कानून की किताब में जितने नए अध्याय ज़ुडे हैं, उससे कहीं अधिक हटाए गए हैं. ये ब्रिटिशकालीन अध्याय कानूनी किताब में आर्काइव की तरह पड़े थे. प्रधानमंत्री मोदी ने तत्परता दिखाते हुए करीब बारह सौ पुराने कानूनों को एक झटके में हटा दिया. हालिया रूस के दौरे पर उन्होंने इस बात की ताकीद भी की, लेकिन विधिवेत्ताओं का कहना है कि अगर इन्हें नहीं भी हटाया जाता, तो इससे देश की न्यायप्रणाली पर कोई ज्यादा असर नहीं पड़ता. अब भी कई ऐसे ब्रिटिशकालीन कानून हैं, जिनका उपयोग शासक या अभिजात्य वर्ग स्वहित रक्षा के लिए करता है और इसे हटाने पर कोई सरकार विचार नहीं करती है.

supreme courtआजादी के 70 साल बाद भी हमारे देश में कानून निर्माताओं को इतना समय नहीं मिला कि वे ब्रिटिशकालीन कानूनों की समीक्षा कर सकें. अपनी महत्ता खो चुके ये कानून आज भी पुरानी किताबों में रखे मोर पंख की तरह सुसज्जित और सौंदर्यबोध की नुमाइशी चीज बनकर रह गए हैं. हाल यह है कि हम तो औपनिवेशकालीन कानूनों का पालन कर रहे हैं, जबकि ब्रिटेन ने खुद कई ऐसे पुराने कानूनों से या तो पल्ला झाड़ लिया है या फिर उसमें संशोधन किया है.

‘प्रतिकूल कब्जा’ कानून पर एक नजर डालते हैं. यह कानून उन लोगों के लिए एक चेतावनी है, जो लंबे समय से अपने घर से दूर रहकर शहरों में काम कर रहे हैं. मुमकिन है कि जब आप लंबे समय बाद अपने गृहनगर जाएं, तो देखें कि आपकी संपत्ति पर कोई कब्जा कर बैठा हो. राहत की बात है कि कुछ वर्ष पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने ‘प्रतिकूल कब्जा’ कानून को न्यायिक तंत्र की वैधता पर काला धब्बा करार दिया है. इसके तहत अगर कोई व्यक्ति 12 साल तक आपकी संपत्ति पर कब्जा जमाए है, तो कुछ निश्चित हालात के तहत वह संपत्ति उसी की हो जाएगी.

दिलचस्प यह है कि जिस देश में यह कानून विकसित हुआ, वहां इसमें अब तक कई संशोधन हो चुके हैं, लेकिन हमारी लचर व्यवस्था समीक्षा करना तो दूर, आज तक उसी कानून के मद्देनजर फैसला सुनाती रही है. कह सकते हैं कि इन कानूनों की मौजूदगी में कोर्ट भी ऐसे मामलों में फैसला सुनाने के दौरान बेबस नजर आता है. ब्रिटिश काल का यह कानून अदालतों से आज तक ऐसे फैसले पर मुहर लगाता रहा है, जो अतार्किक और असंगत है. एक फैसले में ब्रिटिश न्यायालय ने भी इस कानून को ‘मालिक के लिए कठोर और कब्जाधारियों के हित में’ करार दिया था.

पुराने कानूनों के लौटे अच्छे दिन

64 साल में जहां देश की गैर भाजपा सरकारों ने मात्र 1301 कानून हटाए थे, वहीं यह सरकार केवल तीन साल में ही 1159 पुराने कानूनों को हटा चुकी है. कह सकते हैं कि भाजपा को जहां राज्यसभा में नया बिल पास कराने के लिए विपक्ष का मान-मनौव्वल करना पड़ता है, वहीं पुराने कानूनों को हटाने में मोदी सरकार दस कदम आगे है. हाल में पुराने कानूनों को हटाने के लिए दो बिल पास किए गए थे, जिनके तहत 1053 कानून हटाए गए. इसमें पहला है विनियोग अधिनियम (लेखानुदान) बिल 2015.

