पिछले दस सालों में भारतीय विदेश नीति की लचर हालत देखने को मिली. उससे देश को बहुत नुक़सान हुआ है. भारत रिंग ऑफ फायर में दिखाई देने लगा. पड़ोसी देश भारत के साथ चले आ रहे संबंधों को ताक पर रखकर चीन की ओर रुख करने लगे. भारत ने अमेरिकी नीति पर काम करते हुए मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे पर श्रीलंका के ख़िलाफ़ प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया था, जबकि चीन और पाकिस्तान ने विरोध में. यूपीए सरकार गठबंधन धर्म निभाते-निभाते भारत की विदेश नीति न्यूनतम स्तर तक ले गई. इस वजह से दुनिया में भारत का वजन और एशिया में प्रभुत्व कम हुआ. यदि भारत को एशिया में, खासकर दक्षिण एशिया में एक बड़ी ताकत के रूप में वापस उठ खड़ा होना है, तो उसे सबसे पहले अपने पड़ोसी मुल्कों के साथ संबंध सुधारने होंगे.
यदि आपको एक पंथ दो काज वाली कहावत का मतलब समझना हो, तो भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से समझिए. एक तरफ़ उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस (सार्क) देशों के प्रमुखों को बुलाकर उसे एक अंतरराष्ट्रीय आयोजन में तब्दील कर दिया. वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने कार्यभार ग्रहण करते ही सार्क देशों से आए प्रतिनिधियों से वार्ता भी की. बातचीत के दौरान उन्होंने दक्षिण एशिया के विकास का अपना विजन सबके सामने रखा, जिसमें सबके विकास के लिए सबके साथ की बात कही. इस पहल के साथ ही उन्होंने एक नई भारतीय विदेश नीति का आगाज कर दिया है. अपने इस क़दम से मोदी ने यह संदेश दिया कि पड़ोसी मुल्कों के साथ बेहतर संबंध उनकी पहली प्राथमिकता है. पिछले कुुछ सालों के दौरान देखने में आया कि अधिकांंश पड़ोसी मुल्कों के साथ भारत के संबंधों में खटास आ गई है. मोदी ने आमंत्रित देशों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत में कहा कि हर देश के पास कुछ सकारात्मक चीजें हैं और कुछ नकारात्मक. हम सकारात्मक चीजों का उपयोग साझा विकास के लिए कर सकते हैं.
यूं तो यह एक औपचारिक राजकीय समारोह था, लेकिन मोदी इस मौके का उपयोग कूटनीति के खेल में अपने पदार्पण के लिए करना चाहते थे. भारत में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए. दुनिया में कहीं भी भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट का मैच हो या आपसी बातचीत, दोनों देशों के बीच रिश्तों में तल्खी की वजह से कोई भी गतिविधि सभी के आकर्षण का केंद्र बन जाती है. ठीक उसी तर्ज पर, प्रधानमंत्री मोदी की सार्क देशों के प्रमुुखों के साथ हुई मुलाकात का केंद्र पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ हुई उनकी मुलाक़ात बन गई. नवाज शरीफ ने मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का निर्णय लेने में वक्त लिया था. हालांकि मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान को लेकर कड़ा रुख अपनाया था और तत्कालीन यूपीए सरकार को आड़े हाथों लिया था. सार्क देशों को अपने शपथ ग्रहण में बुलाना सभी के लिए अप्रत्याशित था, खासकर पाकिस्तान को. शपथ लेने के बाद मोदी नवाज शरीफ से बड़ी गर्मजोशी से मिले. इससे लगा कि दोनों देशों के बीच रिश्तों की एक नई शुरुआत होने जा रही है. नवाज शरीफ से बातचीत के दौरान मोदी ने आतंकवाद और 26/11 के मसले को प्रमुखता से उठाया. उन्होंने मुंबई हमले के आरोपियों के ख़िलाफ़ पाकिस्तान में चल रहे मुक़दमे में तेजी लाने की बात कही, हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद के ख़िलाफ़ कार्रवाई न किए जाने का मुद्दा भी उठाया. साथ ही उन्होंने पाकिस्तान को उसके उस वादे की याद भी दिलाई, जिसमें उसने अपनी सरज़मीं का भारत विरोधी गतिविधियों में उपयोग न होने देने की बात कही थी.
