यह देश, यह आज़ादी और ये तमाम सड़कें, इन सब पर महिलाओं का उतना ही हक़ है, जितना पुरुषों का. अब समय आ गया है कि महिलाएं अपनी ज़िंदगी की कमान अपने हाथ में लें. बेटियों की पोशाक पर ही नहीं, बेटों की मानसिकता पर भी ध्यान दें. संस्कारों को शिक्षा के तराजू में तौलें, आंचल में है दूध और आंखों में पानी वाली छवि तोड़कर बाहर निकलें. बेशक, ग़लतियां करें, मगर उनसे सीखें. समाज में लगातार निर्णायक हस्तक्षेप करके अपनी प्रतिभा-क्षमता का शंखनाद करें और डटकर ज़िंदगी से दो-दो हाथ करें. पीछे मुड़कर देखें, यह अनुभव करें कि हम कितनी लंबी यात्रा तय करके यहां तक पहुंचे हैं, कितनी लंबी यात्रा अभी और तय करनी है. कितने अन्याय, असमानता एवं शोषण के ख़िलाफ़ हमें हर दिन आवाज़ उठाने की आवश्यकता है.

international-womens-day-(1अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस (आठ मार्च), साल का एक ऐसा दिन, जब हर किसी को महिलाओं के प्रति विचार व्यक्त करना अपना कर्तव्य लगता है. ऐसा लगता है, जैसे श्रद्धांजलि दी जा रही हो. वह भी उन्हें, जो अभी जीवित हैं. सुनने में कुछ वैसा ही लगता है, जैसे कुछ तथाकथित भक्तगण मंगलवार और शनिवार को मुर्गा नहीं खाते, जैसे बाकी दिन खाने पर ऊपर वाला बड़ा प्रसन्न होगा. क्षमा चाहती हूं, अगर ये तेवर आपको रास न आए हों. आपकी सोच भी ग़लत नहीं है. इस दिन तो लोग महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, सानिया मिर्जा, कल्पना चावला और इंदिरा गांधी का उदाहरण देते हैं. लेकिन चलिए, आज ढूंढते हैं उस महिला को, जो अपने आपको खुशनसीब समझती है कि अभी तक किसी ने एसिड (तेजाब) डालकर उसका चेहरा नहीं जलाया, उसके साथ बलात्कार नहीं किया और वह अब तक जीवित है. वह, जो अपनी तमाम प्रतिभा एवं मेधा के बावजूद केवल औरत जात रह गई. वह, जिसका साक्षरता प्रतिशत बढ़ा तो ज़रूर है, मगर जीवन में प्रयोग के लिए नहीं, बल्कि एक अच्छी नौकरी में लगे लड़के की पात्रता अर्जित करने के उद्देश्य से. वह, जिसने बोर्ड परीक्षा में अपने विद्यालय के सभी लड़कों को पछाड़ा था, मगर जिसका विवाह गोरे रंग के अभाव में नहीं हो सका. वह, जिसने साहित्य में उच्च शिक्षा ग्रहण की है, जिसके घर में दुनिया की हर सुख-सुविधा उपलब्ध है, मगर किताब स़िर्फ एक, भारतीय पाक प्रणाली. चाहे वह कितना भी पढ़ ले, है तो औरत जात ही. और, उसे यह ध्यान रखना पड़ेगा कि पति के दिल का रास्ता पेट से होकर ग़ुजरता है. लेकिन, इन सारी महिलाओं की याद हमें इस दिवस विशेष को ही क्यों आती है?
कोपेनहेगन में हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक ऐसे दिन की घोषणा की थी, जो प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति-धर्म-संप्रदाय की महिलाओं का महत्व पहचानने का दिन होगा और हमें उस वाकए की याद दिलाएगा, जब महिलाओं ने घर की
चाहरदीवारी से निकल कर अपने अधिकारों के लिए पहली बार आवाज़ उठाई थी. जी हां, आठ मार्च, 1857 को अमेरिका की कपड़ा मिलों में काम करने वाली महिलाओं ने अपने साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध एक मुहिम छेड़ी थी. उनकी लड़ाई निरंतर चलती रही और उन्होंने संगठित होकर अपना लक्ष्य हासिल करने की दिशा में प्रयास किए, ताकि महिलाओं को कार्यक्षेत्र में सुविधाएं, वोट देने का अधिकार, शोषण से मुक्ति और बेहतर आय मिल सके. भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो नारी आदिकाल से ही अपने स्वतंत्र अस्तित्व की स्वामिनी रही है. प्राचीन काल में भी वह गार्गी, मैत्रेयी एवं विद्योतमा के रूप में याज्ञवल्क्य एवं मंडन मिश्र जैसे पंडितों से शास्त्रार्थ करती आई है. इसी आधार पर अर्द्धनारीश्‍वर की कल्पना भी की गई, मगर स्त्री और पुरुष का यह विवेकपूर्ण सामंजस्य टूटा मुगल काल में, जब मुगलों ने हमारे देश पर आक्रमण करके हमारी व्यवस्था छिन्न-भिन्न कर दी और सदा स्वछंद भारतीय नारी पर्दे की ओट में आने को विवश हो गई.