इसके तहत 758 पुराने विनियोजन अधिनियमों को हटाया गया. दूसरा है-निसरन और संशोधन बिल, 2015. इसके तहत 295 अधिनियमों को हटाया गया था. हटाए गए पुराने कानूनों में दो दर्जन से अधिक अंग्रेज कालीन थे, जो वर्तमान परिस्थितियों में अपना महत्व खो चुके थे. क्रिमिनल लॉ, कॉन्ट्रैक्ट लॉ, कंपनी लॉ, लेबर लॉ, प्रॉपर्टी लॉ जैसे कई कानूनों को संशोधित कर इन्हें नया रूप दिया गया. नए कानून में सम्मिलित कर लेने के बाद अभी कई और ऐसे पुराने कानून हैं, जो अनुपयोगी हो गए हैं.

भारत में कानून की किताब में 300 से अधिक कानून हैं जो ब्रिटिश शासन के समय से चले आ रहे हैं. श्रम, निजी कंपनियों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण, टैक्स वसूली के कुछ कानून बेकार और इस्तेमाल से बाहर हैं. इनका इस्तेमाल अक्सर लोगों को परेशान करने में किया जाता है. खबर है कि सरकार ऐसे चार सौ पुराने कानूनों को भी जल्द हटाने जा रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर 2016 को नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में कहा था कि कानून स्थिर होना चाहिए, लेकिन मूक नहीं. उनका आशय था कि कानून में स्थिरता तो हो, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार उनमें परिवर्तन भी होते रहना चाहिए. समय-समय पर कानूनों की समीक्षा होते रहने से उनकी प्रासंगिकता और जीवंतता बनी रहती है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरकार बनने से पहले चुनाव प्रचार के दौरान पुराने और अप्रासंगिक कानूनों को हटाने या उनमें संशोधन करने का वादा किया था. उन्होंने कहा था कि बेकार कानूनों से भारत को निजात दिलाना भी उनका एक मिशन है.

किसकी गोपनीयता, सत्ता की या देश की

शासकीय गोपनीयता कानून-1923 की बात करें, तो अंग्रेजों ने भारत पर सत्ता कायम रखने व अपने काले-कारनामों को छुपाने के लिए इस कानून का सहारा लिया था. आजाद भारत ने आंख मूंदकर इन ब्रिटिशकालीन कानूनों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया. हाल में कई सरकारी आयोगों व समितियों ने शासकीय गोपनीयता कानून को समाप्त करने की सिफारिश की थी, पर सरकार इसे नजरअंदाज कर रही है.

विपक्ष में सभी राजनीतिक दल शासकीय गोपनीयता कानून को काला कानून बताकर सरकार से इसे हटाने की मांग करते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही देश की सुरक्षा, एकता व अखंडता की रक्षा के लिए इसे जरूरी बताने लगते हैं. वीरप्पा मोइली आयोग ने सुझाव दिया है कि यदि  सरकार शासकीय गोपनीयता कानून के कुछ प्रावधानों को जरूरी मानती है, तो उसे राष्ट्रीय  सुरक्षा अधिनियम में शामिल कर सकती है. इसके बावजूद इस कानून का प्रभावी होना सत्ता के लोकतंत्र विरोधी चेहरे को ही परिलक्षित करता है.

वाहन मालिकों का हित सर्वोपरि 

अब बात करते हैं ब्रिटिश कालीन मोटर वाहन अधिनियम की. ब्रिटिश राज में अधिकतर वाहन मालिक अंग्रेज थे, वहीं कुछ  भारतीय वाहन मालिक राजे-रजवाड़ों से जुड़ा अभिजात्य तबका था. जाहिर है कि मुट्‌ठी भर लोगों के लिए बने मोटर वाहन कानून में जनसामान्य के हितों को महत्व नहीं दिया गया. आजादी के बाद जब इस कानून को अपनाया गया, तब किसी वाहन से घायल होने वाले पक्ष के हिस्से में जो क्षतिपूर्ति आई वो उस समय के लिहाज से तो ठीक थी, मगर मुद्रा के अवमूल्यन को देखते हुए इसमें मामूली इजाफा ही किया गया.

