खान अशु

एक किसी जमाने में एक दैनिक अखबार के संपादक हुआ करते थे, कर्मों से नीचे सरकते हुए हाशिए पर आ टिके हैं…! एक बन्द होने की कगार पर खड़े अखबार के किनारे पर किए जा चुके संपादक(?) हैं, धकेले जाने की कई कोशिशों के बाद भी बेशर्मी से डटे हुए हैं…! अक्ल के अजीर्ण को लेकर अखबारी दुनिया के कोने सम्हाले महानुभावों ने चापलूसी का नया धंधा शुरू किया है….! सहारा बनाया कुछ धर्मांध, अंधभक्त और विद्वेष के साथ घिसट ज़िन्दगी जी रहे खुराफातियों को….! खुद को बुद्धिजीवी कहलाने वाले इन महानुभावों को प्रदेश से लेकर केंद्र सरकार, भाजपा और खासकर आरएसएस की नजरों का तारा बनने का फब्त सवार हुआ है…! खुद ही तय की हुई एक रेखा को खुशियों का घेरा मानकर साम्प्रदायिकता की सड़ांध फैलाने में लग गए हैं…!

शहर, सूबे से लेकर देश का नाम दुनिया में रोशन करने वाली एक शख्सियत को खिराज ए अकीदत , श्रद्धांजलि, नमन या अभिवादन करने की गुस्ताख कोशिशों में ये जुटे हैं….! इस बात को तर्क करके की आसमां की तरफ थूकने का असर अपने ही काले चेहरे को कालिख से पोतने के रूप में आएगा…!

शेर ओ ग़ज़ल से मंच लूटने की महारत रखने वाले जिस शख्स ने दिलों को, इंसानों को, मुहब्बत से नफरतों को ज्यादा जीता है, उसके खिलाफ जहर उगलने की ओछी मानसिकता फैली पड़ी है…! मकसद सिर्फ एक, किसी बड़े व्यक्ति के लिए अनर्गल कह दो, मशहूर हो जाओगे…!

मुंह की खाए इन खाबिसो को माकूल जवाब देने के लिए मैदान में उसी कौम के चेहरे मौजूद हैं, जिस मजहब की चादर ओढ़ कर ये खुद को देश और धर्म रक्षक कहने का दंभ भर रहे हैं…!
अदब, संस्कृति, साहित्य के दामन को तार करने वाले अक्ल का कोफिया पाल चुके तथाकथित धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को शर्म नहीं है कि किसी की मौत का जश्न मनाकर अपने बाप और खानदान के लिए रखने वाले खयालात का इजहार कर रहे हैं….!

धन्य हैं वह, जो गंगा जमुनी तहजीब की डोर को थामे अब भी मजबूती से खड़े हुए हैं और इस देश की अस्मिता को बचाए रखने का फर्ज निभा रहे हैं…! लानत है उनपर, जिन्होंने मकसदों की पोटली को मजहबी चोले में छिपाकर इंसानियत को शर्मसार करने की ठान रखी है….!

पुछल्ला
तमगा नहीं, यादगार की दरकार….!
दुनिया के मेहबूब शायर का यूं चले जाना अदब के गले अब तक विश्वास और यकीन की डोर नहीं बांध पाया है। राहत की चाहत रखने वालों की पुकार है कि उन्हें अब, मौत के बाद ही उस देश व्यापी एजाज से नवाज दिया जाए, जिसके लिए गैरतमंद शायर ने कभी झोली नहीं फैलाई। मांगने वाले ये भी चाहते हैं कि शहर एक ऐसी यादगार से सजाया जाए, जहां हमेशा राहतें मौजूद रहें।

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