3122तीन महीने तक लगातार हड़ताल और कर्फ्यू की वजह से कश्मीर घाटी की जनता अपने घरों में ़कैद है. इस अवधि में सुरक्षा बलों की कार्रवाई के दौरान 88 लोग मारे गए हैं और करीब 13 हजार लोग जख्मी हुए हैं. पैलेट गन की वजह से कई बच्चों समेत 300 लोगों की आंखों की रौशनी चली गई है. पुलिस अब तक प्रदर्शन करने वाले चार हज़ार नौजवानों को गिरफ्तार कर चुकी है. पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत 500 लोगों को जेल भेज दिया गया है. इसका सीधा मतलब यह है कि इन 500 लोगों को किसी अदालत में पेश किए बिना दो साल तक जेल में रखा जा सकता है. उन्हें कोई कानूनी मदद नहीं मिल सकती है. यह वो स्थिति है, जिसका सामना कश्मीर के लोग लगातार तीन महीने से कर रहे हैं. लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि तीन महीने तक संकट से लगातार जूझ रहे लोग अब पस्त हो गए हैं. यही वजह है कि बस्तियों, सड़कों व राजमार्गों पर होने वाले प्रदर्शनों में कमी देखने को मिल रही है. मोहल्ले की मस्जिदों में नारेबाजियों का सिलसिला थम चुका है. पथराव की घटनाओं में भी काफी कमी आई है. यहां सवाल पैदा होता है कि क्या कश्मीर के लोगों की भावनाएं भी ठंडी पड़ गई हैं और क्या उन्होंने संघर्ष करना बंद कर दिया है? ऐसा नहीं लगता. सच तो यह है कि लगातार हिंसा की वजह से कश्मीरी निढाल ज़रूर हो गए हैं, लेकिन उनके राजनीतिक विचार में कोई बदलाव नहीं आया है. कश्मीरी जनता की थकावट अपेक्षित थी. पिछले तीन महीनों के दौरान कश्मीरी जनता के ऊपर जो कुछ बीता है उसे सहने के बाद ऐसा ही कुछ होना था. तीन महीने कश्मीर बंद रहने का मतलब यह था कि एक अरबपति व्यापारी से लेकर एक खोमचे लगाने वाला शख्स तक बड़े आर्थिक नुक़सान से दो चार हुए.

हजारों ज़ख्मियों में से सैकड़ों ऐसे हैं, जिनकी हालत अब भी नाज़ुक बनी हुई है. हताहत होने वालों की संख्या में अभी और इजाफा हो सकता है. इसके अलावा, उन लाखों आम मरीजों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है, जिनका हालत ख़राब होने की वजह से इलाज नहीं हो सका. चूंकि पिछले तीन महीने के दौरान आम हड़ताल, कर्फ्यू और नौजवानों के पथराव की वजह से कश्मीर घाटी की तमाम सड़कें और राजमार्ग आम तौर से बंद रहे हैं, इसलिए मरीजों को अस्पतालों या प्राइवेट स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाना मुमकिन नहीं हो पाया. सच तो यह है कि हालात खराब रहने की वजह से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के शिकार लोगों को भी सामान्य उपचार नहीं मिल सका. श्रीनगर और घाटी के दूसरे कस्बों के ज्यादातर अस्पतालों में इस अवधि में ओपीडी विभाग आम तौर पर बेअसर रहा. इस दौरान डॉक्टर पैलेट गन से ज़ख्मियों का ही इलाज करते रहे. आम मरीजों का इलाज नहीं हो पाया.

दरअसल, तीन महीने के इस प्रदर्शन के दौरान कश्मीरी जनता हर तरह के मुसीबतों और समस्याओं का सामना कर रहे हैं. यही वजह कि अब वे निढाल हो गए हैं. इस मुसीबत पर एक और मुसीबत यह है कि इतनी विपरीत स्थिति में कश्मीर के लोगों को गिरफ्तार किए जाने के बाद भी नई दिल्ली की सरकार टस से मस नहीं हो रही है. आम तौर पर इन परिस्थितियों में अवाम के ज़ख्मों पर मरहम रखने का एकमात्र तरीका बातचीत शुरू करना होता है. लेकिन केंद्र सरकार, चाहे वे खुद प्रधानमंत्री मोदी हों या कोई अन्य भाजपा नेता, अपने बातचीत के अंदाज़ और तीखे शब्दों का इस्तेमाल कर कश्मीरी जनता के ज़ख्मों पर मरहम के बजाय नमक छिड़कते नज़र आ रहे हैं. इस स्थिति का सबसे अधिक नुकसान ज़ाहिर है कि कश्मीरी जनता का ही हो रहा है.