समलैंगिकता पर छिड़ा वार

समलैंगिकता को अपराधीकृत करने वाले ब्रिटिशकालीन कानून पर सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में पुनर्विचार की सहमति दी थी. इससे पूर्व दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में व्यस्क व्यक्तियों के बीच समलैंगिक संबंधों को वैध माना था. साथ ही आईपीसी की धारा 377 के  एक पक्ष को गैर संवैधानिक माना था. इसके बाद 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को गैर कानूनी करार दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को   पांच न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया है.

विवादों में घिरा राजद्रोह कानून  

राजद्रोह कानून को हटाने की मांग हाल में जद-यू के वरिष्ठ नेता शरद यादव ने की थी. उन्होंने कहा था कि देशद्रोह का कानून अंग्रेजी शासनकाल में लागू किया गया था. इसका छात्रों और युवाओं पर प्रयोग करने से देश बंट जाएगा. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कुछ छात्रों पर देशविरोधी नारे लगाने के बाद यह कानून इन दिनों काफी चर्चा में रहा है.

बेनामी संपत्ति क़ानून पर राजनीति

1988 में बेनामी संपत्ति के लिए कानून पास किया गया था, लेकिन इतने साल बीत जाने के बाद भी इसे नोटिफाई नहीं किया गया. इस पर राजनीति तो खूब होती रही, लेकिन शासकों ने इसे लागू करना गैर जरूरी समझा. हाल में मोदी सरकार ने इस कानून में माकूल परिवर्तन कर इसे नोटिफाई किया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि मैं आगे कोई कदम उठाऊंगा तो आप चिल्लाएंगे कि आखिर हमने बेनामी संपत्ति का कानून पारित क्यों किया है? आप कहेंगे कि मोदी ने जल्दबाज़ी क्यों कर दी? आपने 88 से अब तक उसे लागू नहीं किया, देश में बेनामी संपत्ति इकट्‌ठी करने वालों को खुली छूट दे दी.

