श्रीलंका और भारत के बीच गहरे पौराणिक ऐतिहासिक संबंधों के बावजूद हम श्रीलंका के सिनेमा के बारे में बहुत कम जानते हैं। दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण कान फिल्म फेस्टिवल के मुख्य प्रतियोगिता खंड में अबतक केवल एक ही श्रीलंकाई फिल्म ” रेकावा” ( 1957) को जगह मिल सकी है। डा लेस्टर जेम्स पेरिज की यह फिल्म गंवई मिथकीय कहानियों पर आधारित थी और पूरी तरह से दक्षिण भारतीय सिनेमा के प्रभाव से मुक्त भी थी। इसके 48 साल बाद 2005 में विमुक्ति जयासुंदरा की श्रीलंकाई फिल्म ” द फोरसेकेन लैंड ” ने कान फिल्म समारोह के अन सर्टेन रिगार्ड खंड में ” कैमरा डि ओर ” पुरस्कार जीता जो किसी युवा निर्देशक की पहली फिल्म को दिया जाता है। यह श्रीलंका की 1055 वीं फिल्म है।ये दोनों फिल्में सिंहली भाषा में बनी हैं। तीसरी फिल्म ” दीपन ‘ (2015) है जो तमिल-फ्रेंच में बनी हैं और जिसके निर्देशक है षाक ओदियार। इस फिल्म को कान फिल्म समारोह (2015) में बेस्ट फिल्म का ” पाम डि ओर ” पुरस्कार मिल चुका है। इसके अलावे यहां एक और श्रीलंकाई फिल्म की चर्चा की जा सकती है जो अपने विवादास्पद बोल्ड दृश्यों के कारण जानी जाती है और वह है अशोक हंडागामा की ” अ लेटर आफ फायर “(2005) जिसका शीर्षक सुप्रसिद्ध फ्रेंच दार्शनिक षाक देरिदा के शब्दों से लिया गया है।

सत्तर के दशक (1976) से ही श्रीलंका गृहयुद्ध की चपेट में हैं जब जाफना में वेलुपिल्लई प्रभाकरण ने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) की स्थापना की। प्रभाकरण जाफना से बाहर केवल एक या दो बार ही निकल सका था। जून 1985 में वह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से उनके सरकारी आवास सात रेसकोर्स में मिला था। राजीव गांधी ने उसे अपना बुलेटप्रूफ जैकेट उपहार में दिया था। बाद में प्रभाकरण ने राजीव गांधी की हत्या करवा दी थी हालांकि वह खुद भी श्रीलंकाई सेना द्वारा 18 मई 2009 की रात में सपरिवार मारा गया था।

विश्व सिनेमा में चर्चित अधिकतर श्रीलंकाई फिल्मे वहीं है जो उस भयानक दौर की पृष्ठभूमि में बनती रही है जिनमें से कुछ की चर्चा उपर की गई है।

विमुक्ति जयासुंदरा की फिल्म ” द फोरसेकेन लैंड ” गृह युद्ध से बर्बाद हो चुके एक ऐसे उजाड़ इलाके में रहनेवाले होमगार्ड अनुरा ( महेंद्र परेरा) और उसके परिवार के निरूद्देश्य जीवन की दिल दहलाने वाली उबाऊ दिनचर्या के बहाने श्रीलंका की पतन गाथा कहती हैं। उसका शराबी बूढ़ा दोस्त, ऊबी हुई पत्नी लता ( निलुपिली) , कुंवारी बहन सोमा ( कौशल्या फर्नांडो) और जवान बेटी बत्ती , सब के सब मशीन हो चुके हैं। उस निचाट निर्जन एकांत में या तो कभी कभार सैनिकों की आवाजाही से हलचल होती है या अनुरा और लता की भावहीन रति क्रियाओं से। हर सुबह उसकी कुंवारी बहन सोमा सबसे पहले उठकर काम पर जाने के लिए बस पकड़ती है, हालांकि अंत तक यह पता नहीं चलता कि वह काम क्या करती है। परिवार में केवल सोमा के पास ही कोई सपना बचा है कि एक न एक दिन वह यहां से निकलकर कहीं टीचर की नौकरी हासिल कर लेगी।