यहां यह बात दावे से कही जा सकती है कि इन तीन महीनों में नई दिल्ली के प्रति कश्मीरी जनता की जितनी नाराज़गी बढ़ गई है, उतनी पहले कभी देखने को नहीं मिली थी. कश्मीर में 10 साल के बच्चे से लेकर 90 साल के वृद्ध तक के दिलों में नई दिल्ली के लिए गुस्सा नफ़रत की हद तक  दिख रहा है. हालांकि कश्मीरी जनता राजनीतिक विचारधारा, धार्मिक पंथों और क्षेत्रीय भेदभाव के कारण कई टुकड़ों में बंटी है, लेकिन तीन महीनों के दौरान कश्मीरियों में नई दिल्ली से नाराजगी को लेकर समानता देखने को मिल रही है. केंद्र सरकार को शायद इस बात का एहसास नहीं है कि अपने हठधर्मी रवैये की वजह से वे आम कश्मीरियों को तो खो ही चुके हैं, साथ ही यहां की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से जुड़े लोगों के भरोसे और सहायता से भी हाथ धोना पड़ा है. नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के नेताओं के हालिया बयानों का अगर बारीकी से आकलन किया जाए तो पता चलता है कि मौजूदा सरकार के अड़ियल रवैये की वजह से यह देश इन लोगों का विश्‍वास खो चुका है. ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछले 70 साल से कश्मीर और भारत के रिश्तों को मजबूत बनाये रखने में बड़ी भूमिका निभाई है. फारूक अब्दुल्ला ने दो दिन पहले अपने बयान में नई दिल्ली को महाराजा हरी सिंह के एक्सेशन (अधिग्रहण) की याद दिलाते हुए कहा कि अगर नई दिल्ली ने एक्सेशन की शर्तों के साथ छेड़छाड़ नहीं की होती तो आज कश्मीर में ऐसी हालत देखने को नहीं मिलती. उमर अब्दुल्ला पिछले तीन महीने के दौरान  अपने बयानों से लगातार भारत की कश्मीर पॉलिसी की आलोचना करते रहे हैं. पीडीपी के नेता और सरकार के प्रवक्ता नईम अख्तर ने अपने एक हालिया बयान में कश्मीर की जनता से शांति बहाल करने की अपील करते हुए कहा कि पीडीपी हालात ठीक होते ही कश्मीर समस्या को हल कराने की कोशिशें तेज करेगी. साथ ही सरकार में अपने सहयोगी भाजपा के साथ तय एजेंडे को अमलीजामा पहनाने की कोशिश करेगी. साफ जाहिर है, जिसने पहली बार जम्मू-कश्मीर में भाजपा को सत्ता तक पहुंचने में मदद की, उसने भी नई दिल्ली के लिए सख्त रवैया अख्तियार करने का इशारा दिया है. वैसे भी पीडीपी के पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं है. अगर उसे अपने को राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखना है, तो कश्मीर की जनता की भावनाओं का ख्याल रखना ही होगा. दक्षिण कश्मीर पीडीपी का गढ़ माना जाता है, कश्मीर के इसी इलाके में सबसे ज्यादा हिंसा हुई और सबसे ज्यादा मौतें भी हुईं. यानी, जिन लोगों ने 2014 के असेंबली चुनाव में पीडीपी को वोट दिया था उन्हीं पर सबसे ज्यादा कयामत बरपी. इसके नतीजे में यकीनन पीडीपी की लोकप्रियता और विश्‍वसनीयता को गहरा धक्का लगा है. जनता को फिर से लुभाने और उनका विश्‍वास हासिल करने में पीडीपी को अब वर्षों लग जाएंगे. लीडर चाहे जितना भी बड़ा हो, जनता के समर्थन के बिना उसकी कोई अहमियत नहीं होती है. पीडीपी नेतृत्व ये बात अच्छी तरह से जानती है कि नई दिल्ली भी उसकी तभी तक इज्जत करेगा, जब तक उसे अवाम का समर्थन हासिल होगा. आज हालत ये है कि जनता में पीडीपी की साख पूरी तरह से खत्म हो चुकी है. इसलिए, पीडीपी के नेता जनता को ये यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे उनकी भावनाओं को देखते हुए कश्मीर समस्या का समाधान निकालने की कोशिश करेंगे. यही वे हालात हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि नई दिल्ली कश्मीर में अपने सहयोगियों का भी भरोसा खो चुका है. सरकार पिछले तीन महीनों के दौरान सरकारी कर्मचारियों को अपनी ड्यूटी पर आने के लिए राजी नहीं कर सकी है. यहां के बैंक भी हुर्रियत के प्रोग्राम पर अमल करते हुए सिर्फ हड़ताल में ढील के दौरान ही काम करते हैं. कश्मीर पुलिस में शामिल लोगों के अपने रिश्तेदार भी विरोध-प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं. इस तरह से साफ जाहिर है कि नई दिल्ली ने सुरक्षाबलों के जरिए लगातार कश्मीरी जनता के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल किया है. उन्हें लगातार घरों के अंदर कैद रहने पर मजबूर किया गया. कश्मीरियों के दिलों में   अब नई दिल्ली के लिए नाराजगी के वो बीज बो दिए गए हैं, जिन्हें उखाड़ना अब काफी मुश्किल होगा. मुमकिन है कि आने वाले चंद दिनों में कश्मीर के लोग विरोध-प्रदर्शन बंद कर सामान्य जीवन जीना शुरू कर देंगे. लेकिन, पिछले तीन महीनों के दौरान कश्मीरियों की नई पीढ़ी पूरी तरह से इस आंदोलन के साथ ज़ुड चुकी है और मोदी सरकार के सख्त रवैये ने कश्मीरियों की नई पीढ़ी को यह एहसास दिलाया है कि उनका संघर्ष तर्कसंगत है.

