क्या पश्चिम बंगाल में भाजपा के अरमानों को धूल चटाते हुए धमाकेदार तरीके से तीसरी बार सत्ता में वापसी करने वाली ममता बनर्जी के राजनीतिक महत्वाकांक्षा का अगला पड़ाव अब दिल्ली है ? राज्य की तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद देश की राजधानी के अपने पहले दौरे में जिस तरह ममता ने ‘मैं आई, मैंने देखा और मैंने जीत लिया’ के अंदाज में एंट्री ली, उससे लगता है कि वो कुछ ज्यादा ही नाराज, प्रतिशोध से भरी और आत्ममुग्ध हैं। ममता ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ राष्ट्रव्यापी‍ सियासी मोर्चाबंदी का बीड़ा उठा लिया है। इसके लिए वो अपने पुराने पूर्वाग्रह भी छोड़ने को तैयार हैं। बंगाल में जिस कांग्रेस को उन्होंने हाशिए पर ला दिया, दिल्ली में वो उसके साथ चलने को तैयार हैं।

लिहाजा वो कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिली । अरविंद केजरीवाल और शरद पवार से भी बात होनी है। एजेंडा यही कि भाजपा के खिलाफ एक व्यापक विपक्षी गठबंधन खड़ा करना और 2024 में होने वाले आम चुनाव में सत्ता परिवर्तन के लिए देश की जनता के सामने सशक्त विकल्प प्रस्तुत करना। ऐसे में ममता ने ‘तीसरे मोर्चे’ का आग्रह भी छोड़ दिया है। उन्हे समझ आ गया है कि कांग्रेस को माइनस कर देश में कोई सशक्त मोर्चा खड़ा नहीं किया जा सकता। इसलिए बात अब दूसरे मोर्चे की ही होने लगी है। लेकिन क्या ममता यूपीए का हिस्सा बनेंगी या नहीं, खुद यूपीए उनकी अगुवाई में चुनावी रण में उतरेगा या नहीं, क्षेत्रीय पार्टियों के तमाम महत्वाकांक्षी नेता ममता का नेतृत्व स्वीकार करेंगे या नहीं और इससे भी बढ़कर सवाल ये कि ममता की तुनुकमिजाजी के साथ कितने लोग तालमेल बिठा पाएंगे? वैसे इस प्रस्तावित वैकल्पिक मोर्चे का ककहरा अभी लिखा ही जा रहा है लेकिन उसका विरोध भी शुरू हो गया है। पश्चिम बंगाल में बरसों राज करने वाली मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सुजान चक्रवर्ती ने ही ममता बैनर्जी को मोदी व भाजपा के ‍खिलाफ विपक्षी गठजोड़ का चेहरा बनाए जाने पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।

उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में भाजपा को मजबूत बनाने वाली ममता बनर्जी बीजेपी विरोधी फ्रंट का नेतृत्व कैसे कर सकती हैं? भाजपा के खिलाफ आंदोलन का उनका कोई इतिहास नहीं रहा है। चक्रवर्ती ने साफ शब्दों में कहा कि मोदी के खिलाफ विपक्ष का एक स्पष्ट चेहरा होना चाहिए। लेकिन वो चेहरा ममता बनर्जी होंगी, यह सोचना मूर्खता है। सुजान का यह बयान माकपा का अधिकृत बयान है या नहीं, स्पष्ट नहीं है। क्योंकि वाम मोर्चा के चेयरमैन व माकपा नेता विमान बोस ने पिछले दिनो कहा था कि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को रोकने उनकी पार्टी किसी भी दल से हाथ मिलाने को तैयार है। बहरहाल यह मानना पड़ेगा कि ताजा चुनावी जीत से ममता बनर्जी राजनीतिक जोश में हैं। देश के जो वर्तमान हालात हैं, उसे बूझते हुए ममता को लगने लगा है कि ‘राजनीतिक आंधी’ आने ही वाली है। ममता और समूचे विपक्ष को लग रहा है कि कोविड से प्रभावी ढंग से निपटने में मोदी सरकार की नाकामी, बदहाल अर्थ व्यवस्था, महंगाई, बेरोजगारी, किसान आंदोलन, पैगासस जासूसी कांड, चीन की दादागिरी, प्राकृतिक आपदा, राज्यों में हिंसक टकराव, सरकार का अहंकार जैसे कई मुद्दे हैं, जिनको लेकर मोदी सरकार को घेरा जा सकता है और ये मुद्दे भाजपा के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की काट हो सकते हैं। इन्हीं को पतवार बनाकर विपक्ष चुनाव में अपनी नैया पार लगा सकता है।

