बीसवीं सदी के छठे और सातवें दशक तक हरित क्रांति अवतीर्ण नहीं हुई थी. नीचे के आंकड़ों से साफ़ है कि द्वितीय पंचवर्षीय योजना से योजनाकारों ने यह समझ-बूझकर तय किया कि कम से कम प्रतिशत ख़र्च कृषि पर किया जाए और योजना का अधिक प्रतिशत उद्योग, संचार व्यवस्था आदि में लगाया जाए.
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि यदि इस देश में उद्योगों का विकास होना है, तो खेती का उत्पादन बढ़ाकर वह माल सस्ता से सस्ता प्राप्त करते जाना चाहिए. इस कथन का दूसरा क्या अर्थ हो सकता है, किसान नेता श्री शरद जोशी ने बताया है कि चौथी पंचवर्षीय योजना बनाते समय कृषि वस्तु मूल्य समिति की रिपोर्ट में पृष्ठ 15-16 पर लिखा गया है कि किसान को माल पैदा करने में जो उत्पादन ख़र्च आता है, वह क़ीमत के रूप में देना व्यवहार्य नहीं है. क्योंकि यदि यह लागत ख़र्च निकालना हुआ, तो किसान कुटुम्ब के सदस्यों की मज़दूरी हिसाब में पकड़नी होगी. ऐसा किया गया, तो कारख़ानों को कच्चा माल और अनाज महंगा ख़रीदना पड़ेगा. और इससे कारख़ाने के मज़दूरों की रोज़ी बढ़ानी पड़ेगी. इसलिए दुनिया की मंडियों में इस भारतीय महंगे माल की प्रतियोगिता करना कठिन जाएगा. वर्ष 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग ने ऐसा अजब तर्क दिया कि किसान परिवार के लोगों के श्रम उपज का लागत ख़र्च निकालने में क्यों गिने जाएं, उन्हें दूसरी जगह नौकरी तो नहीं मिलने वाली है. वे तो छोटे-छोटे फुटकर काम करते रहते हैं. यानी सच पूछा जाए, तो वे कुछ काम ही नहीं करते हैं. इस प्रकार के अत्यंत क्रूर कथन सरकारी रिपोर्टों में जगह-जगह लिखे गए हैं.
इसका परिणाम वही होना था, जो हुआ, क्योंकि भारत के किसान-मज़दूरों का दारिद्रय बढ़ा. करोड़ों लोग कंगाल हो गए. हर साल कच्चा माल सस्ता एवं पक्का माल महंगा होता चला गया. दरअसल, इस नीति के कारण ही प्रति वर्ष किसानों का दस हज़ार करोड़ रुपये का शोषण होता है, यह एक हिसाब है. गांव के लोग अधमरे-से हो गए, क्योंकि उन्हें दो जून मोटा अनाज भी पर्याप्त मात्रा में समय पर खाने को नहीं मिलता है. ऐसे में पूरा कपड़ा छोटा ही सही, लेकिन व्यवस्थित मकान, शिक्षा एवं प्राथमिक आरोग्य की बात ही व्यर्थ है. ऐेसी परिस्थिति में अकाल आते रहते हैं. औद्योगिकीकरण के लिए जंगलों की बेतहाशा कटाई होने की वजह से बारिश न केवल कम हुई, बल्कि और अनियमित हुई. जब फ़सल पैदा नहीं हुई, तो किसान-मज़दूर काम के अभाव में मारे-मारे भटकने लगे और रिलीफ के कामों में या खिचड़ी के लिए हाथ फैलाने के वास्ते विवश हो गए. ऐसे में किसान पर क़र्ज़ बढ़ने लगा और क़र्ज़ के बाहर निकलने की सूरतें उसकी नज़रों से धीरे-धीरे ओझल होने लगीं. बैल मर गया, घर की दीवाली ढह गई, तो बैल ख़रीदने के लिए या दीवाल बनाने के लिए वह पैसा कहां से लाएं. शादी जैसे प्रसंगों पर सामान्य पारिवारिक ख़र्च तो करना ही होता है. शासन की नीतियों के कारण शराब की बिक्री बढ़ी. गाय-बैलों के बेतहाशा क़त्ल होने के कारण बैल महंगे हो गए, नई-नई फैशन की चीज़ें देश में गांवों तक आने लगीं और इस कारण ख़र्च और बढ़ गया. लेकिन फिर सवाल यही उठा कि पैसा कहां से लाया जाए, इसके लिए क़र्ज़ बढ़ने लगा. पीढ़ी दर पीढ़ी सभी लड़कों में खेती का बंटवारा होने के कारण खेती की जोतें छोटी-छोटी होने लगीं और ग्रामीण बंधु निराशा में आकंठ डूब गए. कृषि ही एकमात्र धंधा है, जिसमें प्रकृति गुणन करती है, यानी एक बीज के अनेक गुना दाने देती है. लेकिन उल्लेखनीय है कि और धंधों में यह नहीं होता. इसलिए कृषि का यह अतिरिक्तमूल्य पूंजी के रूप में बनकर उद्योगों को मिलना चाहिए, क्योंकि कृषि के सरप्लस से ही पूंजी निर्माण होता है. लेकिन सवाल यह उठता है कि शहरों में वह क्यों जाए. यदि वे देहातों में ही किसानों के पास रहे, तो वे गांवों में उद्योग खोल सकते हैं.
