प्रस्तावना:मुस्तफ़ा खान

नवरात्रि भक्ति उत्सव के सप्तम दिवस नवदुर्गा के कालरात्रि स्वरूप के सुअवसर पर मैं आज प्रस्तुत कर रहा हूं कवयित्री,लेखिका डॉ मौसमी परिहार की नवगीत रचनाएं ।
कालरात्रि का यह स्वरूप अंधकारमय स्थितियों का विनाश करने वाली शक्ति के रूप में जाना जाता है,जिसके तीन नेत्र ब्रह्मांड के समान गोल हैं जो सदैव शुभलाभ एवं मोक्ष प्राप्ति का द्योतक है।
डॉ मौसमी बहुमुखी प्रतिभा की धनी रचनाकार हैं जो विभिन्न विधाओं में साहित्य सेवा हेतु सतत प्रयासरत हैं।यद्यपि छंदबद्ध रचनाएं मेरी विधा नहीं फिर भी मैंने सीमित अनुभव एवं पठन-पाठन में पाया कि उनके नवगीतों में भावपक्ष,कलापक्ष,बिंब विधान बहतर है। वे शब्दों के प्रयोग में मितव्ययी हैं । कम शब्दों में अधिक कहना आसान नहीं होता यह उनका विशिष्ट गुण है। प्रकृति की कुशल चितेरी कवयित्री डॉ मौसमी की रचनाओं में महीन संवेदनाओं की अनुभूति स्पष्ट देखी जा सकती है ।एक रचना का अंश देखिए- पांच तत्व का/ मिटना तय है/ छठे तत्व का रहना/ प्रेम जिसे कहते हैं/ वह है/ मानवता का गहना ।
नवरात्रि के पावन सुअवसर पर उनकी रचनाओं की प्रस्तुति दायित्व मेरा सौभाग्य है । आइए साहित्यप्रेमी साथियो इन नवगीतों को पढ़ते-गुनते हैं और भक्ति-शक्ति के पर्व पर अपने विचारों से उन्हें संबल प्रदान करते हैं –
[सुंदर सुंदर बिंबों से सजी
बहुत सरल बहुत सरस बेहद खूबसूरत नवगीत मन मोह लेती है।

डॉ .मौसमी के नव गीत

नवगीत

1.भर दुपहरी

सूर्य सिर पर
चढ़ गया है
भर दुपहरी!

धूप ने
और छाँह ने
जादू रचा है
जाल किरणों का
वनों में
फैलता है

काल-कंटक
गढ़ गया है
भर दुपहरी!

वनचरों में
इक तरह का
मौन है ये
शांति का
कर्फ्यू लगाता
कौन है ये

फैसले सब
मढ़ गया है
भर दुपहरी!

2. गूंगे दिन, ब ह री रातें

गूँगे दिन
और बहरी रातें हैं
कहने को
कितनी ही बातें हैं

पीड़ाओं ने
दर्द बिखरे पन्नों पर
अनुभूति ने
शब्द उकेरे पन्नो पर

यादों की
लौटी बारातें हैं.

अनचाही देहों को
आलिंगन घेरे हैं
मन के मीत के
कोसों दूर बसेरे हैं

साँसों पर
साँसों की घातें हैं.

3. अच्छा लगता है

जो अच्छा लगता है
उसकी
छुअन भी
अच्छी लगती है,
ज्यों फूलों को
कांटो की
चुभन भी
अच्छी लगती है !

वृक्षों से लिपटी
रहती है
रैन-दिवस
बेखौफ लतायें,
धूप-थपेड़े
अंधड़-पानी
चाहे हों
मुँहज़ोर हवाएं

कभी ज्योत्सना
कभी सूर्य की
तपन भी
अच्छी लगती है !

बार-बार
मुड़कर देखे है
धरती को
बेचैन चंद्रमा,
कभी बढ़े हैं
कभी घटे हैं
आए अमावस
और पूर्णिमा

चाँद के दिल से
पूछे कोई
अगन भी
अच्छी लगती है!

4.

कभी
चाँद डूबा
कभी टूटा सितारा,
कितनी
रातों को
तुझे उठकर पुकारा!

बहुत आतुर थी
मिलन को
ऋतु पावस,
क्यूँ हमारे
बीच में
आयी अमावस

तिमिर ने चहुँओर
अपना
कर पसारा!

एक क्षण को
चमककर
खो गयी बिजली
राह जो
दिखती थी
वो संशय ही निकली

खेल जब-तब
खेलता
आकाश सारा!

5

कामना के ग्लेशियर
पिघल गए
तुमने जब छुआ !

सर्द हवाओं ने
मुझको
और सर्द किया,
मौसमी घटाओं ने
प्रतिपल
गहरा दर्द दिया

आँखों से आँसू
निकल गए
तुमने जब छुआ !