कश्मीर के लिए गैरसरकारी संवाद अधिक महत्वपूर्ण है

सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल को कश्मीर में व्यापक उदासीनता का सामना करना पड़ा था. इसकी वजह ये रही कि इस प्रतिनिधिमंडल से न सिर्फ हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं ने मिलने से इंकार कर दिया, बल्कि सिविल सोसायटी के अन्य महत्वपूर्ण सदस्यों ने भी इस प्रतिनिधिमंडल से मिलने से इंकार कर दिया. इसके बाद, यह अंदाजा था कि अब दिल्ली से जो भी कश्मीर की हालात का जायजा लेने और हुर्रियत या सिविल सोसायटी के लोगों से मिलने आएगा, उसेे  उदासीनता का सामना करना पड़ेगा. लेकिन मुझे तब हैरानी हुई, जब दिल्ली से आए वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय की अगुवाई में तीन सदस्यीय पत्रकारों का एक दल श्रीनगर पहुंचा. इस दल के साथ श्रीनगर के अलग-अलग विचारधारा से ज़ुडे व्यक्तियों ने बड़ी गर्मजोशी के साथ मुलाकात की. इन पत्रकारों की मुलाकात न सिर्फ राज्य की मुख्यधारा के पार्टियों के लोगों से हुई, बल्कि अलगाववादी हुर्रियत नेता प्रोफेसर अब्दुल गनी बट ने भी अपने घर पर इन पत्रकारों से लंबी बातचीत की. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि हार्डलाइनर समझे जाने वाले हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी ने भी इनसे टेलीफोन (चूंकि, पुलिस ने पत्रकारों को गिलानी के घर पर जाने से रोक दिया था, जबकि गिलानी ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित किया था) पर बात की. इसके अलावा, अलगाववादी विचार रखने वाले सिविल सोसायटी के कई लोग और व्यापारी संगठनों के कई प्रतिनिधियों ने भी इन पत्रकारों से मुलाकात की और अपनी बात सामने रखी.

ये इतना महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि हुर्रियत के नेताओं और सिविल सोसायटी के लोगों ने भारत सरकार द्वारा भेजी गई सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल से बात करने से इंकार कर एक ऐसा माहौल बनाया था, जिसमें दिल्ली से आए किसी भी शख्स के लिए इन लोगों से बातचीत की गुंजाइश लगभग खत्म हो गई थी. लेकिन संतोष भारतीय और उनके साथ आए पत्रकारों के साथ अलगाववादियों ने जिस गर्मजोशी से बातचीत की वह मेरी राय में एक अहम घटना थी. कुछ राजनीतिक और सामाजिक व्यक्तियों ने इस प्रतिनिधिमंडल से बात करवाने की इच्छा भी मेरे सामने रखी थी, लेकिन, वक्त की कमी के कारण सभी लोगों से मुलाकात नहीं हो सकी.

मैंने और अन्य आधा दर्जन पत्रकारों ने संतोष भारतीय की अगुवाई वाले दल के साथ लगभग दो घंटे तक खुलकर बातचीत की. मुझे लगा कि ये लोग खुले दिल के साथ हालात का जायजा लेने आए हैं और पूरी गंभीरता के साथ मामले को समझना चाहते हैं. लिहाजा, संतोष भारतीय, उनके साथी प्रोफेसर अभय दुबे और अशोक वानखेड़े ने बताया कि मुल्क की मीडिया, खास तौर पर टीवी चैनलों ने कश्मीर के मौजूदा हालात के बारे में जो रवैया अपनाया हुआ है, वो न सिर्फ गलत है, बल्कि गैर जिम्मेदाराना भी है.

इस संदर्भ में संतोष भारतीय ने प्रधानमंत्री के नाम जो खुला खत लिखा है, वो कश्मीर के मौजूदा हालात और यहां घटित घटनाओं की एक ईमानदाराना और सहानुभूतिपूर्ण आकलन है. उन्होंने जज्बाती अंदाज में प्रधानमंत्री को अवगत कराया है कि कश्मीर की मौजूदा स्थिति के लिए पूरी तरह से पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराना गलत है और ये कि भारतीय मीडिया पाकिस्तान के लिए बौद्धिक दलाली कर रहा है. मेरी राय में संतोष भारतीय की यह चिट्ठी कश्मीर की मौजूदा गमगीन हालात को सही तरीके से दर्शाती है.

उम्मीद है कि संतोष भारतीय और उनके पत्रकार साथियों ने कश्मीर की असल हालत जानने और कश्मीरी लोगों से सीधी बातचीत करने का जो प्रयास किया है, वो आगे भी जारी रहेगा क्योंकि कश्मीर के लिए गैर सरकारी बातचीत किसी भी सरकारी बातचीत से अधिक महत्वपूर्ण है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here