museumमेरे बचपन की घटना है. एक बार उत्तरी कश्मीर के स्कूलों में शिक्षकों को पता चला कि उनके वरिष्ठ अधिकारी (शिक्षा विभाग) आधिकारिक यात्रा पर आने वाले हैं. उन दिनों ज्यादातर शिक्षा अधिकारी पुरुष होते थे, लेकिन जिनकी बात की जा रही है, वो एक महिला अधिकारी थीं. ये अतीका बानो थीं, जो एक तहसील शिक्षा अधिकारी (टीईओ) थीं. उनका प्रशासनिक धैर्य और नो नॉनसेंस दृष्टिकोण शिक्षकों पर भारी पड़ता था. जब आप इस तरह की कहानियां सुनकर बड़े होते हैं, तो कम से कम उस व्यक्ति के बारे में जरूर जानना चाहते हैं. बहनजी के रूप में वह लोकप्रिय थीं. कभी-कभी हमारे घर आती थीं और उनकी एक झलक भी लोगों पर गहरा प्रभाव छोड़ती थी.

कश्मीरी भाषा और संस्कृति के लिए काम करने के दौरान मुझे बाद में उनसे मिलने और उन्हें ज्यादा करीब से जानने का मौका मिला. काम के प्रति जुनून, उनका दृष्टिकोण और सादगी भरा व्यवहार ही उनकी पहचान थी. ये वही अतीका जी नहीं थीं, जिनकी उपस्थिति मात्र से ही शिक्षकों की कंपकंपी छूट जाती थी. उनकी सादगी उनके पोशाक से भी झलकती थी. वो हमेशा अपने टू पीस काले बुर्के की वजह से भीड़ से अलग दिखती थीं.

मैं उनकी मृत्यु से सिर्फ तीन दिन पहले यानि 1 अक्टूबर (रविवार) को उनसे मिला. कैंसर से जूझते हुए उनकी स्थिति खराब हो गई थी. हालांकि, उनकी बीमारी उनके अडिग विश्वास को कमजोर करने में विफल रही थी. उन्होंने अपनी विशेष मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया और अदबी मर्कज़ कामराज के बारे में चर्चा की, जिसकी वे सीनियर वाइस प्रेसीडेंट थीं.

एक शिक्षक से लेकर भाषा कार्यकर्ता तक बहन जी की यात्रा सफलता की कहानियों से भरी हुई है, जो अभी भी जनता के बड़ी हिस्से के लिए अज्ञात है. उत्तरी कश्मीर में उनकी सफलता के निशान ज्यादा दिखाई देते हैं. यहां उन्होंने सबसे अधिक काम किया था. सक्षम प्रशासक होने के कारण वो हमेशा बेहतर परिणाम की अपेक्षा करती थीं और परिणाम देती भी थीं. इसी वजह से वे निदेशक के पद तक पहुंचीं. वो उस वक्त महिला सशक्तिकरण के लिए काम करना चाहती थीं, जब कश्मीरी समाज में इस तरह की सोच भी उचित नहीं मानी जाती थी.

शिक्षार्थियों के परिवार से होने के कारण ही यह संभव हो सका कि वो खुद इतनी शिक्षित बन सकीं. उन्होंने शादी न करने का फैसला किया. मेरे दिमाग में ये बात थी कि उनसे बातचीत में इस फैसले (शादी न करने के) पर चर्चा से दूरी बनी रहे, लेकिन उन्होंने कुछ पत्रकारों से बताया कि क्यों उन्होंने समाज के मानक मानदंडों के खिलाफ जाना पसन्द किया. शायद इसी वजह से वो अपने जीवन में असाधारण काम कर सकीं.

बहन जी को 1970 की शुरुआत में सोपोर में मजलिस-उन-निसा नाम की पहली महिला कल्याण संगठन स्थापित करने का श्रेय जाता है. अपने साहस और जुनून की वजह से उन्होंने महिलाओं के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किए ताकि उन्हें आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाया जा सके. इस अवधारणा को पहली बार बेगम अकबर जहां ने मिस्कीन बाग में पेश किया था और अतीका जी ने उत्तरी कश्मीर में इसका अनुसरण किया.

