भारत की जनता की प्रधानमंत्री से यही अपेक्षा है कि वह उन सभी विवादों पर दखल दें और लगाम लगाएं, जिसके कारण देश कुशासन से शासन विहीनता की ओर बढ़ रहा है. प्रधानमंत्री को अपने अधिकारों को स्थापित करना होगा, तभी देश सही राह पर आ सकता है.

दुर्भाग्य से कांग्रेस पार्टी में समय की नब्ज पकड़ने की समझ नहीं है. पार्टी या तो इस बात को लेकर भ्रम की स्थिति में है कि चुनाव कराने का सही समय क्या हो, या वह इस कदर बौखला गई है कि बजाए इसके कि प्रधानमंत्री मसले को अपने हाथ में लेकर देश की जनता को भरोसे में लें, पार्टी गलती पर गलती किए जा रही है. सरकार ने मानसून सत्र देरी से बुलाया. इसके पीछे क्या उद्देश्य है? सरकार यह सत्र पहले भी बुला सकती थी और खाद्य सुरक्षा बिल पर बहस कर सकती थी. वे इस पर अध्यादेश ला सकते थे और किसी भी कीमत पर संसद में पास करा सकते थे, लेकिन सत्ता के गलियारों में यह चर्चा जोरों पर है कि सरकार खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को 20 अगस्त को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के जन्मदिवस पर शुरू करना चाहती है. अब यह संभव हो पाएगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता.
इसी तरह सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य के गठन की घोषणा भी सत्र शुरू होने से पहले कर दी. इस घोषणा के चलते यह सत्र बेवजह शोर-शराबे व वाद-विवाद की बलि चढ़ रहा है, जबकि तेलंगाना का मसला पिछले 57 वर्षों से एक ज्वलंत मुद्दा रहा है. अगर सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य के गठन का निर्णय लिया ही, तो उन्हें गोरखालैंड व विदर्भ सहित जिन अन्य राज्यों की मांग हो रही है, उन पर भी निर्णय लेना चाहिए था.
पाकिस्तान की तरफ से होने वाली घुसपैठ के बाद शुरू हुई बयानबाजी के चलते भी संसद का सत्र बाधित हुआ. हालांकि पाकिस्तान लगातार ऐसी हरकतें करता आ रहा है, लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि हमारी सरकार इस पर क्या कदम उठा रही है? आम जनता को कुछ भी पता नहीं. सरकार इस मसले पर सदन में वक्तव्य देती है, मंत्रालय के प्रवक्ता उससे अलग राय रखते हैं. यह सब देश के हित में नहीं है. लोगों का सरकार के प्रति विश्‍वास कम हो रहा है. मैं इस कॉलम के माध्यम के कहता रहा हूं कि प्रधानमंत्री को अब सभी महत्वूर्ण मुद्दों को अपने हाथों में लेना चाहिए और सरकार के सभी तंत्र को अनुशासित करना चाहिए.
केंद्र से हटकर अगर उत्तर प्रदेश की बात करें, तो राज्य के युवा मुख्यमंत्री से लोगों को बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन जिस तरह से उन्होंने खनन माफियाओं के खिलाफ कार्रवाई कर रही एक कनिष्ठ आईएएस अधिकारी को निलंबित किया, वह यह साबित करता है कि इस राज्य में कुछ भी नहीं बदला है. उनके इस कदम से यह धारणा भी गलत साबित हुई कि देश में युवाओं का दृष्टिकोण अलग है. एक युवा मुख्यमंत्री के तौर पर वो एक उदाहरण बन सकते थे, लेकिन वे अपने मंत्रियों के द्वारा संचालित हो रहे हैं. उनका एक मंत्री ने यह बयान दिया उन्होंने एक आईएएस अधिकारी को सबक सिखाया है. वाह..  एक वरिष्ठ राजनेता अब जूनियर आईएएस अधिकारियों से दो दो हाथ करने लगे हैं. यह क्या हो रहा है? हम कहां तक गिर गए हैं? राज्य सरकारों को पूरा अधिकार है कि वे किसी भी आईएएस अधिकारी को निलंबित या स्थांतरित कर सकती है और केंद्र उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता, लेकिन जो कुछ हुआ वह अच्छे प्रशासनिक व्यवस्था के लिए उचित नहीं है.