समय के साथ बदले नजरिया  

  1. अधिवक्ता दीपक द्विवेदी कहते हैं कि अब मैकाले के दौरान के कानूनों की समीक्षा वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर होनी चाहिए. परिस्थितियों और समय के अनुसार अपराध के तौर-तरीके बदले हैं. अब भी तमाम ऐसे कानून हैं, जो देश की कानून-व्यवस्था पर बोझ की तरह हैं, जिन्हें हटाया जाना जरूरी है. अब आर्म्स एक्ट को ही देख लें. दुनिया भर में आर्म्स एक्ट को लेकर कोई कानून नहीं मिलेगा, लेकिन अपराध को लेकर सख्त कानून हैं. ये कानून भारतीयों का दमन करने के लिए ब्रिटिश लोगों ने बनाए थे, लेकिन आज भी हम आंख मूंद कर इन कानूनों को मान रहे हैं. गैर भाजपा सरकार इन कानूनों की समीक्षा को लेकर हिम्मत ही नहीं जुटा पाई. अब प्रतिकूल कब्जा कानून को ही देखें, जिसकी संपत्ति है, इस पर मालिकाना हक तो उसी का होना चाहिए. सजा तो उसे मिलनी चाहिए, जो 12 साल से दूसरे की संपत्ति पर कब्जा जमाकर बैठा है. ये सभी कानून अपने फायदे के लिए ब्रिटिश लोगों ने बनाए थे, इन्हें हटाया जाना जरूरी है. मोटर वाहन अधिनियम को ही देखें. सड़क दुर्घटना में मौत होने पर वाहन मालिकों पर आईपीसी की धारा 304 ए के तहत गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया जाता है, जिसमें आसानी से कोर्ट से जमानत मिल जाती है. वहीं पीड़ित पक्ष को नाममात्र का मुआवजा मिलता है. सुप्रीम कोर्ट ने कई बार सरकार से इन कानूनों की समीक्षा के लिए कहा है. जो किताब में लिखा है, केवल वही नहीं फैसला देना है. कई मामलों में समय और परिस्थितियों का भी ख्याल रखना होगा.
  2. वकील रामप्रसाद दुबे बताते हैं कि देश में अब भी कई उपनिवेशकालीन कानून चल रहे हैं, जिन्हें हटाए जाने की जरूरत है. ये कानून सिर्फ इसलिए चलाए जा रहे हैं, क्योंकि इनसे सताधारी पार्टियों का हित जुड़ा है. राजद्रोह कानून को ही लें. सरकार ड्रेकोनियन मानसिकता के तहत खुलकर इस कानून का इस्तेमाल कर रही है. कानून भी हमें इस बात की इजाजत देता है कि सरकार या उसकी नीतियों का विरोध करना राजद्रोह के दायरे में नहीं आएगा, जब तक कि आप लोगों को देश के खिलाफ हिंसा के लिए नहीं उकसा रहे हों. लेकिन आज हो क्या रहा है? जिस किसी पर, चाहे वो समाजसेवक हो या छात्र, राजद्रोह का मुकदमा डाल दिया जाता है. कई मामलों में देखें तो कानून बदल जाते हैं, पर प्रावधान वही रखे जाते हैं. टाडा हट गया, आज पोटा आ गया. राज्यों में भी मकोका जैसे कानूनों को तवज्जो दिया जा रहा है. अब अफस्पा को ही देख लें. इस दमनकारी कानून की आड़ में हम नॉर्थ ईस्ट या कश्मीर के अपने लोगों को भी पराया बना दे रहे हैं. इन कानूनों को लागू करने से इन राज्यों में स्थिति और बिगड़ी है. अब एडल्टरी कानून को ही देखें, तो इसके अनुसार पति को विवाहेत्तर संबंध रखने की पूरी आजादी है, लेकिन अगर पत्नी ऐसा करती है, तो पति को यह अधिकार है कि वह इस कानून के तहत शिकायत दर्ज कर सकता है. यानि पत्नी ने अफेयर किया तो वह कानूनन दंड की भागी होगी. ऐसे कई औपनिवेशिक या औपनिवेशिक सोच के कानून अब भी हैं, जिनकी समीक्षा होनी चाहिए.
  3. वकील विवेक भदौरिया बताते हैं कि सरकार सिर्फ यह दिखाना चाहती है कि हम कुछ कर रहे हैं. इन कानूनों को अगर नहीं भी हटाया जाता, तो इससे ज्यूडिशियरी सिस्टम पर कोई फर्क नहीं पड़ता. सिर्फ राजनीतिक कारणोें से ऐसा किया गया है. अगर सरकार को कुछ करना ही था, तो राजद्रोह, अफस्पा जैसे कानूनों को हटाने पर विचार करना चाहिए या फिर इन कानूनों की समीक्षा करनी चाहिए. दरअसल सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, कोई भी यह नहीं चाहता कि ऐसे कानून जो शासक वर्ग के हित में हैं, उन्हें हटाया जाए. अगर शासक वर्ग स्वहितों की रक्षा के लिए ऐसे कानूनों को हटाने पर विचार नहीं करती, तब सुप्रीम कोर्ट को ही पहल करनी होगी. सुप्रीम कोर्ट कई फैसलों में सरकार को यह निर्देश देती रही है कि इन कानूनों में सुधार की जरूरत है या अभी तक क्यों ऐसा नहीं किया गया?

अब मैकाले के दौरान के कानूनों की समीक्षा वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर होनी चाहिए. परिस्थितियों और समय के अनुसार अपराध के तौर-तरीके बदले हैं. अब भी तमाम ऐसे कानून हैं, जो देश की कानून-व्यवस्था पर बोझ की तरह हैं, जिन्हें हटाया जाना जरूरी है. अब आर्म्स एक्ट को ही देख लें. दुनिया भर में आर्म्स एक्ट को लेकर कोई कानून नहीं मिलेगा, लेकिन वहां अपराध को लेकर सख्त कानून हैं.

दीपक द्विवेदी, अधिवक्ता

राजद्रोह कानून को ही ले लें. सरकार ड्रेकोनियन मानसिकता के तहत खुलकर इस कानून का इस्तेमाल कर रही है. कानून भी हमें इस बात की इजाजत देता है कि सरकार या उसकी नीतियों का विरोध करना राजद्रोह के दायरे में नहीं आएगा, जब तक कि आप लोगों को देश के खिलाफ हिंसा के लिए नहीं उकसा रहे हों. लेकिन आज हो क्या रहा है? जिस किसी पर, चाहे वो समाजसेवक हो या छात्र, राजद्रोह का मुकदमा डाल दिया जाता है.

राम प्रसाद दुबे, अधिवक्ता

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