ममता को लगता है कि जिस तरह उन्होंने बंगाल में भाजपा की रणनीति को ध्वस्त किया, वही काम वो राष्ट्रीय स्तर पर भी कर सकती है। यही कारण है कि पांच दिन के दिल्‍ली दौरे में ममता बनर्जी ने पेगासस जासूसी मुद्दे को ‘इमरजेंसी से भी गंभीर ’ करार दिया। उन्होंने कहा कि मेरा फोन भी अपने आप टैप हो जाता है। ममता ने तो इस मामले की जांच के लिए अपने स्तर पर न्यायिक जांच आयोग गठित कर एक संदेश देने की कोशिश की है। हालांकि उन्हें विपक्ष का नेता बनाए जाने के सवाल पर ममता ने चतुराई भरा जवाब दिया ‍कि मैं ‘राजनीतिक ज्योतिषी’ नहीं हूं। यह स्थितियों पर निर्भर करता है। अगर कोई और नेतृत्व करता है तो उससे मुझे कोई समस्या नहीं है। संसद सत्र के बाद सभी विपक्षी दलों को आपस में मुलाकात करनी चाहिए। उन्होंने दावे के साथ कहा कि अब पूरे देश में ‘खेला’ होगा। यानी अगला आम चुनाव ‘मोदी बनाम देश’ होगा। मजबूत विपक्ष भाजपा को पटखनी दे सकता है। ममता ने एक जुमला भी छोड़ा कि ‘अच्छे दिन’ बहुत देख लिए अब हम ‘सच्चे दिन’ देखना चाहते हैं। ममता का मानना है कि मोदीजी की लोकप्रियता 2019 तक ही थी। कोविड काल में उन्होंने यह तेजी से खो दी है।

यहां सवाल यह है कि ममता का विपक्षी एकता का प्लान आखिर है क्या? क्या वो सभी विपक्षी पार्टियों को एक साथ ला सकने में कामयाब होंगी? विपक्षी मेल मुलाकात एक आंदोलन में तब्दील हो सकेगी ? क्योंकि किसी विपक्षी मोर्चे को समर्थन देना अलग बात है और राष्ट्रीय हित में चुनावों में अपने राजनीतिक हितों और वर्चस्व से समझौता कर मिल कर लड़ना दूसरी बात है। सवाल यह भी है कि ममता यदि खुद मोर्चे की नेता नहीं बनना चाहतीं और देश का नेतृत्व करने की उनके मन में कोई इच्छा नहीं है तो यह सारी उठा पटक वो क्यों करना चाहती हैं? क्या बंगाल का सियासी मूड पूरे देश का सियासी मूड हो सकता है? क्या बंगाल में ‘सच्चे दिन’ आ गए हैं? इससे भी बड़ी बात यह कि देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ममता की रहनुमाई को क्यों स्वीकार करेगी? खासकर तब कि जब वह अपने भीतर ही गांधी परिवार के अलावा किसी का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

