डॉ.राहुल रंजन

उस सोच को सलाम करने का मन करता है जिसने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का सपना हाथों में थमा दिया। अब तो आंखों में नीद नही आती ,पैर घर से बाहर निकल कर दौड़ने को बेताब हो रहे हैं। दो महीने से घर में झाडू, पोंछा और बर्तन मांजने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि इस बार दीवाली पर सफाई की जरूरत नहीं होगी। घर का कोना कोना साफ है जूतों पर बिना पहने ही कई बार पालिष की जा चुकी है, कपड़े पहने नही पर कई बार धोए जा चुके हैं। ऐसा कोई काम नही बचा जो किया न गया हो। पत्नियों ने पारले जी बिस्किट का केक बनाने में ऐसा उपयोग किया कि किराना दुकानों पर कम पड गए।

इतना ही नहीयू-ट्यूब पर रेसिपी की तो बाट लग गई ब्रेड के रसगुल्लों का स्वाद, लाजवाब, दिन भर किचिन। लाक डाउन जैसे जैसे बढ़ता गया लोगों को अपनी आदतें बदलनी पड़ी जिनके पेट बाहर निकल गए वह घर में डंड पेलने लगे। जब तीसरा दौर आया तो जो काम कभी नहीं किए थे वे भी करने लगे। आन लाइन काम शुरू हो गया और फिर तो मोबाइल पर लाइव का ऐसा जोश छाया कि ऐसा महसूस हुआ कि इंडिया पहले वाला नही रहा। चौथे चरण में तो पूरा इंडिया आनलाइन हो गया। इन सबके बीच परिवर्तन जो हुआ है वह शायद ही कभी देखने को मिले और शायद ही कभी ऐसा अवसर देश को मिले। सब कुछ मोबाइल से ही होने लगा, बच्चे पढ़ने लगे मास्टर पढ़ाने लगे, परीक्षाएं होने लगीं, आफिस वर्क भी आनलाइन। बस यहीं से आत्मनिर्भर भारत का अंकुर फूटा। सत्ताचतुरों ने सोचा कि यही अवसर है जब लोगों को नए धंधे में लगाया जा सकता है। इस सोच ने आम लोगों के घरों से चलने वाले रोजगार और रोजगारों के जीवन में संकट खड़ा कर दिया है। देश में सिर्फ मजदूर ही नही रहते बाकी लोग भी हैं, मजदूरों को तो सरकारें कैसे भी पाल ही लेंगी पर उनका क्या जिसने लाखों रूपये कर्ज लेकर प्रायवेट कालेज से इंजीनियरिंग करने वाले, नए नए वकील, सेल्स मैन, एरिया मैनेजर, बीमा एजेन्ट, सेल्स एजेन्ट संघर्ष करते पत्रकार, छोटे मझोले दुकान वाले, प्रायवेट कंपनियों में काम करने वाले क्लर्क, प्रायवेट स्कूलों के मास्टर, धोबी, नाई, टाइपिस्ट और स्टोनों, आफिस बाय अंदर भले ही चड्डी बनियान फटी हो, मगर अपनी गरीबी का प्रदर्षन नही करते। इनके पास न तो मुफ्त में चावल पाने वाला राशन कार्ड है, न ही जनधन का खाता। यहां तक कि गैस सब्सिडी भी छोड़ चुके। लेकिन बच्चों के स्कूल की फीस, दुकान-मकान का किराया, लोन की किस्त का पूरा भुगतान, बिजली-पानी का पूरा बिल और तो और सरकार के लादे गए तमाम टैक्स भी ईमानदारी से तारीख पर भरते हैं। इसीलिए आत्मनिर्भर यानि जिस तरह से बीते साठ दिनों में जिन तरीकों से बचत की है यानि पत्नी से बाल कटवाए, बिना नौकरानी के पोंछा और बर्तन साफ किए, खुद शेविंग की, कपड़े धोए और भी बहुत कुछ, अबहमेशा ऐसा करते रहें क्योंकि इसी बचत से ही सरकार को वेंटीलेटर पर जाने से बचाया जा सकेगा। सोचें जब सैकड़ों वायरस थे तब लाक डाउन किया और अब जब लाखों फैल गए तो अनलाक हो गया क्यों, शायद अब भारत को आत्मनिर्भर होने का ज्ञान हो गया है। इतिश्री कोरोना चालीसा का चैथा अध्याय समाप्त।

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