पिछले दिनों तटीय ओडीशा का भद्रक शहर साम्प्रदायिक हिंसा की चपेट में आ गया. कर्फ्यू के कारण इस शहर का सम्पर्क बाकी की दुनिया से कुछ दिनों के लिए टूट गया. हिंसा को काबू में करने के लिए अतिरिक्त अर्द्धसैनिक बलों को तैनात करना पड़ा. दो हफ्ते का समय बीत जाने के बाद भी शहर अपनी सामान्य स्थिति में आने के लिए संघर्ष कर रहा है. अब तो राजनीतिक दलों के लिए आरोप-प्रत्यारोप का समय आ गया है.
भद्रक शहर की आबादी का एक चौथाई हिस्सा मुसलमानों की है. आम तौर पर यहां सद्भाव बना रहता है, लेकिन कभी-कभी साम्प्रदायिक संघर्ष की स्थिति भी बन जाती है. इस बार हिंसा कुछ अधिक भड़क गई. यहां 1991 में आखिरी बार साम्प्रदायिक दंगे हुए थे. उस समय भी ये दंगे रामनवमी के जुलूस के दौरान शुरू हुए थे. इतिहास स्वयं को दोहरा रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि जिला प्रशासन और पुलिस ने इतिहास से बहुत कम सीख हासिल की है. इस बार झगड़े का सबब आधुनिक सोशल मीडिया बना.
भद्रक में इस साल रामनवमी उत्सव के दौरान हथियारों का खुल कर प्रदर्शन किया गया. हिन्दू समुदाय के एक व्यक्ति ने उत्सव की तस्वीरें फेसबुक पर डाली थी. जवाब में तीन मुस्लिम युवकों ने कथित तौर पर हिंदू देवी देवताओं के खिलाफ अभद्र टिप्पणियां की. ये फेसबुक पोस्ट 5 अप्रैल 2017 को रामनवमी के दिन वायरल हो गया और उसके बाद साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी. स्थानीय पुलिस से जिस मुस्तैदी की उम्मीद थी, उसने वैसी मुस्तैदी नहीं दिखाई.
उस निंदात्मक फेसबुक पोस्ट की शिकायतों के बाद 36 घंटे से अधिक समय तक पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही और दोषियों को गिरफ्तार करने के मांगों की अनदेखी करती रही. इस दौरान शहर और पड़ोसी इलाकों में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ता रहा. आग भड़काने का काम व्हाट्सएप ने भी किया. व्हाट्सएप के एक संदेश के जरिए अफवाह फैला दी गई कि मुसलमानों ने एक हिंदू व्यापारी की दुकान में आग लगा दी है. इसके बाद हिंसा और भड़क गई.
इसके बाद भद्रक में धारा 144 लगाया गया. पुलिस ने एक आरोपी को गिरफ्तार भी किया. 7 अप्रैल को शांति समिति की एक बैठक बुलाई गई. इस बैठक में हिस्सा लेने वाले लोगों की संख्या सामान्य रूप से अधिक थी. लेकिन शांति प्रयास असफल रहा, क्योंकि एक समूह अभद्र टिपण्णी के मामले में गिरफ्तार आरोपी को रिहा करने की मांग पर अड़ गया.
इसी बीच, युवाओं के एक समूह ने धारा 144 लागू होने के बावजूद जुलूस निकाली. जलूस में शामिल लोग कथित तौर पर पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगा रहे थे, जिसकी वजह से दंगे भड़क उठे. कई दुकानें लूटी और जलाई गईं. मीडिया को फोटोग्राफ लेने की इजाज़त नहीं थी. सुकून की बात ये रही कि मामला आगजनी और लूट तक ही सीमित रहा, किसी की जान नहीं गई. हिंसा के दौरान लाखों रुपए की सम्पत्ति का नुकसान हुआ. यह सवाल पूरे राज्य में फैल रहा है कि आखिर भद्रक में हिंसा क्यों भड़की?