दुनिया की 95 फ़ीसद कामकाजी महिलाएं कम वेतन, कम यात्रा और कम समय वाली नौकरियों में हैं, जिसका सीधा मतलब है, कम आय. एक ताजा अमेरिकी शोध के अनुसार, महिलाएं दुनिया का 60 फ़ीसद काम करती हैं, लेकिन दुनिया की 10 फ़ीसद उनके हिस्से आती है और वे दुनिया की केवल एक फ़ीसद संपत्ति की मालिक हैं.

दरअसल यह दबाव, यह निरीहता किसी सभ्यता और काल सापेक्ष नहीं है, बल्कि व्यक्तिगत संपत्ति के उदय के साथ ही पशुओं एवं पुत्रों के प्रति समाज के बढ़ते हुए मोह का मूर्त रूप है. आदिम समाज में इस बात की पुष्टि केवल एक स्त्री ही कर सकती थी कि उसकी संतान का पिता आख़िर है कौन? समय बदला, समाज बदला, व्यवस्थाएं बदलीं, मगर तबसे जो स्त्री कैद हुई, वह आज भी आज़ादी का मुंह नहीं देख पाई. आज हम स्वतंत्र भारत में रह रहे हैं, हमारा संविधान हमें अपनी भावनाएं व्यक्त करने, अपने जीवन से जुड़े निर्णय लेने एवं समानता जैसे कई अधिकार देता है, मगर व्यवहारिकता के स्तर पर ऐसे अधिकांश क़ानून मात्र काठ की तलवार ही सिद्ध होते हैं. प्रसिद्ध फ्रांसीसी नारीवादी लेखिका सिमोन द बोवार के अनुसार, महिलाएं पैदा नहीं होतीं, बल्कि बना दी जाती हैं. सामाजिक लिंग अर्थात जेंडर की अवधारणा समाज में महिलाओं के दोयम दर्जे की पक्षधर नज़र आती है. अच्छी लड़की व अच्छे लड़के से जुड़े सामाजिक अपेक्षाओं के खांचे जन्म से पहले ही खींच दिए जाते हैं और जीवन भर हमें प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि हम उनमें फिट बैठ सकें. विवाह जैसी घटना एक स्त्री व पुरुष, दोनों के जीवन में घटित होती है, मगर सुहागन का चिन्ह और विधवा का विषाद केवल औरत के हिस्से में आता है. महिलाओं का जन्म प्रभावित होता है, शिक्षा प्रभावित होती है, कामकाज भी प्रभावित होता है, क्योंकि एक दिन उन्हें मां बनना है.
दुनिया की 95 फ़ीसद कामकाजी महिलाएं कम वेतन, कम यात्रा और कम समय वाली नौकरियों में हैं, जिसका सीधा मतलब है, कम आय. एक ताजा अमेरिकी शोध के अनुसार, महिलाएं दुनिया का 60 फ़ीसद काम करती हैं, लेकिन दुनिया की 10 फ़ीसद उनके हिस्से आती है और वे दुनिया की केवल एक फ़ीसद संपत्ति की मालिक हैं. आज भी लड़कियों के छात्रावासों के दरवाजे शाम होते ही भेड़-बकरियों के बाड़ों की तरह बंद कर दिए जाते हैं. एक छात्र अपनी ज़रूरत के मुताबिक इधर-उधर जा सकता है, मगर एक छात्रा की ज़रूरत कोई मायने नहीं रखती. एक पुरुष अपनी रुचि, अपनी ज़रूरत के हिसाब से कपड़े पहनेगा. जबकि एक स्त्री क्या पहनती है, इसका निर्धारण उसकी ज़रूरत या पसंद नहीं, बल्कि समाज करेगा. पिताओं की चिंताओं के बावजूद, ऋण लेकर दिए गए दहेज के बावजूद, शिक्षित एवं कमाऊ होने के बावजूद आज भी अक्सर महिलाओं की ज़िंदगी एक टीवी, फ्रिज, सोफा और कार में सिमट कर रह जाती है.
यह देश, यह आज़ादी और ये तमाम सड़कें, इन सब पर महिलाओं का उतना ही हक़ है, जितना पुरुषों का. अब समय आ गया है कि महिलाएं अपनी ज़िंदगी की कमान अपने हाथ में लें. बेटियों की पोशाक पर ही नहीं, बेटों की मानसिकता पर भी ध्यान दें. संस्कारों को शिक्षा के तराजू में तौलें, आंचल में है दूध और आंखों में पानी वाली छवि तोड़कर बाहर निकलें. बेशक, ग़लतियां करें, मगर उनसे सीखें. समाज में लगातार निर्णायक हस्तक्षेप करके अपनी
प्रतिभा-क्षमता का शंखनाद करें और डटकर ज़िंदगी से दो-दो हाथ करें. पीछे मुड़कर देखें, यह अनुभव करें कि हम कितनी लंबी यात्रा तय करके यहां तक पहुंचे हैं, कितनी लंबी यात्रा अभी और तय करनी है. कितने अन्याय, असमानता एवं शोषण के ख़िलाफ़ हमें हर दिन आवाज़ उठाने की आवश्यकता है. और, उस दिन बराबरी के अधिकार, बराबरी से मिले संसाधन यह सिद्ध कर देंगे कि समाज संवेदनशील है, विचारधारा स्वस्थ है और अब अलग से महिला दिवस मनाने की कोई ज़रूरत नहीं है. यानी अब तेरे बारे में नया इतिहास लिखा जाएगा, आंखों में पानी नहीं आग लिखा जाएगा…

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