औद्योगिकीकरण के लिए शासन की नीति रही कि शहरों में विपुल मात्रा में सस्ता अनाज और कच्चा माल उपलब्ध हो. इसलिए द्वितीय पंचवर्षीय योजनाकाल में और हरित क्रांति के प्रारंभ के समय यह तय किया गया कि देश में सभी जगह नई कृषि-तकनीकी और सिंचाई आदि की सुविधाएं फैलाने से उत्पादन ज़रूर बढ़ेगा, लेकिन एक सच यह भी सामने आया कि सदियों से भूखा ग्रामीण वह अनाज खा जाएगा. और इसका परिणाम यह होगा कि शहर की मंडियों में अधिक उत्पादन का बड़ा हिस्सा नहीं आ पाएगा. अतः निर्णय यह लिया गया कि जहां किसान अधिक दरिद्र नहीं है, यानी जहां उसका पेट अपेक्षाकृत भरा हुआ है, जैसे पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि स्थानों में सिंचाई की सुविधाएं और नई तकनीकी विशेष रूप से लगाई जाए. इससे बहुत अधिक उत्पादन होगा और पहले से ही किसानों का पेट भरा होने के कारण बढ़ा हुआ उत्पादन किसान शहर की मंडी में लाएगा. इससे अनाज और कच्चा माल न केवल कारख़ानों, बल्कि सरकारी कर्मचारियों को भी सस्ते में मिलेगा और औद्योगिक माल पर कृषि अधिकाधिक अवलंबित होगी. पहले कृषि ऐसी नहीं थी. थोड़े में सारा ध्यान इसी एक धुरी के इर्द-गिर्द घूमता रहा और इसके अनुकूल शासकीय नीतियां निर्मित होती रहीं कि नगर-निवासियों को कृषि का उत्पादन सस्ता मिले, भले ही कृषकों को लागत-क़ीमत मिले या न मिले. इसीलिए कवि दिनकर ने ठीक ही गाया है- कृषक मेधे की रानी दिल्ली. पुराने ज़माने में अश्वमेध यज्ञ होता था. नए ज़माने में भारत में कृषक-मेध हो रहा है.
बीसवीं सदी के छठे और सातवें दशक तक हरित क्रांति अवतीर्ण नहीं हुई थी. नीचे के आंकड़ों से साफ़ है कि द्वितीय पंचवर्षीय योजना से योजनाकारों ने यह समझ-बूझकर तय किया कि कम से कम प्रतिशत ख़र्च कृषि पर किया जाए और योजना का अधिक प्रतिशत उद्योग, संचार व्यवस्था आदि में लगाया जाए. इसलिए कृषि की उन्नति अधिक नहीं हो सकी. जनसंख्या लगातार बढ़ ही रही थी, इसलिए बाज़ार में अनाज और कपास आदि कच्चे माल का अपेक्षाकृत अभाव बना रहा. कृषि में उत्पादित माल की क़ीमतें ऊपर जाने लगीं. तब गोरे अंग्रेजों ने विश्व-युद्ध के ज़माने में जो किया था, वही उन काले अंग्रजों ने किया. दरअसल, सस्ते भाव में, यानी लागत मूल्य से कम दाम में अनाज किसान से प्राप्त करने के लिए शासन ने लेवी लगाई. और किसान के खेत में माल पैदा हुआ हो या न हुआ हो, तो भी अनेक किसानों को बाज़ार से महंगा अनाज ख़रीदकर सरकार को सस्ते दाम में लेवी देनी पड़ी या इन दोनों भावों में फ़़र्क जितनी रक़म, नक़द भरनी पड़ी. कई बार अपने लिए आवश्यक अनाज में से सरकार को लेवी देनी पड़ी और ख़ुद के परिवार के लिए महंगा अनाज बाज़ार से किसान को ख़रीदना पड़ा. इस प्रकार अत्यंत क्रूर रीति से लेवी के नियमों पर अमल किया गया. अभाव की परिस्थिति में क़ीमतें नीची रखी गईं. लेकिन इसी क़ीमत पर भारतीय किसान से कपास या गेहूं नहीं ख़रीदा गया और महंगे दाम देकर विदेशी किसानों से गेहूं ख़रीदा गया. वाह रे देश-प्रेम!