बातचीत में पाकिस्तान द्वारा भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन (एमएफएन) का दर्जा दिए जाने का मुद्दा भी प्रमुख रहा. वर्तमान में भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय व्यापार 2.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है. मोदी व्यापार को बढ़ाने की पैरवी करते रहे हैं और नवाज शरीफ स्वयं बिजनेसमैन हैं. ऐसे में दोनों प्रधानमंत्री पहले आर्थिक संबंधों को प्रगाढ़ करने की कोशिश करेंगे. मोदी से मुलाकात के बाद प्रेस को संबोधित करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा कि दोनों देशों में नई और पूर्ण बहुमत वाली सरकार है. मेरी सरकार भारत के साथ हर मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार है. हम शांति का संदेश लेकर चल रहे हैं और चाहते हैं कि भारत के नए प्रधानमंत्री 1999 के लाहौर घोषणा से शुरुआत करें, जहां वाजपेयी जी ने बातचीत छोड़ी थी. दोनों देशों की सरकारों के पास एक सशक्त बहुमत है, ऐसे में दोनों के बीच आपसी रिश्तों के एक नए अध्याय की शुरुआत हो सकती है. दोनों देशों के बीच विश्वास में कमी को दूर करना सबसे अहम मसला है. आपसी विश्वास बढ़ने पर ही अर्थव्यवस्था में बदलाव आएगा. इसके लिए दोनों देशों के विदेश सचिव मिलेंगे और संबंधों की बहाली के लिए रास्ता तैयार करेंगे. मोदी ने इस मुलाक़ात के दौरान आतंकवाद का मुद्दा प्रमुखता से उठाया, जो कश्मीर मुद्दे के बाद सबसे ज़्यादा सेंसिटिव है. हालांकि, कश्मीर और आतंकवाद के बीच अंतरसंबंध हैं, यदि आतंकवाद का मुद्दा सुलझ जाता है, तो बाकी सारे मुद्दे अपने आप सुलझ जाएंगे. इससे कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए सकारात्मक माहौल भी तैयार हो जाएगा. हालांकि, इस मुलाकात के दौरान कश्मीर मुद्दे को दोनों में से किसी भी देश ने नहीं उठाया. इस बार हुर्रियत के नेताओं से भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नहीं मिले. हुर्रियत के नेताओं ने मुलाक़ात का समय मांगा था, लेकिन नवाज़ शरीफ कश्मीर मुद्दे से बचते नज़र आए. इसे एक सकारात्मक बदलाव माना जा सकता है.
यह समय अविश्वास के दौर से आगे बढ़ने का है. यदि दोनों देशों को विकास और शांति की राह पर बढ़ना है, तो ऐसा करने का यह ऐतिहासिक मौका है. दोनों देशों को संबंधों की बहाली के लिए प्राक्सीवॉर (छद्म युद्ध) ख़त्म करना होगा, आरोप-प्रत्यारोप के दौर से बचना होगा और आर्थिक संबंधों को आगे बढ़ाना होगा. इसके लिए दोनों देशों के अवाम के बीच संपर्क बढ़ाने की आवश्यकता है. पाकिस्तान में कट्टरपंथी संगठन नवाज शरीफ के मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के ख़िलाफ़ थे. बावजूद इसके शरीफ भारत आए. उनकी इस यात्रा को भारत-पाक संबंधों के लिहाज से एक नई शुरुआत कह सकते हैं. मोदी ने जिस तर्ज पर आग़ाज किया है, उससे पूरी दुनिया में यह संदेश गया कि भारत पाकिस्तान के साथ बातचीत करने और संबंधों की बहाली के लिए तैयार है. यदि इसके बाद भी पाकिस्तान बातचीत से पीछे हटता है, तो भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान को पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहरा सकता है. अब गेंद पाकिस्तान के पाले में है और इस लिहाज से इसे मोदी की पहली कूटनीतिक विजय कह सकते हैं.
अंग्रेजी में एक कहावत है, वेल बिगिन इज हॉफ डन (अच्छी शुरुआत कार्य आधा पूरे होने जैसी होती है). विदेश नीति के लिहाज से यह कहावत मोदी सरकार पर बिल्कुल सटीक बैठती है. पिछले दस सालों में भारतीय विदेश नीति की लचर हालत देखने को मिली. उससे देश को बहुत नुक़सान हुआ है. भारत रिंग ऑफ फायर में दिखाई देने लगा. पड़ोसी देश भारत के साथ चले आ रहे संबंधों को ताक पर रखकर चीन की ओर रुख करने लगे. भारत ने अमेरिकी नीति पर काम करते हुए मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे पर श्रीलंका के ख़िलाफ़ प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया था, जबकि चीन और पाकिस्तान ने विरोध में. यूपीए सरकार गठबंधन धर्म निभाते-निभाते भारत की विदेश नीति न्यूनतम स्तर तक ले गई. इस वजह से दुनिया में भारत का वजन और एशिया में प्रभुत्व कम हुआ. यदि भारत को एशिया में, खासकर दक्षिण एशिया में एक बड़ी ताकत के रूप में वापस उठ खड़ा होना है, तो उसे सबसे पहले अपने पड़ोसी मुल्कों के साथ संबंध सुधारने होंगे. पाकिस्तान के साथ संबंधों की बहाली भारत के लिए बहुत आवश्यक है. इसके लिए मोदी ने पहला क़दम भी उठा दिया है. भले ही नवाज अपनी सरकार को पूर्ण बहुमत वाली सशक्त सरकार बता रहे हैं, लेकिन यह बात सारी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान सरकार सेना और आईएसआई की सहमति के बिना कोई भी कूटनीतिक निर्णय नहीं ले सकती है. ऐसी स्थिति में पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार भारत के साथ बातचीत करके किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकती है. वैसे कहते हैं कि बात करने से ही बात बनती है, लेकिन नई शुरुआत के बाद भारत-पाकिस्तान संबंधों की बेहतरी फिलहाल दूर की कौड़ी ऩजर आ रही है.
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