Santosh-Sirयह चुनाव अद्भुत रहा. लोगों ने यह समझ रखा था कि जनता उनकी ग़ुलाम है और वो कुछ करें या न करें, लोग उनको वोट देंगे ही देंगे. एक धारणा यह थी कि मुसलमान हमेशा भारतीय जनता पार्टी को जो हरा सकता है, उसे वोट देंगे और इसी बात को फैलाने का काम हमेशा मुसलमानों के नेता करते रहे. मुसलमानों के नेता इस धारणा का फायदा भी उठाते रहे. और हर चुनाव से पहले टैक्टिकल वोटिंग की बात कहकर विभिन्न पार्टियों को वोट दिलाने का ज़िम्मा भी लेते रहे. टैक्टिकल वोटिंग दरअसल ऐसा शब्द है जिस शब्द के ऊपर न कोई ज़िम्मेदारी आती है और न किसी को उसका फायदा होता है. एक लिस्ट निकाली जाती है और साथ में एक अपील कि हमने ये लाखों-करोड़ों में छपवा कर मुसलमानों के पास संदेश भेज दिया है कि अब वो उसे वोट दे देंगे, जो बीजेपी को हरा सकता है. एक ही चुनाव क्षेत्र में कई पार्टियों के टैक्टिकल वोटों की लिस्ट आती है. यह लिस्ट भी आजतक एक नहीं हुई. यह चुनाव इन सब भ्रांतियों को भी तोड़ गया.
क्या मुसलमानों ने इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया? अब जब हम अपने जानने वाले मुस्लिम दोस्तों के बच्चों से बात करते हैं, तो पता चलता है कि उन्होंने भी भारतीय जनता पार्टी को वोट दिया. उसे वोट नहीं दिया जो भारतीय जनता पार्टी को हरा सकता है. इसका मतलब है कि सारे देश भर में 18 से 26 वर्ष तक का तबका मोटे तौर पर नरेंद्र मोदी में संभावनाएं तलाश रहा था. वह राहुल गांधी की न उम्र से प्रभावित था, न भाषा से प्रभावित था, न उनके ज्ञान से प्रभावित था. वह क्षेत्रीय नेताओं के प्रभाव  से भी अछूता रहा, जिन्हें हम मायावती, मुलायम सिंह, नीतीश कुमार या लालू प्रसाद यादव के रूप में जानते हैं. दरअसल इस तरह के नेता, जो किसी भी क़ीमत पर भारतीय जनता पार्टी को अपना दुश्मन मानते रहे हैं, उत्तर प्रदेश और बिहार में ज्यादा हैं. मुस्लिम समाज के भी 18 से 26 साल के ये नौजवान देश के बाक़ी नौजवानों से अलग नहीं रहे और शायद उन्होंने बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी को वोट डाला. वरना ऐसा कैसे हो सकता था कि जहां 46, 48, 52, 56 फ़ीसदी मुसलमानों की आबादी हो और वहां पर भारतीय जनता पार्टी का कैंडीडेट डेढ़ से दो लाख मतों से चुनाव जीते. इसका मतलब है बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवानों ने या मुस्लिम महिलाओं ने वोट दिया.
वो लोग जो जातीय आधार पर गठबंधन करने का जादू चलाते रहे, जिनमें मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव और नीतीश कुमार जैसे नेता प्रमुख हैं, ऐसे लोगों को इनकी जाति ने भी धोखा दे दिया. मायावती जी अब कहती हैं कि बीजेपी और समाजवादी पार्टी ने हथकंडे आजमाए, जिसकी वजह से बीएसपी को एक भी सीट नहीं मिली. वहीं मुलायम सिंह धार्मिक भावनाओं को फैलाने का आरोप लगाते हैं, पर ये सारी चीजें तब समझ में आती हैं जब चुनाव से पहले ये बात कहते. चुनाव से पहले ये सभी प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर नजर गड़ाए थेे और खुलेआम बोलते भी थे कि हम ही प्रधानमंत्री बनेंगे और हमारे बिना सरकार नहीं बनेगी. इसका यह भी मतलब निकलता है कि इन्हीं की जाति के एक बड़े तबके ने इन्हें हवा ही नहीं लगने दी कि वो दूसरी तरफ खिसक रहे हैं.
