इस शीर्षक से आप कितने सहमत हैं । मेरे पिछले लेख पर आयीं प्रतिक्रियाओं से कह सकता हूं कि लोग न केवल मेरे द्वारा बराबर जाहिर की जा रही चिंताओं से सहमत हैं बल्कि यह भी बताते हैं कि वैसा ही भविष्य होने जा रहा है जैसा खाका आप खींच रहे हैं। हर लेख में वही चिंताएं और वही खाका । लेकिन तब भी मुझे आश्चर्य होता है कि जमीन पर कुछ होता नहीं दिखता । हां समांतर मीडिया की बहसों में सब कुछ होता दिखता है । आश्चर्य इस बात पर भी है हमारे इस मीडिया के पास विषयों का ‘टोटा’ हो गया है । वे इस बात से चिंतित हैं कि यदि हम राजनीति को छोड़ अन्य गंभीर समस्याओं पर अपने कार्यक्रम करें तो हमें दर्शक नहीं मिलते। आज का वक्त क्या ऐसी चिंताओं का मोहताज है । एक सत्ता दिनों-दिन बदहवास होकर समूचे लोकतंत्र की लानत मलानत कर रही है , व्यक्ति- समाज की आजादी पर अपना शिकंजा कसती जा रही है और हमारे पत्रकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, विपक्षी दल – कहीं कोई जमीन पर आंदोलित होते नहीं दिखाई देते । बदले में सोशल मीडिया पर चर्चाएं, फेसबुक, ट्विटर और दूसरी ऐसी जगहें आबाद हैं । फिर भी हम पूछ सकते हैं कि क्या आज का माहौल इजाजत नहीं देता कि इस सत्ता से नकार का एक बड़ा आंदोलन देश में खड़ा हो । लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे सब पकड़े जाने से भयभीत हैं । जिस तरह अखिलेश यादव भयभीत थे । इसीलिए मैंने कहा इस महाभारत में कृष्ण सहित पांडव कहीं गुमनाम हैं ।
आप देखिए कि विषयों का टोटा है तो सबकी धार कुंद हो रही है । सोशल मीडिया का तो यह हाल है ही कभी कभी तो रवीश कुमार के पास भी लगता है जैसे प्राइम टाइम जबरन खींचा जा रहा है । संभव है रवीश इस बात से सहमत हों या पूरी तरह नकार दें इसे । पर ‘वायर’ , ‘सत्य हिंदी’, ‘न्यूज क्लिक’ या और दूसरी जानी मानी वेबसाइट सबकी धार कुंद हो रही है । वायर पर सिद्धार्थ वरदराजन और अपूर्वानंद आते हैं । क्या देकर जाते हैं ।जो घट चुका है और जिसे हम सब जान चुके हैं , उस पर अपनी अपनी टिप्पणी । ठीक यही सब जगह चल रहा है । समाज जो अलग अलग खानों में बंट चुका है । हमारे हिस्से के खाने वाले सब जानते हैं । प्रतिक्रिया में वे एक ही बात कह सकते हैं आपकी टिप्पणियां बड़ी वाजिब लगीं । आशुतोष और आलोक जोशी इस बात पर चर्चा करते हैं कि जब हम दूसरे विषयों पर वीडियो बनाते हैं तो कोई देखता नहीं । बड़ी बेतुकी सी बात है । समांतर या कला सिनेमा बनाने वाले यदि यह सोच कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते कि कोई देखता ही नहीं या हमारे दर्शक बहुत कम हैं तो समाज की सच्चाई कौन दिखाता । सच तो यह है कि आज गोदी मीडिया और हमारे सोशल मीडिया में बहुत बारीक फर्क रह गया है । बस इस मीडिया में तू तड़ाक नहीं होता । आज जनता के सामने भी कोई दिशा नहीं है। इस सत्ता ने बड़ी चतुराई से जनता को भ्रमित ही नहीं किया बल्कि उसके भीतर सुलगती आग को भी कुंद कर दिया । आज आप सिर्फ बोल या गुनगुना सकते हैं , ‘मेरे सीने में न सही तेरे सीने में सही , हो कहीं भी आग मगर आग जलनी चाहिए’ । बोलना और गुनगुनाना एक बात है जमीन पर उतारना दूसरी बात ।
जनता को बहसें नहीं चाहिए । उसे या तो जानकारी चाहिए या एक आंदोलन चाहिए । श्रीलंका से हमारी तुलना की जा रही है जो एकदम बेमानी सी लगती है । वहां पूरी सत्ता और पूरा मंत्रिमंडल एक ही परिवार की गिरफ्त में था । आप इसी से अंदाजा लगा लीजिए कि हमारे देश की जनता और श्रीलंका की जनता में कितना अंतर होगा । इधर मोदी ने लगातार परिवारवाद पर हमला बोला है और आज भी बोल रहे हैं । जनता इसे पसंद कर रही है । हमारे यहां पिछले आठ सालों में जितने भी सफल आंदोलन हुए वे सभी अपने अपने कारणों और समस्याओं पर केंद्रित रहे। चाहे शाहीन बाग का आंदोलन हो या किसान आंदोलन या कोई और । कोई आंदोलन देश की सरकार को घेरने या उसे सत्ता से हटाने के लिए नहीं हुआ । श्रीलंका में पूरी सरकार (परिवार) के खिलाफ एक तरह की क्रांति हुई । हमारे समाज में तो इतना भ्रम है कि सरकार की नीतियों और बेरोजगारी से तंग व्यक्ति भी मोदी के साथ बिना हिचक खड़ा हो रहा है । इसका तोड़ किसी के पास नहीं है । देश में ऐसी भ्रम की स्थिति कभी नहीं रही । इस स्थिति को कोई एक आंदोलन ही साफ कर सकता है जिसका सिर्फ एक मुद्दा हो कि ‘यह सरकार बदलनी है’ । हमारे यहां की बहुतायत जनता अपने ही दुखों से दुखी है । उसके पास न रास्ता है, न दिशा । उसे मोदी ने ‘हिप्नोटाइज़’ किया है । भारत के मुकाबले दक्षिण एशिया के सभी देश आबादी और क्षेत्रफल में छोटे और सीमित हैं । लिहाजा भारत को गांधी और जयप्रकाश जैसा नेतृत्व चाहिए । मोदी जब जो चालें चल रहे थे तब हम सब उन्हें ताक रहे थे । आज हमने देखा लोकसभा को कैसे कैसे लोगों से भरा गया है। हम आज भी ताक रहे हैं जब ईडी और सीबीआई जैसी संस्थाएं सिर्फ और सिर्फ विरोधियों पर कहर बरसा रही हैं । जैसे सारे भगवा दल आसमान से उतरे हों । इसलिए देखें तो हमारे सामने मुद्दे ही मुद्दे हैं पर उन मुद्दों पर जमीन पर कोई हलचल नहीं है । समय तेजी से गुजर रहा है । 2024 सामने है। और लगता यही है कि हमारे लोगों ने उसका एक तरफा परिणाम स्वीकार कर लिया है । अगर यह सच है तो तौबा कीजिए । फिर भी पूछ लीजिए कहां हैं मेधा पाटकर , योगेन्द्र यादव, अरुणा राय, हर्ष मंदर, निखिल डे, राम पुनियानी, अरुंधती राय, अपूर्वानंद, रामचंद्र गुहा, आदि आदि … आदि ।

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