हम प्रस्तुत कर रहे हैं आज मधु सक्सेना की कविताएँ।मधु सक्सेना की कविताएँ आपको अपनी सी लगतीं हैं।वे कविताएँ आपके भीतर चल रहीं कभी नहीं लिखीं गयीं आपबीती के साथ बैठकर बातें करतीं हैं।इन कविताओं पर एक अच्छी टिप्पणी लिखी है नवोदित कवि पद्मनाभ ने।

ब्रज श्रीवास्तव

टिप्पणी

आदरणीय मधु सक्सेना जी समकालीन कविता का एक मुखर हस्ताक्षर हैं।कविता को परिवेश से जोड़ने के कारण यह कविताएं पाठक के मर्म पर ठक-ठक करती प्रतीत होती हैं। परिवेश को कवि ने कई बिंदुओं में पैठकर देखा है जैसे प्रकृति प्रेम , मानवीय प्रेम की निश्छल धारा, नारी सशक्तिकरण, आध्यत्म , जन्म , मृत्यु , मृत्यु के बाद जीवन आदि। ये सभी विषय ऐसे हैं जो एक आम पाठक के जीवन में कभी न कभी कोई प्रश्नचिन्ह अवश्य खड़े करते हैं। उपरोक्त कविताएं उन्हीं प्रश्नचिन्हों को शब्द देने का सफल प्रयास हैं।

कविता लिखना है मुझे में कवि की आकुलता स्प्ष्ट तौर पर प्रकट होती है प्रकृति के उन तत्वों के प्रति जिनके बिना जीवन असंभव है लेकिन मानव आधुनिकता की दौड़ में उनसे बहुत दूर हो गया है । बहुत सहज भाषा में बिना किसी अलंकारीय आडंबर के , प्रकृति प्रेम में पगी इस कविता में जीवन के मूलभूत तत्वों के प्रति समर्पण का स्थायी भाव दृष्टिगोचर होता है।

वह कवि ही क्या जो मात्र प्रश्न खड़े करे लेकिन समाधान न दे। कवि ने अपनी कविता ऐसा कर जाएं में जब कहा कि सारे रक्षा सूत्र सार्थक हो जाएं, तब वह नारी शोषण की भयावह समस्या का कितना सरल , सहज एवं मानवीय समाधान प्रस्तुत किया है जो वास्तव में अनुकरणीय है। यहाँ कवि ने जो बिम्ब प्रस्तुत किये हैं वह एक चलचित्र की भांति आंखों से गुजरने लगते हैं मानो वह हमारे आसपास ही घट रहा हो। वास्तव में यह हर घर की व्यथा है। सबसे बड़ा प्रश्न कि हम बहु को बेटी क्यों नहीं मान पाते , बस इतना हो जाये तो आधी से अधिक शोषण की शाखाएं स्वतः सूख जाएंगी।

कवि की इन कविताओं में जीवन के प्रति एक गहरी आसक्ति , अर्थात रागधर्मी जीवनोमुखता ही रोमांटिक नवीनता का आभास कराती है। जब वह कहती हैं कि

*बस इतना करना
जब पीलापन लिए गिरूं तो रख लेना
करीब ही
धरती में मिला मिटा देना
जड़ में सोख लेना*

तब एक साथ वह आध्यत्म, पारलौकिक एवं दर्शन कह देती हैं। यही क्रम चलता रहे बनने और मिटने का , इसी पर तो तमाम दर्शन लिखे गए और आज भी जारी हैं। जो सभी दर्शन का निचोड़ है उसे इतनी सहजता से कह देना वास्तव में कवि की कथ्य और बिम्ब पर गहरी पकड़ को प्रतिबिंबित करता है।कवि दृष्टि वह है जो थके हुए की थकान पहचान ले, सूने पल में मन के भीतर के सन्नाटे को परख लें. उनकी विचारधारा कविता के भाव पक्ष के ज्यादा निकट है और साथ ही एक भावात्मक प्रवाह भी सभी कविताओं में अनायास ही चलता रहता है. अगर गहराई में उतरा जाए प्रतीत होता है कि एक मौन उनकी कविताओं में मुखरित है. एक यात्रा जैसे शब्दों को साक्षी मानकर चुप है, किंतु दुख की हिलकोर से भीतर कुछ-कुछ टूटता गिरता रहता है. यह कैसा जीवन है जो विश्वास भंग की भंगिमा से भरा है.

