क्या मतदाताओं से पारिवारिक रिश्ते जोड़ने का चुनाव में राजनीतिक लाभांश मिलता है? मिलता है तो कैसे और कब तक? ये सवाल पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान ‘बंगाल की बेटी’ बनाम ‘बंगाल की बुआ’ या फिर ‘बंगाल का बेटा’ जैसे सम्बोधनों के जरिए वोटर का मन जीतने और प्रतिद्वंद्वी राजनेताअों द्वारा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप किए जाने से फिर मौजूं हो गया है। इसके पहले पारिवारिक रिश्तों की ‘ऐसी राजनीतिक लड़ाई’ हमने यूपी में देखी है। मध्यप्रदेश में भी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान खुद को बेटियों (बेटों का भी) मामा बताते रहे हैं। यह बात अलग है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने इस रिश्ते को अपेक्षित भाव नहीं दिया और उनकी सरकार चली गई। लेकिन शिवराज नई रणनीति के साथ आज फिर सत्ता में हैं और मामा भांजी के रिश्तों को नई धार देने की कोशिश कर रहे हैं। बहरहाल राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई को पारिवारिक रिश्तों का टच देने वाली इस पाॅलि‍िटक्स का चुनावी नतीजा क्या आता है, यह बात पश्चिम बंगाल के चुनाव में देखने वाली होगी।

हालांकि नेताओं द्वारा खुद को वोटर से पारिवारिक रिश्तों से जोड़ना कोई नई बात नहीं है। कई बार यह सम्बोधन या तो सुनियोजित ढंग से ‘चलवाया’ जाता है या फिर अपने प्रिय नेता या नेत्री के लिए जनता अत्यंत स्नेहवश यह रिश्ता काायम कर देती है। कई दफा स्वयं नेता ही इन सम्बोधनो को संस्थागत रूप दे देते हैं। इसमे शक नहीं कि ये रिश्ते अपने आप में ‘अनौपचारिक’ होते हुए भी जनमानस में एक औपचारिक सत्ता कायम कर लेते हैं। उदाहरणार्थ महात्मा गांधी को ‘महात्मा’ मान लेना या पं.जवाहरलाल नेहरू को ‘चाचा नेहरू’ कहना। इनके अलावा कई नेता अथवा मान्य हस्तियों के साथ ‘भैयाजी’, ‘बाबूजी’, कक्काजी, माताजी, बहनजी, बाबा साहब, भैया साहब जैसे सम्बोधन भी लोकमान्य हो जाते हैं। राजनेता इन्ही रिश्तों में अपना ठोस राजनीतिक पूंजी निवेश भी देखते हैं।

आजाद भारत में इन रिश्तों का चुनावी निवेश बड़े पैमाने पर बीती सदी में नब्बे के दशक से शुरू होता है। इस लिहाज से पहला निवेश बसपा सुप्रीमो मायावती ने खुद को ‘बहनजी’ के रूप में स्थापित कर किया। मतदाताअों और खासकर दलितों में ‘बहनजी’ का यह नाता अब भी कायम है। इस रिश्ते का राजनीतिक जवाब समाजवादी पार्टी के नेता व यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेख यादव ने खुद को ‘भतीजा’ बताकर दिया। वो मायावती को ‘बुआजी’ कहते हैं। बुआजी इसलिए क्योंकि मायावती अखिलेश के पिता मुलायमसिंह यादव की समकालीन और ‘बहन’ जैसी हैं। हालांकि मुलायम सिंह ने कभी खुद को किसी का ‘भाई’ नहीं माना। मजे की बात यह है कि राजनीति के कैनवास पर ‘बुआ’ और ‘भतीजे’ का नाता शुरू से ‘छत्तीस’ का ही रहा है। कभी नजरें मिली भी, लेकिन दिल आज तक नहीं मिले। बुआ- भतीजे अलग-अलग होने से यूपी की राजसत्ता में उनके हाथों से दूर-दूर है। जिसका फायदा ‘योगी’ को रहा है।

यही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इस बार बंगाल में सत्ता की जबर्दस्त खींचतान के रूप में दिखाई दे रही है। बंगाल में ममता अब तक ‘दीदी’ के रूप में जानी जाती रही हैं। दीदी यानी बड़ी बहन। राज्य में दीदी की यह सत्ता दस साल से अडिग है। लेकिन पिछले दिनो दीदी ने अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस में अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को आगे बढ़ाने का खुला खेल शुरू किया तो भाजपा ने दीदी को ‘बुआ’ कहकर सम्बोधित करने की शुरूआत की। इसका छिपा संदेश था कि ममता अब ‘बुआ’ पहले हैं, ‘दीदी’ बाद में। यानी ‘बुआ’ के लिए भतीजे की राजनीतिक तरक्की ज्यादा अहम है, बजाए पश्चिम बंगाल की प्रगति के। यही नहीं,’बुआ’ के जरिए भाजपा ममता को कहकर भतीजे अभिषेक के आर्थिक घोटालों से भी जोड़ना चाहती है।