अशोक हंडागामा की फिल्म ” लेटर आफ फायर” अजीबोगरीब कथानक से भरी हुई है। एक अमीर अपनी नौकरानी से जन्मी अपनी ही बच्ची से अनजाने में हमबिस्तर होता है और जब उसे इस बात का पता चलता है तो वह नपुंसक हो जाता है। इस संबंध से पैदा हुए बच्चे से दुर्घटनावश एक वेश्या का खून हो जाता है। त्रासदी यह कि मां मजिस्ट्रेट है और उसे अपने ही बेटे को सजा सुनानी है जिसके साथ वह अक्सर बाथ टब में नंगी हो जाती थी।

षाक ओदियार की विश्व प्रसिद्ध फिल्म” दीपन” एक पूर्व तमिल टाइगर् की सच्ची डायरी पर आधारित है। ओदिआर को फ्रांस में कई वजहों से भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। एक तो उन्होने फ्रांस मे कानून- व्यवस्था को अराजक और इंगलैंड को सबसे अच्छा दिखाया है।दूसरे मुख्य भूमिकाओं मे श्रीलंकाई- भारतीय लोगों को लिया है।विश्व सिनेमा में यह पहली बार देखा जा रहा है कि एक फ्रेंच फिल्म के अधिकतर संवाद तमिल में हैं।

नायक की भूमिका निभानेवाले जेसुदासन एंटनीदासन अपनी असल जिन्दगी में श्रीलंका के जाफना में तमिल टाइगर रहे हैं जो चेन्नई- थाइलैंड होते हुए 1993 में फ्रांस में राजनीतिक शरण लेते हैं।इस फिल्म से पहले लीना मणिमेखलै की एक तमिल भारतीय फिल्म – सेंगदल- मे वे लेखन और अभिनय कर चुके हैं। पेरिस में कई छोटे मोटे काम करते हुए वे कम्युनिस्ट पार्टी के एक धड़े से जुड़े। उन्होने शोभाशक्ति नाम से तमिल मे लिखना शुरू किया ।उनके अनुभवों पर आधारित दो उपन्यास – गुरिल्ला (2001) और गद्दार (2004) दुनियाभर में चर्चित रहे हैं। फिल्म में उनकी नकली पत्नी की भूमिका में चेन्नई की कालीश्वरी श्रीनिवासन हैं जिनका सिनेमा से कोई खास रिश्ता कभी नहीं रहा।वे रंगमंच से जुड़ी रहीं हैं।बच्ची की भूमिका क्लोदैन वीणासितंबी ने की है।

फिल्म जाफना के जंगल में आधी रात को मारे गए तमिल टाइगरों के सामूहिक शवदहन के बाद हमारे नायक द्वारा चिता में अपनी वर्दी जलाने के दृश्य से शुरू होती है।उसे दीपन नाम के एक मृत श्रीलंकाई तमिल परिवार के जाली पासपोर्ट पर एक अनजान युवती को पत्नी और उसके द्वारा गोद ली गई अनाथ बच्ची को बेटी बनाकर पेरिस पहुँचना है । इस खतरनाक यात्रा के बाद दीपन को पेरिस के रिफ्यूजियों के एक ऐसे मोहल्ले की देखभाल का काम मिलता है जहॉ गैर फ्रांसीसी गुंडे अपराधी और गैर कानूनी काम करनेवालों का बारी बारी से राज चलता है। इस रोज- रोज के गैंग वार में अपनी नकली पत्नी और बेटी से बनी नई गृहस्थी को बचाने के लिए उसे फिर से हथियार उठाना पड़ता है । यहॉ उसे श्रीलंका मे ली गई गुरिल्ला ट्रेनिंग काम आती है। साथ- साथ रहते हुए तीनों में सचमुच के परिवार की भावना विकसित होती है। तीन अनजान बाशिंदों का एक परिवार में बदलना ही फिल्म का मर्मस्थल है।युवती को जल्दी हीं समझ आती है कि फ्रांस मे वे कभी शांति से नहीं जी सकेंगे। वह हमारे नायक से बार- बार लंदन चलने की जिद्द करती है । अंत मे हम देखते हैं कि हमारे नायक का नकली परिवार असली परिवार बनकर लंदन मे सुखमय जीवन बिता रहा है।फिल्म यह साबित करती है कि कई बार जिन्दगी की असली कहानियॉ सिनेमा की फंतासियों से ज्यादा दिलचस्प होती है।

           लेखक
अजित राय,फ़िल्म क्रिटिक

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