महाराष्ट्र में खमगांवा ताल्लुका स्थित आश्रमशाला में 70 आदिवासी बच्चियां रहती हैं. यहां से एक बच्ची पिछले साल दिवाली की छुट्टी में अपने घर गई थी. वह घर में अपनी मां से पेट दर्द की शिकायत करती है. मां आनन-फानन में इलाज के लिए नजदीक के अस्पताल में ले जाती है. जांच के बाद डॉक्टर बच्ची के साथ दुष्कर्म की पुष्टि करते हैं.
डरी-सहमी बच्ची स्वीकार करती है कि आश्रमशाला में स्वीपर कई महीनों से उसके साथ गलत कर रहा था. उसने प्रिंसिपल से भी इसकी शिकायत की थी, पर उसे चुप रहने के लिए कहा गया. इसके बाद इसी स्कूल में एक और आदिवासी बच्ची ने स्वीपर पर दुष्कर्म का आरोप लगाया. दोनों बच्चियां 12 साल से कम उम्र की हैं. हालत यह है कि यहां 70 आदिवासी बच्चियों के लिए एक भी फीमेल वार्डेन नहीं है. एक साल पहले गढ़चिरौली स्थित आश्रम में एक शिक्षक ने नाबालिग बच्ची को अपनी हवस का शिकार बनाया था.
नासिक में तीन साल पहले एक आदिवासी बच्ची के साथ गैंगरेप का मामला भी सामने आ चुका है. ये तो बस उंगलियों पर गिनने लायक कुछ आंकड़े हैं, जबकि आश्रमशालाओं की स्थिति और भयावह है. सवाल ये है कि क्या सरकारी अधिकारी इन्हीं वहशियाना तरीकों से आदिवासी बच्चियों को शिक्षा उपलब्ध कराने का ख्वाब संजोए हैं. क्या आश्रमशालाओं को अय्याशी का अड्डा बनाकर ही बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान आगे बढ़ेगा?
आश्रम नहीं, मौत का कुआं : महाराष्ट्र सरकार पूरे राज्य में आदिवासी बच्चों की पढ़ाई के लिए 1100 आश्रमशालाएं चलाती है. इन आश्रमशालाओं में 1.6 लाख आदिवासी बच्चियां और 2.3 लाख बच्चे रहते हैं. ट्राइबल डेवलपमेंट विभाग की योजना के तहत, इनमें से 529 आश्रमशालाओं को महाराष्ट्र सरकार चलाती है और 546 को आर्थिक सहायता देती है. अब आश्रमशालाओं की बदहाली पर भी एक नजर डाल लेते हैं.
15 साल में इन आश्रमशालाओं में 1500 आदिवासी बच्चों की रहस्यमयी स्थितियों में मौत हो चुकी है, जिसमें 740 बच्चियां हैं. अब इन बीमारियों की वजह जानकार भी आप हैरान रह जाएंगे. इनमें से 23 प्रतिशत की मौत सामान्य ज्वर, 13 प्रतिशत बच्चों की अचानक मौत, 17 प्रतिशत अज्ञात कारणों से, तो वहीं 12 प्रतिशत बच्चों की मौत का कोई कारण नहीं बताया गया है. इतना ही नहीं, यहां 31 आत्महत्या के मामले भी सामने आ चुके हैं. कह सकते हैं कि ये आदिवासी बच्चों के लिए आश्रम नहीं, बल्कि एक डेथ ट्रैप है.
7 अक्टूबर 2016 को कौशल्या भारसत ने शाम 6.30 बजे वार्डेन को लूज मोशन की शिकायत की. हॉस्पिटल पहुंचने से पहले ही उसकी मौत हो गई. अस्पताल में रिकॉर्ड से पता चला कि वह कई दिनों से बीमार थी, लेकिन डेथ रिपोर्ट में किसी बीमारी का जिक्र नहीं किया गया. शलुन्खे कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया है कि 67 प्रतिशत आदिवासी बच्चों की मौत के मामले में बीमारी का कोई कारण नहीं बताया गया है.
नासिक में देवगांव स्थित आश्रमशाला के एक अधिकारी बताते हैं कि प्राइमरी हेल्थ सेंटर यहां से 12 किलोमीटर दूर है, जबकि सिविल अस्पताल 70 किलोमीटर. अगर कोई बच्ची बीमार हो जाती है, तो ऐसे में हम किसी ट्रांसपोर्ट सुविधा के अभाव में प्रार्थना के अलावा और क्या कर सकते हैं.
सीएम का ड्रीम प्रोजेक्ट हैं आश्रमशाला : एक जांच समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि आदिवासी बच्चियों की मौत का सबसे बड़ा कारण यौन शोषण है. पैनल ने यह भी पाया कि कुछ आश्रमों की चहारदीवारी में शाम ढलते ही शिक्षक शराब का सेवन करते हैं. अधिकतर आश्रमशालाओं में शाम के बाद बिजली नहीं होने से अंधेरा छाया रहता है.
ऐसे में इन स्कूलों के शिक्षक व मेल वार्डेन बच्चियों को यौन हिंसा का शिकार बना लेते हैं. लड़कियों की सुरक्षा की बात तो जाने दें, यहां कई आश्रमशालाओं में चहारदीवारी भी नहीं है. ऐसा नहीं है कि सरकार व अधिकारी इन तथ्यों से अनजान हैं. हाल में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने आश्रमशालाओं को अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बताया था. सवाल ये है कि इन स्थितियों की जानकारी होने पर भी सरकार आदिवासी बच्चियों की मौत पर चुप क्यों है?