कहा जा सकता है कि कवि के मानस जगत में उठने वाले भाव और विचारों की इंद्रियानुभूत बिम्बों में सहज अभियक्ति ही कवि की सफलता है। समकालीन कवि को समकालीन बने रहने के लिए अपने सूक्ष्म भाव को व्यक्त करने हेतु इन्द्रिय ग्राह्य शब्दों का बड़ा ही सटीक प्रयोग करना होता है, मधु जी इस कार्य में भी पूर्णतः सफल सिद्ध हुई हैं , क्यों कि उनके एक एक शब्द सभी कविताओं में इस प्रकार फिट हुए हैं कि उनके स्थान पर कोई पर्ययवाची शब्द रख देने से पूरी की पूरी भाव श्रृंखला भरभरा सकती है।

निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि टूटते हुए मिथक और चटकती हुई आस्थाओं के बीच मधु जी की कविताएं कथ्य-शिल्प और भाव की तीनों ही दृस्टि से श्रेस्ठ हैं। विचारक कालरिक के शब्दों में इन कविताओं को वास्तव में “श्रेस्ठतम शब्दों का श्रेष्ठतम क्रम” कहा जा सकता है। उनकी कविताएं पाठक से एक सीधे और मुक्त सम्बन्ध की अपेक्षा रखती हैं क्यों कि इनका मूल्य कहीं न कहीं भीतर ही है जैसे लोहे की धार लोहे के भीतर होती है।

पदमनाभ

टिप्पणीः सुधीर देशपांडे

मधु सक्सेना की कविताएं यानी प्रेम की वह निर्मल धार जो अपने पाठक को आपादमस्तक भिगो देती है। वह शहद जिसकी मिठास आपके संपूर्ण अतःस्थल को एक अनिर्वचनीय मिठास से भर देती है। वह आनंद जो आपको तीनों लोकों की प्राप्ति की तृप्ति से भर दे। उनकी कविताओं में प्रेम अपना नया मुहावरा गढता है। उनकी कविताएं सहज ही अपने पाठक को समानुभूति का स्पर्श देती है और अपनी भावयात्रा में बहा ले जाती है।

आज साकीबा पर नवरात्र के प्रथम दिन वरिष्ठ कवयित्री मधु सक्सेना जी की कविताएं –
1-लिखना है मुझे – अपने भावों को प्रकृति के हर पटल पर लिखकर अभिव्यक्त करने का संकल्प,कलम अखंड और स्याही अमिट जिससे संसार का सबसे आवश्यक भाव प्रेम गहरे एवं सुस्पष्ट शब्दों में समस्त जीव के मनोभाव पर अंकित रहे समभाव और सौहार्द जगाता रहे ।

2,खुद से मिलना – एक विशिष्ट अनुभूति जिसका अनुताप ताउम्र रहे,अपने से मिलकर स्वयं से मिलने की अनुभूति देता रहे।

3,ऐसा कर जाएं – बहुत हुआ ये सब सुनना कि/पराई होती हैं लड़कियां..ये बहुत अर्थपूर्ण उलाहना दिया मधु जी ने ।एक दूसरे की रक्षा का किया आव्हान जिससे स्त्री स्त्री की शत्रु न बने ।पहले स्त्री तो करे स्त्री की रक्षा फिर किसी अन्य से आशा करे । इस कविता में अनेक समस्याओं की ओर इंगित है जो स्त्री के विरुद्ध हैं ।

4,एक दिया दुआ का-घर का स्तंभ ढह जाने से घर घर जैसा नहीं रहता,खालीपन सालता है।काल के मछुआरे ने फेंका जाल ।ऐसा लगा डायरी ने खो दी अपनी कुछ इबारतें जो जरूरतों ने लिखीं-लिखवाई ।इस कठिन और आसान के बीच देहरी पर/एक दिया जला रखा है दुआ का..
इस कविता में भावों का भटकाव दृष्टिगोचर हुआ । कथ्य शिल्प में भी ।