एक 60 वर्षीय बुज़ुर्ग, जिन्होंने इस घटना को करीब से देखा था, ने पहचान गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि बुनियादी तौर पर तीन चीज़े ऐसी थीं, जिनकी वजह से ऐसी स्थिति बनी. पहली, रामनवमी का जुलूस, जिसमें हथियार का प्रदर्शन आम है. इससे साम्प्रदायिक दंगे भड़कने की सम्भावना अधिक होती है. पूर्व में संबलपुर से भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता जयनारायण मिश्रा उस समय विवादों के घेरे में आ गए, जब उन्होंने तलवार का प्रदर्शन किया.
हालिया पंचायत चुनावों में भाजपा की जीत के बाद ऐसी घटनाएं राज्य में कई जगहों पर दुहराई गई. वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और ओडीशा के प्रभारी बी के हरिप्रसाद कहते हैं कि यह ओडीशा सरकार और पुलिस की नाकामी है. खास तौर पर पुलिस का खुफिया तंत्र इस मामले में नाकाम रहा. हालांकि ये सा़फ है कि वोट हासिल करने और सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए ध्रुवीकरण का भाजपा का यह पुराना फार्मूला है. उधर, ओडीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का कहना है कि यह प्रशासन की नाकामी नहीं है. हमने कानून के मुताबिक सही समय पर सही क़दम उठाए.
जिला प्रशासन और पुलिस ने कामयाबी के साथ स्थिति को नियंत्रण में किया. भद्रक में आखिरी बार 1991 में साम्प्रदायिक दंगे हुए थे. उस साल दंगे का कारण बना, एक नारा. ये नारा था- जब भारत में रहना होगा, राम नाम कहना होगा. पुलिस और स्थानीय प्रशासन को पता होना चाहिए था कि ऐसे नारे साम्प्रदायिक हिंसा में प्रेरक का काम करते हैं और ये सच्चाई है कि कुछ ऐसे उपद्रवी तत्व होते हैं, जो ऐसे मौकों का इंतज़ार करते रहते हैं. प्रशासन इस पूरे प्रकरण के दौरान उंघता हुआ नजर आया. खास तौर पर घटना के शुरुआती दौर में. जब फेसबुक पोस्ट वायरल हो रहा था, उसी समय पुलिस को हरकत में आ जाना चाहिए था.
इस दंगे का तीसरा सबसे बड़ा कारण सोशल मीडिया है. यदि सोशल मीडिया का इस्तेमाल ठीक ढंग से नहीं किया गया, तो यह बम बनाने वाले कारखाने से भी अधिक हानिकारक बन जाएगा. ऐसे हालात में सोशल मीडिया कितना नुकसान पहुंचा सकता है, पुलिस और प्रशासन इसका अंदाज़ा नहीं लगा सके. फेसबुक पोस्ट ने दंगे के लिए माहौल तैयार किया और व्हाट्सएप ने दंगे की शुरुआत करा दी. दरअसल, प्रशासन को सोशल मीडिया की शक्ति का देर से एहसास हुआ. लेकिन जब एहसास हुआ, तो 9 अप्रैल को 48 घंटे के लिए सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया गया. जब बहुत नुकसान हो गया, तब राज्य सतर्कता विभाग ने इसका संज्ञान लिया और सोशल मीडिया वाले हिस्से की जांच की ज़िम्मेदारी ली.
पंचायत चुनाव में जीत से उत्साहित भाजपा और आरएसएस, भुवनेश्वर में होने वाली भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक से पहले अपनी ताक़त का प्रदर्शन करना चाह रहे थे. इस आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता है कि 2019 के चुनाव से पहले ध्रुवीकरण अपनी चरम सीमा पर जा सकती है. ये घटना शायद भविष्य में घटित होने वाली ऐसी घटनाओं की पहली कड़ी थी. बहरहाल, इस घटना का जिम्मेदार चाहे जो हो, इसे रोकने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की थी, जिसमे वो असफल साबित हुई.