उत्तर प्रदेश बहुत बड़ा राज्य है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को यह समझना चाहिए कि इस राज्य की संभावनाएं भी बेहद हैं. वह देश के एक बड़े हिस्से पर शासन कर रहे हैं जो करीब देश का 20 फीसदी हिस्सा है. लेकिन दुख की बात यह है कि एक एसडीएम स्तर का अधिकारी जो कि अवैध खनन को रोक रहा है, उसे बिना किसी कारण के निलंबित कर दिया जाता है और उससे भी अफसोसजनक यह है कि इस मसले पर पर्दा डालने के लिए सरकार अजीब-अजीब कुतर्क गढ़ रही है. सरकार कह रही है कि महिला अधिकारी एक मस्जिद की दीवार गिराने के लिए जिम्मेदार है, जिसके चलते सांप्रदायिक तनाव फैल सकता था, लेकिन क्षेत्र की मुस्लिम आबादी ऐसी किसी घटना से इंकार कर रही है. क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय के नेता कह रहे हैं कि यह सही नहीं है कि महिला अधिकारी तथाकथित दीवार गिराने के लिए जिम्मेदार है, बल्कि वे खुद उस दीवार को हटाना चाह रहे थे. साफ है, निलंबन का आधार मस्जिद की दीवार नहीं, खनन माफिया हैं.
अगर राज्य सरकारें बालू खनन माफिया और केंद्र सरकार कोयला माफियाओं के हाथों संचालित हो रही हैं, तब यह चिंतनीय है कि आखिर देश किस रास्ते पर जा रहा है? देश के भीतर व्याप्त भ्रष्टाचार निश्‍चित रूप से सीमा पर मौजूद हमारे जवानों का मनोबल तोड़ेगा. सेना के जवान भी इसी देश के नागरिक हैं, वे भी अखबार पढ़ते हैं. अगर सरकार नैतिकता के स्तर पर कमजोर साबित होगी, तो पूरे देश को एकरसता में बांधे रखने वाला धागा भी कमजोर होगा. मैं माफी के साथ कहना चाहूंगा कि नैतिकता के पैमाने से देखें, तो यह सरकार इस आधार पर अपने निम्नतम स्तर पर है.
सरकार कब चुनाव कराना चाहती है, हमें नहीं पता, लेकिन देश की भलाई के नजरिये से सोचें, तो जितना जल्द चुनाव हो जाए, बेहतर है. हालांकि ऐसा लग रहा है कि अब अप्रैल 2014 में लोकसभा चुनाव होंगे. अभी भी आठ-दस महीने बाकी हैं, लेकिन अभी भी अगर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्तक्षेप नहीं किया, तो प्रशासनिक स्तर और भी गिरता जाएगा. बेहतर आर्थिक फैसले नहीं लिए गए. बेहतर प्रशासनिक फैसले नहीं लिए गए और मजूबत सैन्य निर्णय नहीं लिए गए, तो आनेवाले ये आठ महीने देश के भविष्य के लिए बहुत महंगे पड़ सकते हैं. एक बार फिर इन सभी आशंकाओं का एक ही जवाब है कि प्रधानमंत्री को अपने अधिकारों को स्थापित करना होगा. उन्हें इन सभी मामलों में दखल देना होगा और इन सभी विवादों पर लगाम लगानी होगी. प्रधानमंत्री चाहें तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से बात कर सकते हैं, इसमें कोई गलती नहीं है लेकिन उन्हें कुशासन से शासन विहीनता की ओर बढ़ रहे देश को सही राह पर लाना होगा. आज जो हो रहा है, वह शासन विहीनता है.
अगर राज्य सरकारें बालू खनन माफिया और केंद्र सरकार कोयला माफियाओं के हाथों संचालित हो रही हैं, तब यह चिंतनीय है कि आखिर देश किस रास्ते पर जा रहा है? देश के भीतर  व्याप्त भ्रष्टाचार निश्‍चित रूप से सीमा पर मौजूद हमारे जवानों का मनोबल तोड़ेगा. सेना के जवान भी इसी देश के नागरिक हैं, वे भी अखबार पढ़ते हैं. अगर सरकार नैतिकता के स्तर पर कमजोर साबित होगी, तो पूरे देश को एकरसता में बांधे रखने वाला धागा भी कमजोर होगा.

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