कुछ अख़बारों ने पैसे लेकर चुनाव में ख़बरें छापने की परंपरा क्या चलाई कि हर अख़बार को आम पाठक शक की नज़र से देखने लगा है, पर इससे बड़ा ख़तरा समाचारों के स्थानीयकरण का है, क्योंकि ऐसे में एक ज़िले में घटी घटना दूसरे ज़िले में नहीं जा पाती. आधे ज़िले की घटना पूरे ज़िले में नहीं जा पाती! पहले पृष्ठ पर दिल्ली में घटी कुछ घटनाएं ज़रूर आ जाती हैं, लेकिन वे स़िर्फ एक झलक भर होती हैं.

भारत में एक मज़ेदार खेल समाचारपत्रों द्वारा खेला जा रहा है. सूचनाओं का प्रवाह रुक गया है और उसे रोकने में सबसे बड़ा रोल समाचारपत्रों का ही है. न केवल समाचारपत्र इस स्थिति में ख़ुश हैं, बल्कि सरकार को भी यह स्थिति रास आ रही है. पिछले 25 सालों में समाचारों का स्थानीयकरण बहुत तेजी से हुआ है. 20 या 25 साल पहले जनेऊ, मुंडन, शादी, जन्मदिन एवं छोटे अपराध जैसी ख़बरें समाचारपत्रों में अपनी जगह नहीं बना पाती थीं, लेकिन पहले समाचारपत्रों के राज्य संस्करण निकले, फिर उनके क्षेत्रीय संस्करण निकले और अब ज़िले के संस्करणों से बात आगे बढ़कर तहसील संस्करणों तक पहुंच चुकी है.
समाचारपत्रों का समाचारों वाला हिस्सा ज़िले और तहसील में घट रही घटनाओं के ऊपर ज़्यादा आधारित होता है. जनता अपने समाचारों को अख़बार में छपा देखकर ख़ुश हो जाती है और अख़बार भी छोटे से छोटे समाचारों को छापने में सहूलियत महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें इसके लिए अन्यत्र कहीं जाना नहीं पड़ता. अपराध के समाचार ऐसी स्थिति में ज़्यादा प्रमुखता पा जाते हैं, पर अपराध के समाचारों और उन्हें पढ़ने वालों का दायरा बहुत छोटा होता है. दरअसल, अब ख़बरें एक ज़िले में भी नहीं दौड़तीं. जो लोग यह सोचते हैं कि उनकी ख़बरें समाचारपत्रों में छप गईं और उनसे सारा ज़िला या सारा प्रदेश परिचित हो गया, तो वे एक बहुत बड़े भ्रम में हैं. सच तो यह है कि उनकी ख़बरों को ज़िले के अधिकारी तक नहीं पढ़ते, क्योंकि अगर ज़िले में ही दो या तीन तरह के संस्करण उपलब्ध हों, तो ज़िले का अधिकारी ज़्यादातर उस संस्करण को ही पढ़ता है, जहां उसका घर होता है और उस घर को कवर करने वाला क्षेत्र होता है.
पहले समाचारपत्रों में छपी ख़बरें अधिकारियों के ऊपर अंकुश का काम करती थीं और इसीलिए उन्हें यह डर रहता था कि अगर यह समाचार राजधानी में बैठे उच्चाधिकारियों या मंत्रियों तक पहुंच गई, तो उनसे सवाल-जवाब हो सकता है. इसीलिए वे अख़बारों में छपी ख़बरों के ऊपर ध्यान देते थे और कोशिश करते थे कि समस्याओं का समाधान हो जाए, ताकि अख़बारों में ऐसी ख़बरें छपे ही ना. पर अब ज़िले के अधिकारी इस स्थिति से बहुत ख़ुश हैं, क्योंकि अब उन्हें समाचारों पर ध्यान देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. इसीलिए समाचारों का असर प्रशासन और शासन पर से अब समाप्त हो गया है. यही नहीं, ख़बरों की गुणवत्ता भी घटी है. आज से 20 या 25 साल पहले ख़बरों को तलाशने और उनकी पुष्टि करने के पीछे पहला मक़सद यही होता था कि ख़बर ग़लत न साबित हो जाए और ख़बरें अपना सम्मान न खो दें. इसीलिए 25 साल पहले छपी ख़बरों के ऊपर प्रशासन और शासन ध्यान देता था, लेकिन अब उसे कोई चिंता नहीं होती.
