार-पांच खड़े थे, उन्हें मैं जानता था. वे मुहल्ले के ही थे. एक हाज़ी मुस्तकीम, एक आरटीओ दफ्तर के यासीन, एक सलीम और कदीर चायवाला. ये मेरे आगे खड़े थे. क़रीब आठ-साढ़े आठ का टाइम हो गया था, रात का. हमें छांटकर एक तऱफ खड़ा किया गया और पीएसी का ट्रक मंगाया गया. हमसे कहा कि इसमें चढ़ो, ताला खोला और उसमें हमें भेड़-बकरियों की तरह भर लिया. पीएसी वाले राइफलें लेकर पीछे खड़े हो गए और हमें नीचे बैठा दिया. हम पर डंडा बजाया कि मुड़कर मत देखो, आगे देखो. ट्रक चलता रहा. का़फी देर बाद ट्रक मुरादनगर के गंगनहर पर जाकर रुका. पीएसी वाले उतर गए. किसी ने कहा कि ट्रक की लाइट बंद कर दो. फिर एक आदमी को उतारा और उसे गोली मार दी. हमें समझ में आ गया कि अब सबको मारेंगे, किसी को नहीं छोड़ेंगे. तब फिर उन्होंने एक और आदमी को नीचे उतारा. उसे भी गोली मार दी. मरना तो अब भी था और मरना तो तब भी था. लोगों को यह हुआ कि मर तो रहे ही हैं, ट्रक से बाहर कूद जाओ. जैसे ही हम खड़े हुए, तो उन्होंने ट्रक के अंदर गोली चला दी. राइफलों से धड़ाधड़-धड़ाधड़ गोलियों की बारिश हो गई. उसमें मैं बच गया. मेरे दोनों तऱफ वालों को लग गई थी गोली. तब एक पीएसी का जवान चढ़ा और उसने हाथ पकड़ कर खींचा और नीचे उतारा. मैंने भागने की कोशिश की, तो दो आदमी आकर खड़े हो गए और मुझे पकड़ लिया. मैंने कहा, मत मारो मुझे, मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं. मैंने एक हाथ छुड़ाकर राइफल का मुंह पकड़ लिया. इस तरह पकड़ रखा था, जहां से गोली निकलती है. उन्होंने मेरा हाथ मोड़कर पीछे को दबा दिया और गोली चला दी. मेरे पेट को पार कर गई गोली. मैं यह कहकर गिर पड़ा, हाय अल्लाह, मैं मर गया. मैं नीचे गिर पड़ा, तो उन्होंने कहा, इसे पानी में फेंक दो. दो आदमियों ने मेरे हाथ पकड़े और एक ने टांग. हिंडोले करके मुझे पानी में फेंक ही रहे थे कि दूसरी गोली मेरी टांग में लग गई. गिरने से पहले ही पानी ने मुझे उठा दिया. मैंने पानी से निकलने की कोशिश की. दो हाथ और एक टांग काम कर रहे थे. मैं निकलने में कामयाब हो गया. निकल कर ऊपर आ गया, तो वहां मैंने देखा कि दो लड़के और पड़े हैं गोली लगे हुए. वे कराह रहे थे. दो लड़के और आए थोड़ी देर बाद. उसी ट्रक के थे. एक जुल्फिकार नासिर और दूसरा नईम था. दोनों हमारे ही मुहल्ले के थे. इनमें से एक के पेट से गोली निकली थी और एक सा़फ बचा हुआ था. हमसे चला नहीं जा रहा था. उन्होंने कहा कि ऐसा है कि तीनों को तो हम एक साथ नहीं ले जा सकते, गांव से लोगों को लेकर आते हैं, फिर उठाकर ले जाएंगे. का़फी देर हो गई. नक्कारे की आवाज़ आई, तो मैंने सोचा कि यहां कोई मुसलमानों का गांव है आसपास में. थोड़ी देर बाद सामने से रोशनी चमकी. मुझे पता नहीं चला कि ट्रक है, कार है, बुलेट है या स्कूटर. मेरे बराबर में आई, तो मैंने हाथ दे
कर रोक लिया. वह दारोगा था. उसके पीछे दो लोग और बैठे थे. दारोगा ने कहा कि क्या है बे. मैंने कहा कि मुझे पीएसी वालों ने गोली मार दी, नहर में फेंक दिया, निकल कर ऊपर आया हूं. उन्होंने कहा कि बेटा, घबराओ मत, मैं तुझे अभी ले जाऊंगा उठाकर. एक को बुलेट से भेज दिया और यह कहा कि थाने में खड़ी जीप ले आओ. फिर जीप आई. हम सबको जीप में डाल लिया गया. बाकी लोग बेहोश थे, मैं होश में था. पुलिस वालों ने कहा कि बेटा, मुझे उम्मीद है कि तू बच जाएगा. तुम पीएसी वालों का नाम मत लेना. मैंने कहा, और क्या कहूं जी? उन्होंने कहा कि तुम यह कहना कि मैं अपने भैया को देखने गया था गेट के पास. वहां बलवा हुआ, मुझे गोली लग गई. तब किसी चीज में मुझे डाला और ले जाकर पानी में फेंक दिया. पानी में मुझे होश आया. मैं निकल कर बाहर आ गया, तो पता चला कि यह मुरादनगर की गंगनहर है. वहां से पुलिस मुझे उठाकर लाई. यही बयान देता रहा, तो तेरी जान बच जाएगी. हम तुझे अस्पताल ले जा रहे हैं. वे मुझे अस्पताल लाए, मेरा इलाज कराया. फिर दिल्ली के एम्स में भेज दिया. वहां एक महीना इलाज चला. एक महीने बाद मैं वापस आ गया.

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