वामपंथी पार्टियों का और बुरा हाल रहा. वो तो खिसक कर के इतिहास की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ी हो गई. और बंगाल में तो सीपीएम ने यह बता दिया कि उसने पिछली हार से कुछ नहीं सीखा. लोगों से संपर्क नहीं किया. इतना ही नहीं, अपने को बढ़ाने की बात दूर, अपने को जानबूझ कर जितना सिकोड़ सकते थे उतना सिकोड़ लिया. सबसे बड़ा दुर्भाग्य इस लोकसभा में वामपंथियों की संख्या के रुप में दिखाई देगा.
देश में अब तक यह धारणा थी कि देश गठबंधन के दौर में पहुंच गया है, पर इस चुनाव में भाजपा को मिले बहुमत ने इसे भी बदल दिया है और किसी भी पार्टी को एकल बहुमत मिल सकता है, यह साबित कर दिया है.
कांग्रेस देश के लोगों को मानसिक ग़ुुलाम मानती रही है, इसीलिए उसने पिछले 20 सालों में  कोई ऐसी रणनीति नहीं बनाई जिससे कि इसका पार्टी संगठन खड़ा हो. ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व को पार्टी संगठन हमेशा सबसे निकृष्ट काम लगता रहा. कांग्रेस संगठन ने प्रदेशों में कहीं पर भी नेता नहीं बनाए. कांग्रेस संगठन ने देश भर में कहीं पर कोई नेतृत्व समूह नहीं बनाया जो लोगों के बीच जा कर के उनकी बात पहुंचा सके. कुछ प्रवक्ता जिन्हें हम बुद्धिहीन प्रवक्ता कह सकते हैं दिल्ली में, वो कांग्रेस की सारी रीति-नीति लोगों को बताते रहे हैं और इनमें ऐसे लोगों की प्राथमिकता रही, जिन्हें कांग्रेस के सिद्धांत का ए बी सी डी भी नहीं आता. जो अपने मन से गढ़े तर्कों के आधार पर लोगों को रुष्ट करते रहे उन्हें पता भी नहीं चला कि लोग रुष्ट हो रहे हैं. जब कभी-कभी अख़बारों में या टीवी चैनलों में इस तरह की बहस होती थी तो वे यही समझाते थे कि परम बुद्धिमान वो हैं, बाक़ी सब महामूर्ख हैं और वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि देश की जनता का मूड क्या है? यहां तक कि चुनाव घोषित होने के 24 घंटे पहले एक टेलीविजन चैनल पर कांग्रेस के प्रवक्ता या प्रवक्ताओं के नाम पर हुल्लड़बाजों की फौज राजनीतिक शिष्टता को भूलकर बहस कर रही थी.