अगस्त 2015 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस) ने एक विस्तृत रिपोर्ट में बताया कि अधिकतर आश्रमशालाओं में हेल्थकेयर और सैनिटेशन की कोई सुविधा नहीं है. 29 फीसद सहायता प्राप्त आश्रमों और 20 फीसद सरकारी आश्रमों में ड्रेनेज की सुविधा है, बाकी आश्रमशालाओं की स्थिति नारकीय है. सरकारी प्रावधान के मुताबिक, यहां 20 बच्चियों पर एक शौचालय की सुविधा होनी चाहिए, पर हालत ये है कि बच्चियां खुले में शौच जाने को मजबूर हैं. गंदगी व जमा पानी से बच्चे मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियों के शिकार हो रहे हैं.
एक समस्या और है. आश्रमशालाओं के सभी कार्य ठीकेदारों द्वारा कराए जाते हैं. विभिन्न सामानों की खरीदारी के लिए ठेकेदारों को करोड़ों रुपयों का भुगतान किया जाता है, जहां पूरी तरह से भ्रष्टाचार व्याप्त है. हाल में विभाग ने आदिवासी बच्चों के लिए स्वेटर खरीदे जाने का निश्चय किया था. ठेकेदारों ने एक स्वेटर के दाम 2100 रुपए तय किए थे, जबकि उनकी वास्तविक कीमत 500 रुपए प्रति स्वेटर थी.
बाद में सरकार ने तय किया कि ठेकेदारों और मिडिल मैन की बजाय यह राशि सीधे बच्चों को उपलब्ध कराई जाए. ट्राइबल डिपार्टमेंट के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि आश्रमशालाओं के लिए फंड की कोई कमी नहीं है. अभी 300 करोड़ रुपए उपलब्ध कराए गए थे, लेकिन भ्रष्टाचार के कारण आदिवासी बच्चों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है.
शालुन्खे रिपोर्ट में कुपोषण को आदिवासी बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण बताया गया था. 2014 में गोंडिया जिले में आश्रमशाला से 40 बच्चे इसलिए भाग गए थे, क्योंकि उनके भोजन में शीशे और प्लास्टिक के टुकड़े मिले थे. जून 2015 में देवेंद्र फडणवीस ने कहा था कि आश्रम में पोषक भोजन उपलब्ध कराना एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन लाने के समान है. एक साल से अधिक बीत गए, लेकिन आश्रमशालाओं में कोई परिवर्तन की लहर नहीं पहुंची.
यहां तक कि कुछ स्कूलों में ही सेंट्रल रसोई की व्यवस्था की जा सकी है. रोटी, पुलाव और अंडे की सरकारी घोषणा तो दिवास्वप्न है, बच्चों को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं हो रहा है. आश्रमशाला के एक शिक्षक बताते हैं कि सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में प्रत्येक बच्चे को 900 रुपए प्रति माह मिलता है, वहीं सरकारी स्कूल में बच्चों को 2500 रुपए मिलता है. इतने कम पैसे में दो टाइम भोजन और नाश्ता कैसे उपलब्ध कराया जा सकता है.
छुटि्टयों से लौटने पर कराते हैं प्रेग्नेंसी टेस्ट
इन आश्रमशालाओं में आदिवासी बच्चियों का मेन्स्ट्रेशन रिकॉर्ड रखा जाता है. इतना ही नहीं, घर से लौटने या अनियमित मेन्स्ट्रेशन होने पर उनका प्रेग्नेंसी टेस्ट होता है. जांच समिति ने इस अमानवीय, अनैतिक और अवैधानिक प्रक्रिया पर कई सवाल खड़े किए हैं. परिजनों की सहमति के बिना मेन्स्ट्रेशन रिकॉर्ड या प्रेग्नेंसी टेस्ट कोई स्कूल कैसे रख सकता है? एनएचआरसी ने सरकार से पूछा है कि यह आदिवासी बच्चियों की जीवन के अधिकार और गरिमा का उल्लंघन है.
हाल में एनएचआरसी ने 1500 आदिवासी बच्चों की मौत पर मुख्य सचिव को नोटिस जारी किया है. इससे पहले भी दो नोटिस विगत वर्ष भेजे गए, पर इसे काहिली कहिए या लापरवाही, सरकार ने इसका जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा. ये आदिवासी बच्चे शिक्षा का ख्वाब लिए पहली बार अपने घरों से बाहर निकले हैं. मुफ्त शिक्षा, कपड़ा और दो समय भोजन की सुविधा ने उनके लक्ष्य को आसान जरूर किया, लेकिन असमय मौत और यौन हिंसा के भय से अब इनके परिजन बच्चों को स्कूल नहीं भेजना चाहते हैं.
यही वजह है कि आश्रमशाला से ड्रॉप आउट करने वालों में बच्चियां ज्यादा हैं. हालात ऐसे हैं कि सभ्य समाज के लोग इन स्थितियों की कल्पना कर भी सिहर जाते हैं. 1500 आदिवासी बच्चों की मौत से बेपरवाह सरकार व उनके कारिंदे कब संवेदनशील होंगे? क्या सरकार के पास इसका कोई जवाब है?