allahabad_high_courtसभी जन प्रतिनिधियों और नौकरशाहों के बच्चों की सरकारी स्कूलों में पढ़ाई अनिवार्य किए जाने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर उत्तर प्रदेश में कोई अमल नहीं हुआ. नेताओं और नौकरशाहों ने हाईकोर्ट के आदेश को ताक पर रख दिया है. इसे फिर से सक्रिय करने और अदालत के आदेश के कार्यान्वयन पर जोर देने के इरादे से राजधानी लखनऊ में नायाब पहल हुई है. फ्यूचर ऑफ इंडिया मंच ने इस मुद्दे को जाग्रत करने की पहल की और मंच के मजहर आजाद ने गांधी प्रतिमा पर बेमियादी अनशन शुरू की.

उल्लेखनीय है कि 18 अगस्त 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक रिट याचिका (संख्या 57476) व अन्य के संदर्भ में आदेश दिया था कि छह माह के अंदर ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि सभी सरकारी तनख्वाह पाने वाले लोगों व जन प्रतिनिधियों के बच्चों का सरकारी स्कूलों में दाखिला सुनिश्चित हो. यह भी कहा गया था कि उपर्युक्त व्यवस्था शैक्षणिक सत्र 2016-17 से लागू हो जानी चाहिए. हाईकोर्ट के इस आदेश पर कार्यान्वयन के बारे में प्रदेश के मुख्य सचिव से आरटीआई के जरिए सूचना मांगी गई तो नकारात्मक जवाब मिला.

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि नेता-अफसर और सरकारी खजाने से वेतन या मानदेय पाने वाले हर व्यक्ति के बच्चे को सरकारी प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य करें. ऐसा न करने वालों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान किया जाए. कोर्ट ने इसे अगले सत्र से ही लागू करने का निर्देश दिया था, साथ ही कहा था कि जिन नौकरशाहों और नेताओं के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ें, वहां की फीस के बराबर रकम उनके वेतन से काटे जाएं. साथ ही ऐसे लोगों का इंक्रिमेंट और प्रमोशन भी कुछ समय के लिए रोकने की व्यवस्था की जाए. हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि जबतक इन लोगों के बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, वहां के हालात नहीं सुधरेंगे. इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने जूनियर हाईस्कूलों में गणित व विज्ञान के सहायक अध्यापकों की चयन प्रक्रिया पर दाखिल याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान यह आदेश दिया था. याचिकाओं में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा सामने आने पर यह फैसला सुनाया गया.

हाईकोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले की बुनियाद में कोर्ट को मिली वह जानकारियां थीं, जिसे सुनकर अदालत खुद हैरत में थी. सुनवाई के दौरान अदालत को जानकारी दी गई थी कि उत्तर प्रदेश के एक लाख 40 हजार जूनियर व सीनियर बेसिक स्कूलों में अध्यापकों के दो लाख 70 हजार पद रिक्त हैं. सैकड़ों स्कूलों में पानी, शौचालय, बैठने की व्यवस्था जैसी मूलभूत सुविधाओं का अभाव है तो कई स्कूलों में छत ही नहीं है.

सरकार, नेता व अफसर इस बदहाली के बावजूद बेसिक शिक्षा के प्रति संजीदा नहीं हैं क्योंकि उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं बल्कि कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं. इस पर हाईकोर्ट ने कहा कि प्रदेश में तीन तरह की शिक्षा व्यवस्था है, अंग्रेजी माध्यम के कॉन्वेंट स्कूल, प्राइवेट स्कूल और बेसिक शिक्षा परिषद से संचालित स्कूल. आजादी के 68 साल बीत जाने के बावजूद सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. ऐसा अफसरों, नेताओं, न्यायिक अधिकारियों के बच्चों का सरकारी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य न होने के कारण है. इसी कारण वहां न योग्य अध्यापक हैं और न मूलभूत सुविधाएं. सरकारी खजाने से वेतन व सुविधाएं हासिल करने वालों के बच्चे जब तक सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक इन स्कूलों की हालत में सुधार नहीं होगा.

सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया) इस मुद्दे पर लगातार संघर्ष कर रही है. मैगसेसे पुरस्कार विजेता व प्रमुख समाजसेवी संदीप पांडेय ने कहा कि संविधान में किसी भारतीय नागरिक को यह छूट नहीं कि वह जहां चाहे वहां अपने बच्चे को पढ़ाए. सरकार इसके लिए नीति तय कर सरकारी तनख्वाह पाने वाले व जन प्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ना अनिवार्य कर सकती है. जब हम किसी सड़क के किनारे दुकान पर कुछ खा रहे होते हैं अथवा चाय की दुकान पर चाय पी रहे होते हैं तो हमें कई बार यह अहसास ही नहीं होता कि जो हाथ हमें खिला-पिला रहे हैं उन हाथों में असल में पेंसिल-किताब होनी चाहिए. इन बच्चों को जिन्हें आम तौर पर छोटू कह कर सम्बोधित किया जाता है काहम कई बार नाम भी पूछने की जरूरत नहीं समझते. इनमें से कुछ हमें साइकिल-मोटरसाइकिल की मरम्मत की दुकानों पर मिल जाएंगे. कुछ पटाखे, शीशे व बुनाई के कारखानों में मिलेंगे तो कई घरों में काम करते हुए मिल जाएंगे.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24, 21-ए व 45 बाल दासता को रोकने के लिए पर्याप्त होने चाहिए थे. अब तो कई कानून भी बन गए हैं. कारखाना अधिनियम-1948, खदान अधिनियम-1952, बाल मजदूर (प्रतिबंध एवं नियंत्रण) अधिनियम-1986, नाबालिग बच्चों को न्याय (संरक्षा एवं सुरक्षा)- 2000 व मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 जैसे कानूनों का क्रियान्वयन ईमानदारी से हो जाता तो काम करते हुए बच्चे कहीं दिखाई नहीं पड़ते. इन कानूनों के होते हुए भी बाल मजदूरी धड़ल्ले से चल रही है. इसका मतलब है कि न तो सरकार उपर्युक्त कानूनों के क्रियान्वयन के प्रति गम्भीर है और न ही नागरिकों को बाल मजदूरी से कोई दिक्कत है. कभी बच्चे के परिवार की मजबूरी बता कर या शिक्षा की बच्चे की जिंदगी में निरर्थकता बता हम किसी न किसी तर्क से बाल मजदूरी को जायज ठहरा देते हैं.

दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दर हासिल कर ली है. भारत में आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते. इसमें से आधे बाल मजदूरी के शिकार हैं. जिन देशों ने 99-100 प्रतिशत साक्षरता की दर हासिल की है, उन्होंने अपने यहां समान शिक्षा प्रणाली लागू की है. इसका मतलब यह है कि सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने के अवसर उपलब्ध हैं. भारत में 1968 में कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली एवं पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू करने की सिफारिश की थी, लेकिन तब से लेकर अब तक सभी सरकारों ने उसे नजरअंदाज किया है. 2009 में (मुफ्त एवं अनिवार्य) शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ जिसने गरीब परिवारों के बच्चों को सभी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की, लेकिन इस प्रावधान को लागू करने में सरकारें गम्भीर नहीं हैं.

भारत में अब दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं हैं – एक पैसे वालों के लिए जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं तो दूसरी गरीब लोगों के लिए जो अपने बच्चे सरकारी विद्यालय में भेजने के लिए अभिशप्त हैं, जहां पढ़ाई ही नहीं होती. इस तरह भारत में शिक्षा अमीर व गरीब के बीच दूरी को और बढ़ा देती है. यदि भारत में सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध होनी है तो सिवाए समान शिक्षा प्रणाली को लागू करने के और कोई उपाए नहीं है. सरकारी विद्यालयों की गुणवत्ता सुधारने का सबसे सीधा और एकमात्र तरीका यही है कि सभी सरकारी वेतन पाने वालों व जन प्रतिनिधियों के बच्चों के लिए सरकारी विद्यालयों में पढ़ना अनिवार्य किया जाए.

यदि सरकार और प्रशासन में बैठे लोग सरकारी विद्यालयों को अपना नहीं मानेंगे तो भला और कौन मानेगा? जब सरकारी अधिकारियों ने घाटे में चलने वाली एअर इंडिया को यह नियम बना कर जिंदा रखा है कि सरकारी काम से यात्रा करने वाले लोगों को एअर इंडिया से ही यात्रा करनी होगी तो सरकारी विद्यालयों को जिंदा रखने के लिए वे अपने बच्चों को इन विद्यालयों में भेजने का नियम क्यों नहीं बना सकते?

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