5,पत्ता – बनने और मिटने की लंबी प्राकृतिक प्रक्रिया एवं प्रेम पर भावपूर्ण कविता ।अंतर्मन की इच्छा ।
मधु जी की कविताएं सरल भाषा,भाव बिंब की कविताएं हैं जिसमें अंतर्मन के प्रेमिल व कोमल भाव हैं । कहीं कहीं विषय में भटकाव दिखता है जो आरंभ से अंत तक बदलता प्रतीत होता है । जिससे लय बाधित जान पड़ती है। भावप्रवणता की दृष्टि से कविताएं बढ़िया हैं।
बहतर प्रस्तुति आभार पद्मनाभ जी सुधीर जी अपनी अपनी सार्थक भूमिकाओं के लिए ।
साकीबा की प्रसंशनीय व सामयिक मुहिम के लिए आभार ।
– मुस्तफ़ा खान ।

मधु सक्सेना की कविताएं-

|1 | लिखना है मुझे ||

कलम से , एक बार
बस..….. एक बार
लिखना है मुझे ….

नदिया की छाती पर
आकाश की धड़कन पर
हवाओं की सरसराहट पर
सूरज की किरण पर
चाँदनी की साँसों पर

फूलों की महक पर
भौरें की गुंजन पर
कोयल की कूक पर
बया के घोंसले पर
हरी घास पर ….

मौसमों के लिबास पर
सावन की बूंदों पर
बसंत के मद पर
पूस की रात पर
पसीने की बूंदों पर

जब सब इन सब पर लिखूँ
तो कलम हो अखंड
स्याही हो अमिट
क्योंकि …
लिखना है मुझे प्रेम …..
हर जगह …..

|| मधु सक्सेना

|2| खुद से मिलना ||

अंगुलियों से छुआ ख़ुद अपनी ही अंगुलियों को
आँखों से देखा ख़ुद अपनी ही आँखों में
अपनी ही मुस्कान पर मुस्करा उठी
अपने ही सौंदर्य पर मुग्ध हुई
अपने ही माथे पर लिया चुम्बन

अपने से ही कही सुख – दुख की बातें
कोई अपनी ही बात गुदगुदाती रही देर तक
अपने ही हाथों कस लिया अपना हाथ
अपने ही सीने से लगकर सुनी अपनी ही धड़कने
साँसों से महक उठी साँस

बिखेर दिए अपने सारे रंग
और ख़ुद ही समेट कर बन गई इंद्रधनुष

पंचतत्वों में विलीन होती रही बार बार
पुनः पुनः लिया अपना हिस्सा
बार बार गढ़ा ख़ुद को
खुद ही…..

अपनी ही महक से महकती रही
ख़ुद ही खो गई ख़ुद में …..

तुमसे मिलकर लगा
ख़ुद से ही मिली जैसे
पहली बार …

|| मधु सक्सेना ||

| 3| || ऐसा कर जाएं ||

एक कोमल मन ही बात समझेगा
कोमल मन की …
जुड़े है हम दोनों एक घर से
तुम आई और मैं गई हूँ

वो घर न रहे भले ही मेरा
पर ये घर तुम्हारा ही रहेगा
कोई नही कह पायेगा
तुम दूसरे घर की हो

बहुत हुआ ये सब सुनना कि
पराई होती है लड़कियां
पराए घर से आई बहु अपनी नही हो सकती

आओ माँ , बुआ ,काकी ,भाभी , बहु …हम नई रीत बनायेगें
एक दूसरे को राखी बांध कर वचन देगें
एक दूसरे का मान बनाये रखेगें

ऐसा हो तो कितना अच्छा हो
हर स्त्री दूसरी स्त्री को
रक्षा सूत्र बांध दे
हर मुश्किल में साथ दे
एक दूसरे की रक्षा करे

फिर कोई कन्या गर्भ में न मरे
कोई स्त्री सताई न जाये
सती न बने ,जलाई न जाये
बलात्कार और हत्या का शिकार न बने

काश इस बार कुछ ऐसा जाए
सब स्त्री एक जुट हो जाएं ..
सारे रक्षा सूत्र सार्थक हो जाएं ..

|| मधु सक्सेना ||

|4| || एक दीया दुआ का ||

बड़ी सी इमारत ढह गई
नींव की गलती रही या इमारत का असंतोष
किसी ने बगावत की या किसी ने धिक्कारा
पल भर की बात थी या लंबे समय की प्रकिया
पता भी तो नही ..
बस इतना समझ आया
ढह गई इमारत भरभराकर ….

