बाईस जनवरी का चुनावी जुआ मोदी ने चल दिया है। और पूरी ठसक के साथ चला है। हाईजैक हो चुके देश के बंधक खुद को अब कैसे छुड़ाएंगे। छुड़ाना चाहेंगे भी या नहीं। क्योंकि भारतीयों के मन में जो राम बसे हैं वे न मोदी के हैं न किसी राजनीतिक दल के । वे सब तुलसी के राम हैं । हम चाहें मोदी को कुछ भी कहते रहें पर उन्होंने साबित किया है कि वे सबसे बड़े शोमैन या शोबाज हैं। जिन लोगों ने शुरुआत में मोदी को हल्के में लिया था और कुछ तो मोदी की आलोचना करते करते भी मोदी के जुमलों और फर्जी वादों में बह गए थे वे आज भौंचक होंगे। हमारे देश में व्यक्ति का बलशाली होना हमेशा स्तुत्य माना गया है।‌ हमने खुली आंखों और खुले दिमाग से देखा कि इन दस सालों में किन तौर तरीकों (गलत सलत) से मोदी ने खुद को महाबली के रूप में प्रस्तुत किया और देश दुनिया के अधिकांश हिंदुओं और भारतवंशियों ने मोदी को इस बात का सर्टिफिकेट भी दे दिया। आज बाईस जनवरी को मोदी ने अपनी चुनावी चौसर बिछा दी है।‌ और कहना न होगा कि आज सुबह से ही न केवल मोदी के प्रशंसक बल्कि किसी भी दल के हिंदू रामभक्त भी रामभक्ति में जुट गए हैं। चाहे वे किसी भी दल के हों, केवल नास्तिक और उन लोगों को छोड़ कर जो राम के अस्तित्व पर सवाल उठाते रहे हैं, उन्होंने सुबह से ही नहा धोकर स्वयं को राम की पूजा अर्चना के लिए तैयार कर लिया है। मोदी ने ऐसा जुआ खेला है कि उनके विरोधी चाह कर भी राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से खुद को अलग नहीं कर सकते। यह दूसरा विषय है कि इनमें से कितने लोगों का वोट चोरी चुपके मोदी के पक्ष में जाएगा। यह इस बात पर तय करता है कि मोदी इस ‘मोमेंटम’ को चुनाव की संध्या तक कैसे बनाए रखते हैं।‌ आज तो राम ही नहीं, भारत की प्राण प्रतिष्ठा हुई है, ऐसा अखबारों की हैडलाइन कहती है। पुलवामा हो या राम मंदिर यानी देशभक्ति हो या मन में व्याप्त धार्मिक भावनाएं मोदी सबको भुनाने में माहिर हैं। यह साबित हुआ है चुनावों के वक्त। इस रूप में आप कह सकते हैं कि हर वक्त को अपने पक्ष में मोड़ लेने में मोदी सिद्धहस्त हो चुके हैं। तो सवाल है कि देश का क्या होगा। संविधान का क्या होगा। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का क्या होगा। अल्पसंख्यकों और कमजोर वर्गों का क्या होगा। जो मोदी और उनकी नीतियों को नापसंद करते हैं उनका क्या होगा। विपक्षी दलों और उनके नेताओं का क्या होगा। अब ऐसे गंभीर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।
अब हमारे सामने यह गंभीर प्रश्न होना चाहिए कि क्या हम फिर तीसरी बार इस सत्ता को आने दें या अपने बुद्धि कौशल से कुछ ऐसा करें कि चौबीस में इसकी पुनरावृत्ति न होने पाये। आखिर हमारे पास ऐसा है ही क्या। यह कहने में हमें क्यों संकोच होना चाहिए कि हमारे स्कालर्स, पड़े लिखे लोग, पत्रकार, समाजसेवी, सोशल मीडिया के लोग और अंततः हमारे राजनीतिक दलों के तमाम नेता गण सब मोदी की सत्ता के सामने हताश परेशान हैं। सिर्फ मीन-मेख निकालना, हंसी उड़ाना, मजाक उड़ाना, मीम्स बनाना और तर्कों की बात करना यह सब चिकने घड़े पर पानी की तरह फिसल गई बातें हैं। सड़कों पर अब कोई आंदोलन नहीं दिखते । हमारे पास मोदी के खिलाफ अनेक मुद्दों में सबसे बड़ा मुद्दा पुलवामा का था। सत्यपाल मलिक ने जान की बाजी लगा कर करण थापर को गजब का इंटरव्यू दिया था। हमने या विपक्ष के किसी भी दल या नेता ने इस मुद्दे पर क्या किया। सच मानिए कि यह मुद्दा अडानी, राफेल, नोटबंदी, चीन जैसे तमाम मुद्दों में सबसे भारी था। क्योंकि पुलवामा के मुद्दे पर ही निर्लज्जता के साथ नये वोटरों से वोट छीने गए थे। अगर विपक्ष लाठी डंडे खाकर भी पुलवामा की जांच पर अड़ गया होता तो कहानी कुछ और होती। देश में एक स्पष्ट संदेश जाता कि पुलवामा स्वयं नहीं हुआ वोट हासिल करने के लिए करवाया गया। अगर जन जन तक यह बात पहुंचती तो राम मंदिर पर देश चाहे जितना भक्ति में डूबता लेकिन वोट देते समय सतर्क रहता। मैंने हर बार कहा है कि मोदी ने समाज के सबसे निचले कमेरू वर्ग को हिप्नोटाइज करके अपना खांटी वोटर बनाया है। ऐसा आज तक कोई राजनेता नहीं कर सका। सोशल मीडिया के विपक्षी चैनल अपनी गिरेबान में झांक कर स्वयं से पूछें कि पुलवामा पर उन्होंने