पहले अख़बार में छपी ख़बरों के ऊपर हर जगह से निराश व्यक्ति की आशा टिक जाती थी, क्योंकि उसे लगता था कि जब कोई उसकी बात नहीं सुनेगा और ऐसे में अगर उसकी बात अख़बार के लोग सुन लेंगे, तो उसकी समस्या का निदान आसानी से हो जाएगा. पर अब लोगों की यह आशा भी धीरे-धीरे समाप्त हो रही है. अब लोग कहने लगे हैं कि बहुत छोटी क़ीमत पर अख़बारों में ख़बरें छप जाती हैं. हालांकि इस तरह के आरोप पहले भी लगते थे कि ज़िले से निकलने वाले अख़बार ब्लैकमेलिंग जैसे काम में शामिल हो जाते हैं. वे स्थानीय ठेकेदारों या छोटे अफसरों के बारे में ख़बरें छापने का डर दिखाकर कुछ पैसों की वसूली कर लेते हैं. हो सकता है, कुछ जगहों पर ऐसा होता रहा हो, पर यह बड़े पैमाने पर होने लगेगा, ऐसा कभी कल्पना में नहीं था. आज हालात ये हैं कि सारे देश में पेड न्यूज़ को लेकर इतनी ज़्यादा चर्चा है कि हर अख़बार एक बाज़ार की वस्तु दिखाई दे रहा है. कुछ अख़बारों ने पैसे लेकर चुनाव में ख़बरें छापने की परंपरा क्या चलाई कि हर अख़बार को आम पाठक शक की नज़र से देखने लगा है, पर इससे बड़ा ख़तरा समाचारों के स्थानीयकरण का है, क्योंकि ऐसे में एक ज़िले में घटी घटना दूसरे ज़िले में नहीं जा पाती. आधे ज़िले की घटना पूरे ज़िले में नहीं जा पाती! पहले पृष्ठ पर दिल्ली में घटी कुछ घटनाएं ज़रूर आ जाती हैं, लेकिन वे स़िर्फ एक झलक भर होती हैं. इसका नतीजा यह होता है कि पाठक देश की घटनाओं एवं समस्याओं से बिल्कुल अनजान और अछूता रह जाता है. ज़मीन के संघर्ष, ग़रीबों पर होने वाले अत्याचार या किसी अन्याय के प्रति लोगों द्वारा किए गए सशक्त विरोध को अख़बारों में कोई स्थान ही नहीं मिल पाता है. और अगर मिलता भी है, तो उसकी जानकारी पूरे ज़िले को ही नहीं हो पाती है, पड़ोस के ज़िलों और प्रदेश की तो बात ही छोड़ दीजिए.
यह सारी स्थिति बहुत ही ख़तरनाक है, क्योंकि पहले अख़बार में छपी ख़बरें शासन और प्रशासन को इस बात का आभास देती थीं कि किस तरह की हलचल लोगों में हो रही है, लेकिन आज वे जानकारियां उन्हें नहीं मिल पातीं. उनकी जानकारी के स्रोत स़िर्फ इंटेलिजेंस एजेंसियां होती हैं, जो अपना काम जिस समझदारी से करती हैं, उसकी मिसालों की एक लंबी फेहरिस्त है. इसीलिए शासन-प्रशासन न तो लोगों के प्रति अपनी कोई ज़िम्मेदारी अनुभव करता है और न ही उन समस्याओं के ऊपर ध्यान देता है, जिन्हें लेकर सबसे निचले स्तर पर असंतोष पैदा हो रहा होता है.
ऐसी स्थिति में लोगों के सामने राष्ट्रव्यापी समाचारों को जानने का स़िर्फ एक माध्यम टेलीविज़न रह जाता है. टेलीविज़न भी ज़्यादातर सनसनी फैलाने वाले समाचारों को दिन भर पीटते रहते हैं. एक ज़रिया दूरदर्शन ज़रूर है, जो लोगों के लिए समाचार उपलब्ध कराता है, पर अफसोस! अब वह भी उसी ढर्रे पर चल पड़ा है, जिस पर बाक़ी टेलीविज़न चैनल चल रहे हैं. दरअसल, समाचार चैनल समाचारों की मसखरी, समाचारों का उथलापन और समाचारों का ग्लैमर ही लोगों तक ले जाते हैं. जो समाचार ग्लैमरस नहीं होते हैं, वे उनके लिए त्याज्य होते हैं और इसीलिए वे उनके ऊपर ध्यान नहीं देते, उन्हें कवर ही नहीं करते. यह सारी स्थिति संपूर्ण देश के लिए भयावह है. उत्तर के लोगों को दक्षिण के लोगों की और दक्षिण के लोगों को उत्तर के लोगों की जानकारी नहीं मिलती. देश में ज़मीन के संघर्ष धीरे-धीरे नक्सलवादियों की बढ़ोत्तरी में आग में घी जैसा काम कर रहे हैं, पर इसकी जानकारी सरकारों को नहीं है और राजनेताओं को बिल्कुल नहीं है. इसीलिए यह मानना चाहिए कि समाचारपत्र दो तरह से लोगों की ज़िंदगी पर असर डाल रहे हैं. वे उन लोगों, जो जनता की समस्याओं का हल निकाल सकते हैं, के पास जानकारी नहीं जाने देना चाहते और जिन लोगों की समस्याएं हैं, उन्हें वे ख़तरनाक ढंग से संगठित होने का अवसर देते हैं और देश में एक निराशा का वातावरण पैदा करते हैं. समाचारपत्रों के मालिकों, अधिकारियों एवं राजनेताओं का यह गठजोड़ इस देश में किस तरह की नई समस्याएं पैदा करेगा, अगर उन्हें हम सोचें, तो माथा ठनक जाता है. इसके बावजूद समाचारपत्रों का स्थानीयकरण होने का सिलसिला लगातार तेज होता जा रहा है और आश्‍चर्य की बात तो यह है कि सरकारें इसे अपने लिए शुभ संकेत मानकर ख़ामोश बैठी मुस्करा रही हैं.

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