यह सही है कि देश में मजबूत लोकतंत्र के लिए मजबूत और सक्षम विपक्ष भी बेहद जरूरी है। सत्ता की निरंकुशता पर अंकुश लगाने और उन बातों को उजागर करने के लिए भी विपक्ष जरूरी है, जो सरकार सुनना ही नहीं चाहती या फिर जिसे दबाना चाहती है। लेकिन यह काम भी विपक्ष को एक सातत्य और सात्विक भाव से करना होता है, तभी जनता में उसकी विश्वसनीयता कायम होती है। फिलहाल देश में ज्यादातर विपक्षी पार्टियां यह काम ‘पार्ट टाइम जाॅब’ की तरह कर रही हैं। चुनाव नजदीक आते ही उन्हें अपना रोल याद आता है। जनजागरण का कोई निरंतर कार्यक्रम किसी के पास नहीं है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोध का भी कोई टेम्पो नहीं बन पा रहा है। ममता इसे कैसे समन्वित करेंगी यह देखने की बात है। माना जा रहा है कि इसके लिए ‘दीदी’ ‘बंगाल मॉडल’ को तवज्जो देने वाली हैं। वे विपक्षी एकजुटता के जरिए 375 सीटों पर भाजपा को सीधी चुनौती देना चाहती हैं। इनमें से 200 सीटों पर कांग्रेस को वॉकओवर का प्रस्ताव दे दिया जा सकता है। 2024 में इस ‘मिशन दिल्ली’ की कमान सोनिया-पवार-ममता के हाथ में रह सकती है।

लेकिन क्या यह सब इतना आसान है? तो इसका जवाब यह है कि राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं है। कौन सोचता था कि अटलजी जैसे कद्दावर नेता के ‘शाइनिंग इंडिया’ को भी जनता ने चुनाव में ठुकरा दिया। यूं विपक्ष एक एकजुट हो जाए तो ‘वन टू वन’ मुकाबले में भाजपा टिक नहीं पाएगी। लेकिन विपक्ष द्वारा जनता में भाजपा गठबंधन का सशक्त विकल्प होने का भरोसा जगाने में काफी समय लगेगा। उन्हें अपना वैकल्पिक रोड मैप बताना होगा और यह भी कि देश उनके हाथों से सुरक्षित कैसे रह सकता है ? क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय मुद्दों का विकल्प नहीं हो सकते और न ही क्षेत्रीय अस्मिता की बात राष्ट्रीय अस्मिता पर हावी हो सकती है। यह बात हम पिछले कई चुनावों में देख रहे हैं, क्योंकि वोटर अब पहले से ज्यादा परिपक्व है। और फिर बगैर नेता प्रोजेक्ट किए जब भाजपा राज्यों में मात खा रही है तो राष्ट्रीय स्तर पर बिना चेहरे के विपक्ष कैसे कामयाब होगा?

हालांकि सरकार के खिलाफ कब, कौन सा मुद्दा काम कर जाए, दावे से कहा नहीं जा सकता। लेकिन विपक्ष अभी तक तो ऐसा कोई मुद्दा नहीं तलाश पाया है, जो राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तन की जबर्दस्त लहर उठा दे। देश में ऐसा माहौल केवल इमर्जेंसी के बाद इंदिरा गांधी, बोफोर्स घूस कांड के बाद राजीव गांधी, आर्थिक सुधार और हवाला कांड के बाद नरसिंहराव, फील गुड और संसद पर आंतकी हमले के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और बड़े आर्थिक घोटालों के बाद मनमोहन सरकार के‍ खिलाफ बन पाया है। क्या वैसा ही कुछ मोदी और भाजपा सरकार के खिलाफ 2024 तक बन पाएगा? कुछ आशावादियों का मानना है कि खिलाफ माहौल तो बनना शुरू हो चुका है, उसे सुलगाना बाकी है। लेकिन इस विपक्षी आशावाद की पहली अग्नि परीक्षा अगले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ही हो जाएगी। अगर वहां ‘खेला’ हो गया तो 2024 में भी खेला होने का मानस बनेगा। लेकिन खेला नहीं हुआ तो ‘सच्चे दिन’ आने की संभावना भी धुंधला जाएगी।

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