कांग्रेस पार्टी में राजनीतिक समझदारी के शून्य ने और जनता को अपना  गुलाम मानने की सनक ने उन्हें यह दिन दिखाया. हमने कई बार राय दी कि राहुल गांधी को अपने नाना की कुछ किताबें पढ़नी चाहिए. जिसमें पिता के पत्र पुत्री के नाम, भारत का इतिहास शामिल है. नेहरु जी ने जेल मे अद्भुत किताबें लिखीं, पर उन किताबों की भूमिका से भी राहुल गंाधी का संबंध नहीं रहा. राहुल गांधी ज्यादातर विदेश में रहे, उन्हें देश की समस्याओं का भी उतना नहीं पता, क्योंकि उनके आस-पास रहने वाले लोग भी उतने ही ज्यादा समस्याओं से कटे रहे. एक शख्श मोहन प्रकाश थे, जिन्हें हम राहुल की टीम में मान सकते हैं, लेकिन शायद मोहन प्रकाश भी अपनी पोजीशन को लेकर ज्यादा सतर्क रहते थे बजाए इसके कि वह राहुल गांधी को देश की समस्याओं से अवगत कराते. अब जबकि चुनाव समाप्त हो चुके हैं, तब इस बात की आवश्यकता है कि कांग्रेस नए सिरे से अपने को देखे. नए सिरे से इस बात की रणनीति बनाए कि वो कैसे लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी का सामना करेगी. उसका कौन नेता नरेंद्र मोदी का जवाब देगा. क्योंकि हक़ीकत यह है कि कांग्रेस को अब लोकसभा में विपक्ष का दर्ज़ा भी अगर मिलेगा तो लोकसभा अध्यक्ष की दयनीय कृपा पर मिलेगा. वो जो दया करके कृपा करेंगे तो नेता विपक्ष की जगह पर कांग्रेस का कोई व्यक्ति बैठ सकता है वरना यह जगह भी कांग्रेस के हाथ से चली गई. अब कांग्रेस की इस दयनीय अवस्था के ऊपर कांग्रेस को ही सोचना पड़ेगा. संसद में आने वाले बिल, देश में आने वाली समस्याएं, देश के सामने चुनौतियां और वो सारे सवाल जो कांग्रेस देश के सामने छोड़ गई है, उन्हें हल करने के लिए उसे नरेंद्र मोदी पर दबाव डालना पड़ेगा. अगर कांग्रेस यह सोचे कि नरेंद्र मोदी ये जवाब देंगे कि ये समस्याएंं तो आपकी पैदा की हुई हैं, तो कांग्रेस लोकसभा में नरेंद्र मोदी का सामना नहीं कर पाएगी. लोकसभा ऐसी जगह है जहां भारतीय जनता पार्टी ने पिछले 10 सालों में कांग्रेस को खुला छोड़ दिया था और जिसका नतीजा यह हुआ कि ये सारी समस्याएं देश को कांग्रेस की वजह से मिलीं. अब अगर कांग्रेस दिमागी तौर पर बुद्धिमानी का परिचय देते हुए लोकसभा में नरेंद्र मोदी का सामना नहीं करेगी तो नरेंद्र मोदी को लोकसभा में भी वॉकओवर दे देगी. कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि इस संसद में ऐसे ऐसे लोग हुए हैं, जो थे अकेले लेकिन जिनकी बात को सारा देश सुनता था. और वो ही सच्चा लोकतंत्र है. कांग्रेस को लोकतंत्र के प्रति अपनी निष्ठा दोबारा दोहरानी ड़ेगी और सदन में यह साबित करना पड़ेगा कि वो न केवल खुद लोकतांत्रिक है बल्कि सरकार को भी लोकतांत्रिक रास्ते पर चलाने की सामर्थ्य रखती है.
जिन सवालों को हमने छेड़ा उनके ऊपर मुसलमानों को भी आपस में बात करने की ज़रूरत है. कांग्रेस में भी मंथन की ज़रूरत है और साथ-ही-साथ वो सारे नेता जो अपने को जनता का पहरुआ बताते हैं उन्हें भी अपने संपूर्ण क्रियाकलापों पर सोचने की ज़रूरत है, वरना वो जिस अखाड़े मेें अब लड़ने जा रहे हैं वो उनका अखाड़ा नहीं नरेंद्र मोदी का अखाड़ा है. और नरेंद्र मोदी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी चाहिए कि उन्होंने दूसरों के अखाड़े में जा कर उन्हें चित्त कर दिया. और अब ये पहलवान उनके अखाड़े में आएंगे तो वो किस तरह लड़ेंगे ये देखना दिलचस्प होगा.
आखिर नरेंद्र मोदी को देश का शासन संभालने और अपना काम प्रारंभ करने के लिए क्या दो महीने से ज्यादा का समय चाहिए. नहीं, उन्हें दो महीनों के अंदर समस्याओं के हल के लिए कोशिश प्रारंभ करनी ही होगी. जनता की समस्याओं से उपजी निराशा ने नरेंद्र मोदी को ऐतिहासिक अवसर दिया है. अगर जनता के प्रति नरेम्द्र मोदी संवेदनशील है तो उन्हें जनता का चेहरा देख नीतियों की घोषणा करनी चाहिए, जिसके लिए दो महीने काफी है.

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