कल तक यही थी

बड़ी आँखों वाली मालू

और फुदकता निरंजन

जहाँ निरंजन की फटी आँखों

की पुतली पसरी हैं

वहीं उसने रोपा था तीरा मीरा

के बीजों को

चिथड़े तन पर जो हरा छींटदार टुकड़ा है

जिसे चीट्टियों के झुंड पूरब की ओर ले जा रहे हैं

मालू के आठवें जन्मदिन वाली फ्राक का है

ये सब मैं इसलिये बता पा रहा हूँ

क्योंकि मैं ही वह कौवा हूँ

जो आम पेड़ पर बैठकर

रोज उन्हें निहारा करता था

कई बार उन बच्चों ने बाँटा था

मुझसे अपने हिस्से का खाना

खेली थी मुझ संग नुक्का छिपी

मैं आज भी कभीकभी रसोई की ढ़ही उस खिड़की के पास

रोटी के टुकड़े तलाशता हूँ

जो बढ़ा देती थी

रसोई पकाती

बच्चों की माँ मुझे देखते ही।

बच्चों के पिता काले पिट्ठू बैग

टांग रोज चले जाते थें दफ्तर

और कब लौटते थें

नहीं पता

क्योंकि शाम ढ़ले मैं भी

लौट जाता था घोंसले पर

जो पास के नारियल पेड़ पर थी

बस कुछ एक बम गिरे था

ढ़ह गये सब

प्रशासन,परिवार,घर

और सबसे जोर से ढ़हे

सपने मेरे ,इनके ,उनके और न जाने कितने बच्चों

की आँखों के

कई दिनों तक रहा मँडराता

बच्चों के आँखों की तलाश में

ढ़ेर लगी लाशों के चिथड़ो में

चोंच मारता

बारूद मिले रक्त से

कचकच चोंच को

लाशों से पोंछता

तब दिखी

निरंजन के आँख की वह पुतली

उसकी आँख में हरी शाखें

नये पुष्पों के इंतजार में थीं।

आँख फटी थी

पलकें कहीं दूर गिरी थी।

—अनामिका अनु

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