ऐसी साक्षर और अर्द्ध साक्षर महिलाओं मेें स्वतंत्रता की भावना और अपने स्वयं के मूल्य को पहचानने की क्षमता देने का जो काम अतीका जी ने किया, वो उनके लिए सबसे अच्छी तोहफा था. मजलिस-उन-निसा ने न केवल महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाया, बल्कि इसने शिक्षित महिलाओं के लिए एक ऐसे मंच के रूप में कार्य किया, जिससे वे खुद अपने अधिकारों की लीडर बन सकें और अपने स्वयं की विचार प्रक्रिया को सशक्त बना सकें.

केवल बहन जी ने इस एनजीओ का उपयोग महिलाओं के सशक्तिकरण के कैनवास का विस्तार करने के लिए किया बल्कि उन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए एक कॉलेज की स्थापना भी की. उन्होंने अपना जीवन उन महिलाओं के लिए समर्पित किया, जो प्रतिबंधित और खुद को दबाव में महसूस कर रही थीं.

भाषा, संस्कृति और विरासत में बहनजी का योगदान अद्वितीय है. उन्होंने जम्मू में एक कैलीग्राफी प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की और कई इच्छुक उम्मीदवारों को प्रशिक्षित किया. उसने एक कश्मीरी साप्ताहिक ‘मीरास’ की शुरुआत की, लेकिन उन्हें इस दौरान काफी मुश्किल का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्हें अच्छे कार्यकर्ता नहीं मिल सके. एएमके के वरिष्ठ उपाध्यक्ष के रूप में, जहां उनकी मजलिस-उन-निसा एक घटक इकाई है, उन्होंने भाषा आंदोलन के लिए अथक प्रयास किया. उन्होंने अपने दादा के नाम पर एक वार्षिक पुरस्कार ‘खिलात-ए-हनीफी सोपोरी’ की स्थापना की. उनके दादा सोपोर के एक मशहूर विद्वान थे.

हालांकि, यह मीरास महल ही था, जिसकी वजह से उन्हें ऐसे लोगों से काफी प्रशंसा और सम्म्मान मिला, जिनकी विरासत और संस्कृति में रुचि थी. निजी क्षेत्र में एक संग्रहालय की स्थापना करना असंभव था, लेकिन उन्होंने ऐसा किया. उन्होंने मुझसे एक बार कहा था कि ऐसा करने की प्रेरणा उन्हें अपने घर से ही मिली थी, जहां बहुत सारी सामग्री एक संग्रहालय के लायक थी. वे पांडुलिपियां आज मीरास महल का हिस्सा हैं और 15 कमरों में फैले लकड़ी के शेल्फ अमूल्य धरोहर बन गए हैं. इस संग्रहालय की विशिष्टता ये है कि अन्य संग्रहालयों के विपरीत यह सामान्य कश्मीरियों के बारे में है. जो कुछ भी एक सामान्य कश्मीरी पिछले शताब्दी में उपयोग कर रहे थे, उसे यहां सुरक्षित रखा गया है. घास के जूते, लकड़ी के खड़ांव, कानी लीज जैसे बर्तन इसे अन्य संग्रहालयों से अलग बनाते हैं.

इसमें किताबें और पांडुलिपियां हैं. पवित्र कुरान (150-250 वर्ष पुराना), हाथों से लिखी गई प्रतियां, विभिन्न भाषाओं में भगवद् गीता और एक दुर्लभ शनामा फिरदौसी की पुरानी प्रति है. 500 वर्ष पुरानी पत्थर की कड़ाही (कानी लाज) है, जिसका वजन करीब 5 किलोग्राम और हिंदू देवी की 500 वर्ष पुरानी पत्थर की मूर्ति है. ये सब इस संग्रहालय को एक सम्मोहक स्थान बनाते हैं. बहन जी ने खुद इन कलाकृतियों को एकत्र करने के लिए कई गांवों का दौरा किया और यहां तक कि उसके लिए भुगतान भी किया.

सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने अपना अधिकतर समय समाज की भलाई के कार्यों में लगाया. आम तौर पर सरकारी अधिकारी रिटायर होने के बाद लाभ कमाने वाली संस्थानों की स्थापना करते हैं, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. उन्होंने शैक्षिक संस्थानों की स्थापना की, जो कमाई करने की जगह लोगों को सशक्त बनाती थीं. बहन जी आप एक मार्गदर्शक, संरक्षक और प्रेरणा थीं. आप हमेशा अपने सिद्धांतों के लिए जीती रहीं. आप हमेशा हमारी यादों में रहेंगी. भगवान आपकी आत्मा को शांति दे.

—लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.

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