डायरी से निकल कर उड़ गए कुछ पन्ने
जिनमे लिखा था बार -बार प्रेम
डायरी नही सम्हाल पाई
या पन्नो को बंधन रास नही आया ?
पता भी तो नही
पता तो बस इतना चला
डायरी ने खो दी अपनी कुछ इबारतें

एक घर हुआ करता था
जिसमे खनकती थी हँसी
दर्द मुस्करा कर सहेजे जाते थे
चले गए कुछ लोग अचानक
घर की उदासीनता रही या
लोग ऊब गए ?
पता भी तो नही
पता तो बस इतना चला
बिखर गया घर ,हो गया खाली खाली सा …

सागर ने खो दी कुछ मछलियां
अपने आप उछल कर किनारा पार किया
या किसी मछुआरे ने जाल फेंका
पता भी तो नही
बस इतना पता चला कि
अपनी अकूत सम्पदा से उदासीन
बेचेंन सा हर लहर को धकेल रहा तट पर…..

जुड़ना कठिन था तो
बिछुड़ना भी कहाँ आसान ….?

इस कठिन और आसान के बीच देहरी पर
एक दीया जला रखा है दुआ का
इमारत के लिए
डायरी के लिए
घर के लिए और
सागर के लिए …….

……….|| मधु सक्सेना ||

| 5| || पत्ता ||

बन जाना चाहती हूँ
तुम जैसे घने छायादार
शज़र का एक पत्ता
हज़ारों, लाखों पत्तों के साथ ..

जानती हूँ –
मौसम बदलते ही
पीली पड़ कर गिर जाउंगी
दूर कही उड़ जाउंगी

बस इतना करना
जब पीलापन लिए गिरूँ तो रख लेना
क़रीब ही
घरती में मिला मिटा देना
जड़ में सोख लेना

फिर जब नए पत्तों के निकलने का समय हो
अपनी जड़ ,तने ,और डालियों में से गुज़ार कर
फिर बना लेना एक हरिआया पत्ता
सजा लेना खुद पर
गर्व बना कर….

यही क्रम चलता रहे बनने और मिटने का
मात्र उम्र पूरी होने पूरा नहीं हुआ जा सकता
पूरा होने से ही पूरा हुआ जा सकता है

तुम ही मेरी इच्छा का आदि और अंत हो प्रिय
बन बन कर मिटना चाहती हूँ
मिट मिट कर बनना चाहती हूँ
तुममें ही मर कर, तुमसे से ही होकर
तुमसे ही जन्मना है मुझे
बार बार …..हर बार …..

“मधु सक्सेना “‘

 

टिप्पणी :3

🌞🙏🏻🌻

मधु जी की कविता कोमल होते हुए भी उनमें निहित सशक्त भाव और उनका संप्रेषण अत्यंत ग्राह्य बन पड़ा है।

हर कविता बहुत सहजता के साथ अंतर्मन में प्रवेश कर हलचल पैदा करती है ।

=लिखना है मुझे=

प्रेममय सृष्टि की कल्पना।

प्रेम भाव ही है जो समस्त जीवन चक्र का मूल स्रोत है जिसमें मनुष्य से लेकर प्रकृति और समूचे जीव जगत को चलायमान रखने की क्षमता है ।

= खुद से मिलना=
किसी और को चाहना खुद के प्रति संवेदनशील होना है।
प्रेम अंतस में इसी तरह घुलता मिलता है।

= ऐसा कर जाएँ =
स्त्रियों के एकजुट होने का आह्वान करती ये कविता स्त्रियों को एक रक्षा सूत्र में बंधने की पहल करती है ।नारी की स्थिति को सुदृढ़ बनाने की पैरवी करती हुई एक सार्थक कविता।

= एक दिया दुआ का=
जब सब विछिन्न सा प्रतीत होने लगे तो ,,,, , आख़िर में करने के लिए दुआ ही बचती है।
दुआ भी एक तरह की इच्छा शक्ति ही है और इच्छा शक्ति से ही परिस्थितियों से पार पाया जा सकता है।