शब्दों ने
अर्थों तक
यात्रा तय की,
हर पल
दीवार मिली
खड़ी हुई भय की

लफ्ज़ के मायने
बदल गए
तुमने जब छुआ !

6.

पांच तत्व का
मिटना तय है
छठे तत्व का रहना
प्रेम जिसे कहते हैं
वह है
मानवता का गहना !

सूरज को राहु
ग्रसता है
कभी चंद्र को केतु
समय बनाता रहता
इनके बीच
सुलह का सेतु

कॉल सभी से
कहता जाए
अपनी ज़द में रहना !

चाल बदलती
ढाल बदलती
बदले पानी बानी
जिस्म-जिस्म से
रूह बदलती
ज़िंदा यही कहानी

वक़्त का दरिया
बहता जाए
तुम हरदम बहना!

डॉ मौसमी परिहार
भोपाल

टिप्पणी:उदय ढोली(अध्यक्ष)

नौ कवयित्रियों का यह पर्व विविधतापूर्ण है. कथ्य, शिल्प भाव विचार सभी दृष्टियों सें. आज मौसमीजी की रचनाएं पटल पर है. नवगीत यद्यपि कठिन साध्य है. तथापि मौसमीजी सहजग्राह्य रचनाएं मन में जगह बना लेती है. नवगीत का बिंब विधान गीत से अलग है. रूपकों की रचना भी आधुनिक परिप्रेक्ष्य में की जाती है. यहां भी आप उन्हें सहजता से अनुभव कर पाते हैं. किंतु कुछ है जो टीसता है जैसे अनचाही देहों को आलिंगन घेरे है. प्रेम और प्रकृति पर रचे उनके यह गीत अनूठे हैं. छंद विधान में गीतों से अलग हटकर नवगीतों की रचना में मौसमी के यह गीत प्रकृति को एक नई दृष्टि से देखते हैं।
उनके नवगीतों को शिल्प की गहनता में भी देखा जाना चाहिए ऐसा मैं समझता हूं. ये नवगीत अपने बिंबविधान को बारीकी से देखा जाना चाहते हैं। यद्यपि मैं ग़ज़ल और उसके भाव, कला पक्ष पर बारीकी से बात कर सकता हूं पर यह मानता हूं कि इन गीतों में हल्का सा भटकाव है पर वही प्रेम का प्रकटीकरण भी अपने अनूठेपन में उतरा है
देखिए कुछ उदाहरण

वृक्षों से लिपटी /रहती है /रैन-दिवस/
बेख़ौफ़ लतायें/धूप-थपेड़े/अंधड़-पानी/
चाहे हों/मुँहज़ोर हवाएं
ऐसे ही

बार-बार /मुड़कर देखे है/धरती को /
बेचैन चंद्रमा/ कभी बढ़े हैं /कभी घटे हैं /
आए अमावस/और पूर्णिमा
इसे भी देखें
बहुत आतुर थी/मिलन को /ऋतु पावस,
क्यूँ हमारे/ बीच में /आयी अमावस
एक यह
शब्दों ने /अर्थों तक /यात्रा तय की/हर पल
दीवार मिली /खड़ी हुई भय की

उदय ढोली

टिप्पणी:अनिल शर्मा

प्रकृति व प्रेम पर लिखना व पढ़ना कितना सुखद लगता है यह बात पाठक व लेखक दोनों ही बेहतर समझते हैं

स्कूल में अध्ययन के दौरान बड़े कवियों कीं प्रकृति पर लिखी रचनाऐं बहुत लुभाती रहीं हैं जैसे
यह लघु सरिता का बहता जल ..कितना शीतल ….
और फ़िल्मी गीतों में भी प्रकृतिक के बिम्बों के ऊपर लिखे प्रेम गीत बहुत लोकप्रिय हुऐ हैं ..ठंडी हवाएँ , बरखा रानी बगैरा , एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा बगैरा

मौंसमी परिहार जी की कविताऐं प्रकृति व प्रेम के सुदंर चित्र उकेरती हुई एक सवाल करती हुई चलती हैं जिसके जबाव में पाठक के मुहं से वाह निकलती है

प्रकृति कुछ अछूते बिम्ब व प्रेम की मादक झलक रचनाओं को पुष्ट कर रही है

चॉंद के दिल को अगन अच्छी लगे

गूँगे दिन और बहरी रातें
सॉंसो पर
सॉंसो की घातें

वृक्षों से लिपटी बेख़ौफ़ लताएँ

कामना के ग्लेशियर पिघल गए

प्रेम को छटा तत्व कहना लेखिका के लेखन को नया करता है
पॉंच तत्वों के विलीन होने पर भी प्रेम के छटे तत्व को अमरता प्रदान कर यह रचना नमनीय हो गई है ।

 

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