कितने शोज़ किये । अपने खास लोगों को छोड़ कर कितने सेना के लोगों या सेना के विशेषज्ञों से निरंतर बात की । सच तो यह है कि ये चैनल कभी किसी एक मुद्दे पर लगातार चिपके ही नहीं। ये मौजूदा वक्त को देश का सामान्य काल समझ कर परंपरागत तरीकों से जी रहे हैं। पाप हुआ तो ये भी उसके उतने ही भागीदार होंगे जितने विपक्षी नेता। एक जिम्मेदार विपक्ष वह होता है जो कभी सोता नहीं, निराश और हताश होकर कभी बैठता नहीं। और यदि दुश्मन एक हो तो सबको मिला कर चलता है। मोदी के सत्ता में आने के बाद सब कुछ जानते हुए भी विपक्ष ने ऐसा कुछ नहीं किया या करता हुआ दिखा।
राजनीति में नौसीखिया राहुल गांधी के लिए हमने हमेशा लिखा है कि यह व्यक्ति क्योंकि एक जबरदस्त और सफल यात्रा करके बहुत कुछ बदल चुका है इसलिए लगता यही है कि यह यात्रा के लिए ही बना है और फिलहाल राहुल अपनी निरंतर यात्राओं से जो काम कर सकते हैं वैसा कोई दल कैसे भी उतनी सफलता से नहीं कर सकता। यात्राओं की सबसे लाभप्रद और सुखद उपलब्धि जनता का जुड़ना और विश्वास व्यक्त करना है। राहुल गांधी मणिपुर से मुंबई तक की यात्रा में इन दिनों जुटे हैं। अगर कोई बेवकूफियां और जुबान का फिसलना न हुआ तो यह यात्रा मोदी के इरादों में काफी हद तक पानी फेर सकती है। राहुल गांधी के लिए माना जाता है कि वे मुंह फट हैं और कुछ भी बोलने से हिचकते नहीं हैं। हरकतें भी कभी कभी ऐसी ही करते हैं। जैसे हेमंत विस्वास सरमा के बच्चों तक को भ्रष्ट बता देना, गुस्से से बस से उतर कर उग्र व्यक्ति की तरह भीड़ में घुस जाना आदि। पहले तो कई अजीबोगरीब हरकतें हमने देखी हैं। खैर ऐसे व्यक्ति से कोई भी डर सकता है और फिलहाल राहुल गांधी कांग्रेसियों और दूसरे लोगों के लिए बहुत बड़ी उम्मीद बने हुए हैं। काश वे अच्छे और सुलझे वक्ता भी होते । आज का वक्त उसी है जो अपनी लच्छेदार बातों और भाषणों से लोगों को प्रभावित कर ले जाए । इसके लिए राहुल को अभी बहुत तपस्या करनी होगी। अच्छी हिंदी पर कमांड होना बहुत बड़ी बात है। राहुल गांधी अपनी यात्रा को चुनाव की दृष्टि से कितनी सफल बनाते हैं यह देखना है। वे बखूबी बना सकते हैं क्योंकि उनकी यात्रा उन सारे प्रदेशों से गुजरने वाली है जो मोदी से इन दिनों प्रभावित समझे जाते हैं। कांग्रेस इस समय दोयम दर्जे के नेताओं की बड़ी पार्टी है। गहरे अनुभव का कोई व्यक्ति उसमें फिलहाल दिखाई नहीं पड़ता। बहुत से तो अंदरखाने ही कांग्रेस की जड़ें काटने पर तुले हैं। इसलिए कांग्रेस को बचाना, सशक्त दल के रूप में खड़ा करना और मोदी सरकार के सामने हर प्रदेश में, हर मोर्चे पर तन कर खड़े रहना ही फिलहाल उसकी मजबूरी है। क्या कांग्रेस इसमें सफल हो पाएगी। देखना है। सब कुछ मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी और उनके नेताओं पर निर्भर करता है। फिलहाल तो मोदी ने देश को हाईजैक कर ही लिया है। आज बाईस जनवरी का माहौल सचमुच कुछ ऐसा ही बताता है कि यह राम की प्राण प्रतिष्ठा नहीं चुनाव की दृष्टि से भारत की प्राण प्रतिष्ठा है। अगर इससे भी चुनाव जीतने में कुछ कमी भाजपा को दिखी तो मान कर चलिए कि कोई न कोई विस्फोट होगा। उसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है। मोदी के लिए यह चुनाव जीतना किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं। विपक्ष कैसी भी सीट शेयरिंग कर ले लेकिन जब तक समाज में नीचे तक अपना ‘परसेप्शन’ तैयार नहीं करता या जनता में विश्वास पैदा नहीं करता तब तक सब कुछ बड़ा मुश्किल है।
कल अमिताभ श्रीवास्तव ने ‘सिनेमा संवाद’ में अच्छा विषय लिया – ‘हमें कैसा सिनेमा चाहिए’ । उन्हें डिबेट के लिए एक अच्छा नाम मिला है हीरेंद्र पटेल का । अच्छा और सटीक बोलते हैं। विवेक देशपांडे को न भी बुलाया जाता तो बेहतर था। खैर इस विषय पर भी काफी कुछ लिखा जा सकता है, लिखेंगे भी। विषय जरूरी है। पिछले दस सालों ने इस डिबेट को और सार्थक किया है। मोदी और आरएसएस ने जब देश की सब शीर्षस्थ संस्थाओं को कब्जे में कर लिया है तो सिनेमा को भी वे क्यों छोड़ेंगे। पर हमें क्या करना है क्या देश को त्रेतायुग में पहुंचाने के चक्कर में महा कलियुग काल में धकेल देना है। प्रश्न तो सारे यथावत हैं।

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