= पत्ता=

बनने- मिटने का क्रम जीवन में अनवरत चलता है।
” मात्र उम्र पूरी होने से पूरा नहीं हुआ जा सकता, पूरा होने से ही पूरा हुआ जा सकता है”
इस एक वाक्य में जीवन का गहरा दर्शन छुपा हुआ है।

ख़ुदेजा खान

लिखना है मुझे , एक कवि किस तरह जीवन को महसूस करता है और फिर ये कामना करता है कि जो लिखा गया है वह हो शाश्वत प्रेम की तरह
दूसरी कविता ख़ुद से मिलना में प्रेम की ही एक सूक्ष्म अभिव्यक्ति है ,
वास्तव में प्रेम में ही वह ताकत है जो अपने ही अव्यक्त रूप से मिलाने का हुनर रखता है
ऐसा कर जाएं एक सामाजिक चेतना की कविता है जो एक बेहद महत्त्वपूर्ण पक्ष को रेखांकित करती है
एक दीया कविता एक दुआ की कविता है एक ऐसे मन की बात है जो जुड़ना चाहता है ,जो सकारात्मक है और सदैव जीवन के साथ खड़ा है
पत्ता कविता जीवन के दार्शनिक पक्ष को रेखांकित करती है जो बनने और मिटने के क्रम को स्वीकार कर भी अपनी यात्रा जारी रखने का संकेत देती है
कवि को बधाई
सुधीर जी
और
पद्मनाभ जी की महत्वपूर्ण टिप्पणी कविताओं को खोलती हैं
और विमर्श के अवसर प्रदान करती है

डॉ वनिता वाजपेयी

टिप्पणी

नवरात्रि का कवयित्रियों और कविताओं के रूप में साकीबा का आयोजन सराहनीय है। प्रथम दिवस देवी का रूप शैलपुत्री कहलाता है।
मधु बहुत सीधे सरल शब्दों में अपने आसपास के परिवेश का सहजता से वर्णन कर देती हैं। कविता दरअसल व्याख्यान नहीं मांगती। वह खुद को अनुभव किए जाने का अनुरोध करती है।
मधु की कविताएं भी यही अनुरोध करती हैं। प्रकृति में डूब कर, पर्यावरण को महसूस करते हुए, स्वयं के होने की अनुभूति को कविता में ढालते हुए मधु ने इन कविताओं की जो रचना की है वह काफी समय तक याद रहेगी। बहुत-बहुत बधाई मधु को इन कविताओं के लिए। आभार साकीबा।

संतोष श्रीवास्तव

कविताओं पर लिखना मेरे लिए कभी आसान नहीं रहा। मुझे लगता है कविता तो पढ़कर महसूस करने की हुई; लिखूँ कैसे इस पर। फिर भी रवायत निभाते हुए कहना चाहूँगी कि मधु जी ने कविताओं में अपना स्वर पकड़ लिया है। शिल्प को साध लिया है। वो जो कहना चाहती हैं सम्प्रेषित हो पा रहा है यह मेरी नज़र में बहुत बड़ी बात है। विषय हमारे आसपास के हैं जिनसे हम सब जुड़े हैं, ऐसे भी कह सकते हैं कि विषयों में बहुत नवीनता नहीं है परंतु रसानुभूति में कहीं कोई बाधा नहीं है। प्रकृति- प्रेम, समाज में शोषित वर्ग के लिए सहानुभूति, अपने अस्तित्व को सद्कार्यों को समर्पित करना, सबके लिए प्रेम का उदात्त रूप आदि भाव इन कविताओं को पढ़ते हुए सहज बोध होते हैं।

 