हालांकि ममता को ‘बुआ’ बताने का सियासी जवाब तृणमूल कांग्रेस ने उन्हें ‘बंगाल की बेटी’ बताकर दिया। कहा गया कि ‘बंगाल केवल अपनी बेटी’ चाहता है ( कोई दूसरे की बेटी या बेटा नहीं) इस दांव के पीछे ममता के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर का दिमाग बताया जाता है। आशय ये कि ‍दीदी पहले ‘बंगाल की बेटी’ हैं, ‘बुआ’ वगैरह बाद में। ‘बेटी’ के रूप में वो समूचे बंगाल की अस्मिता हैं।

अब ‘बंगाल की बेटी’ को फिर लाने के अभियान के सियासी जवाब के तौर पर भाजपा ने ‘बुआ जाओ ’ मुहिम छेड़ दी है। पिछले दिनो पार्टी ने ट्विटर पर एक तस्वीर डाली, जिसमें एक तरफ भाजपा में शामिल कई बंगाली नेत्रियों की फोटो तो दूसरी तरफ ममता बैनर्जी की फोटो लगी थीं। नीचे कैप्शन था- ‘बंगाल अपनी बेटी चाहता है, बुआ नहीं।‘ तस्वीर में ममता को छोड़ बाकी भाजपाई महिला नेत्रियों को बंगाल की बेटी बताने की कोशिश की गई थी। लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने कहा कि ‘बंगाल की बेटी’ कोई है तो वह दीदी है। रिश्तों की इस राजनीति में अब एक नया एंगल ‘बंगाल के बेटे’ का है। अपने जमाने के नामी बाॅलीवुड स्टार, पहले वामपंथी तथा बाद में ममता के करीबी रहे मिथुन चक्रवर्ती का तीसरी बार ‘ह्रदय परिवर्तन’ हुआ है। वो अब भाजपा में शामिल हो गए हैं। ममता ने उन्हें राज्यसभा भी भेजा था, लेकिन कुख्या त चिटफंड कांड में नाम आने के बाद मिथुन ने सेहत का हवाला देकर राजनीति को बाय बाय कह दिया था। बदले हालात में उनके राजनीतिक विचार फिर बदले हैं। कोलकाता में आयोजित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विशाल रैली में भाजपा का भगवा दुपट्टा ओढ़ने के बाद मिथुन ने कहा ‍कि ‘मैं कोबरा हूं। मुझ पर भरोसा रखें।‘ पार्टी के सूत्रों के मुताबिक मिथुन तृणमूल द्वारा उठाए जा रहे ‘बाहरी’ के मुद्दे का जवाब होंगे।

अब सवाल यह है कि बंगाल में ‘बुआ’ जीतेगी या ‘बेटी’ या फिर जीत का सेहरा ‘बंगाल के बेटे’ के साथ बंधेगा? इस सवाल का जवाब बंगाल की जनता 2 मई को देगी। इसमें शक नहीं कि बंगाल की ‘बेटी’ को ‘बुआ’ साबित करने के लिए भाजपा ने जमीन-आसमान एक दिया है। उधर बेटी भी तमाम झंझावातों के बीच पूरे दम खम से मुकाबला करने में जुटी है।
राज्य में जारी विधानसभा चुनाव प्रचार के घमासान में अगर प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और अन्य नेता सीधे ममता पर वार कर रहे हैं तो ममता भी उन पर पलटवार कर रही हैं। साथ ही जनता से जुड़े मुद्दे उठाकर अपनी जमीनी पकड़ का सबूत भी दे रही हैं। भाजपा की उम्मीद का मुख्यू आधार यही है कि बंगाल की जनता दीदी के 10 साल के शासन से आजिज आ चुकी है और बदलाव चाहती है। पीएम मोदी इसे ही ‘अशोल परिबोर्तन’ ( असली परिवर्तन) की चाह बता रहे हैं। तो जवाब में दीदी ‘दिल्ली में बदलाव’ की दरकार की तान छेड़ रही हैं। दरअसल दीदी को बंगाल से उखाड़ने भाजपा के दावों के पीछे पिछले लोकसभा चुनाव नतीजों का बूस्टर है। लेकिन ध्यान रहे कि वो लोकसभा चुनाव ‘मोदी विरोध बनाम मोदी समर्थन’ में बंट गया था। उसमें बंगाल की जनता ने पहली बार बड़ी संख्या में मोदी के पक्ष में वोट दिया था। तब ममता फैक्टर बहुत प्रासंगिक नहीं था।

लेकिन लोकसभा चुनाव की तर्ज पर अगर बंगाल का यह विधानसभा चुनाव ‘ममता विरोध बनाम ममता समर्थन’ में तब्दील हो गया तो परिणाम क्या होगा, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है। खास बात यह है कि चाहे ‘बुआ’ की शक्ल में हो या ‘बेटी’ की शक्ल में, अभी भी चुनावी मुद्दों के केन्द्र में ममता ही है। हालांकि बीजेपी इस फोकस को बदलने की पुरजोर कोशिश कर रही है। लेकिन केवल ममता पर अटैक करने से यह कोशिश कैसे कामयाब होगी, समझना मुश्किल है। ध्यान रहे कि पारिवारिक नातों को राजनीतिक रिलेशनशिप में ढालने की अपनी एक मर्यादा है तो उतने ही खतरे भी हैं।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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