अनिता मंडा

भाव कविताओं के रूप में सहज ही प्रस्फुटित हो जाते हैं। कबीर ने लिखा था “कब मसि कागद छुओ नहीं कलम गही नहिं हाथ”
वही मधु सक्सेना की आज पटल पर प्रस्तुत कविताओं में पहली कविता लिखना है मुझे में लिखा है कलम से एक बार बस एक बार लिखना है मुझे और वे समस्त प्राकृतिक वस्तुओं पर … प्रकृति के समस्त उपादानों पर प्रेम लिखना चाहती हैं। संसार मे प्रेम आवश्यक वस्तु है आवश्यक भाव है जिसके बिना संसार एवं समस्त सांसारिक रिश्ते चल ही नहीं सकते मधु की दूसरी कविता है खुद से मिलना इस कविता में एक दर्शन प्रस्तुत किया है। ऐसा कर जाएं कविता नारी सशक्तिकरण की कविता है। जिसमें स्त्रियों के मान सम्मान के लिए नए विधान की बात करते हुए एक समाधान बताया है। सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव को समाहित करते हुए एक दीया दुआ का कविता का सृजन कल्याणकारी भाव से किया गया है। भावों की गहन अर्थवत्ता के साथ कविता की पंक्तियाँ जीवन की बाधाओं के बीच जीवटता को प्रस्तुत करती हैं जब कवयित्री लिखती है -बन बनकर मिटना चाहती हूँ मिट मिटकर बनना।

मधु की कविताएँ भावों का गुलदस्ता हैं। बिम्ब, भाव और शैली का माधुर्य सहज भाषा के साथ परिलक्षित होता है।

नवदुर्गा पर्व पर नौ कवयित्रियों के चयन उनकी कविताओं के प्रस्तुतिकरण के लिए पटल के एडमिन ब्रज श्रीवास्तव जी को बधाई।

प्रस्तोता सुधीर देशपांडे जी
विशेष टिप्पणीकार पद्मनाभ पाराशर जी

तथा आज के वर्तमान अध्यक्षयीय टिप्पणीकार नीलिमा जी
को धन्यवाद

पद्मा शर्मा

ग्वालियर

जो इंसान प्रेम कर सकता है , वह सब कुछ कर सकता है प्रेम ही हमारे जीवन का कारण है ,उसे समझने की ,कहने की व लिखने की सभी की अपनी लिपि व ढंग हो सकते हैं

1-लिखना है मुझे कविता इसका सशक्त उदाहरण है प्रेम को जीने के लिये मधु जी प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करती हुई उसकी हर शय में प्रेम तलाश लेती हैं और यह प्रेम इस कदर गहरा है कि उसे ज़ाहिर करने के लिये उपलब्ध सोपान कवि को कम नज़र आने लगते हैं
उसका चिंतित मन कह उठता है कि

कलम हो अखंड
स्याही हो अमिट

अन्यथा प्रेम अधूरा रह जायेगा बताने से वर्णन करने से
बहुत ख़ूब

2-खुद से मिलना- रूमानी और रूहानी
प्रेम की एक ऐसी सशक्त अभिव्यक्ति कि पाठक आख़िरी ढाई लाइन को दुहराता रहे बार बार कि

तुमसे मिलकर लगा
खुद से ही मिली जैसे
पहली बार …

यह कविता बहुत गुदगुदाती है जब पाठक सोचने पर मजबूर हो जाता कि
‘किससे’ मिलने पर

ऐसा कर जायें – संदेशपरक अच्छी रचना है
आज नारी की व्यथा नारी समझने लगी है वह उस सोच से बाहर आ रही है कि मैंने शोषण सहा है तो बाक़ी नारी भी सहें’औरतें उस अनावश्यक ‘सासू ट्रोमा’ से बाहर आकर स्वतंत्र स्वाँस लेने लगीं हैं

एक दिया दुआ का – हम अक्सर नहीं समझ पाते घट रहे घटनाक्रम को और विचलित हो जाते हैं यह समझने के लिये कि आख़िर क्यों हुआ ये ,
ऐसी स्थिति में मधु जी जैसै जागरूक लेखिका का ख़ुशहाली के लिये आशा का दीपक प्रज्वलित किये जाना प्रशंसनीय है

5-पत्ता- गहरी बात कहती हुई दर्शन के दर्शन कराती हुई बहुत अच्छी कविता है
मधु जी ने उस परम सत्ताधारी से जो अनुरोध किया है उसको कहने के लिये उन्होंने कितने दिन तप किया होगा ये प्रश्न विचारणीय व नमनीय दोनों है

सुधीर जी व साकीबा का आभार
मधु सक्सेना जी को बधाई 💐

अनिल कुमार शर्मा

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