अमूमन माना जाता है कि शिक्षा अंधविश्वास की दुनिया का काल है। लेकिन आंध्रप्रदेश के कित्तूर जिले के मदनापल्ली में जो कुछ हुआ वो, न सिर्फ रोंगटे खड़े कर देने वाला है बल्कि यह सोचने पर विवश करने वाला भी है कि ज्ञान-विज्ञान की इतनी तरक्की के बाद भी अंधविश्वास और तंत्र मंत्र का अंधायुग क्यों कायम है? यांत्रिक जीवन शैली पर भी तांत्रिक मानस क्यों हावी जाता है? मदनापल्ली में उच्च शिक्षित शिक्षक मां-बाप ने अपनी ही दो बेटियों की हत्या सिर्फ इस अंधविश्वास में कर डाली कि वो ‘सतयुग’ में फिर ज्यादा शुद्ध और पवित्र होकर जी उठेंगी।कलियुग बस खत्म होने ही वाला है। इस घटना से लोगों के साथ पुलिस भी हैरान हैं।

दो बेटियों की हत्या के आरोपी अभिभावक दंपती की रिमांड रिपोर्ट में कहा गया है कि पुत्रियों को मार डालने जैसा जघन्य कृत्य करने के बाद भी वो दोनो ट्रांस ( (अवचेतनावस्था) में हैं और मान रहे हैं कि उन्होने जो कुछ किया,अच्छे के लिए किया। यानी ‘अच्छे’ के लिए इतना ‘बुरा’ भी हो सकता है।अंधविश्वास और जादू टोने के चक्कर में मानव बलि देने की घटनाएं यदा-कदा होती रहती हैं, लेकिन एक सु‍शिक्षित दंपती अपनी ही बेटियों की निर्मम हत्या कर यह मानें कि उन्होंने यह सब ‘अच्छे दिनों’ के लिए किया तो हर संवेदनशील और विवेकशील व्यक्ति का दिमाग भी चकरघिन्नी हो जाएगा। ऐसे कृत्य का क्या लाॅजिक खोजें? बुद्धि को ताले में बंद कर किया गया कृत्य या फिर अबुद्ध होकर ठंडे खून के साथ की गई वारदात?

पुलिस इस मामले की जांच कर रही है, लेकिन अब तक जो जानकारी सामने आई है, उसके मुताबिक हत्यारे दंपती उच्च शिक्षित हैं, लेकिन किसी तांत्रिक के जबर्दस्त प्रभाव में उन्होंने अपने विवेक को शायद गिरवी रख दिया था। मीडिया में आई रिपोर्ट्स के मुताबिक बेटियों का बाप डा. वी. पुरूषोत्तम नायडू मदनापल्ली शासकीय डिग्री काॅलेज में वाइस प्रिंसिपल है। उसने केमिस्ट्री में एमफिल व पीएचडी किया है। उसकी पत्नी और दोनो बेटियों की मां पद्मजा नायडू एमएस्सी गणित में गोल्ड मेडेलिस्ट है तथा एक निजी स्कूल में प्रिंसिपल और पत्रकार भी है। मृत आलेख्या व साई दिव्या उनकी उच्च शिक्षित जवान बेटियां थीं। बताया जाता है कि विज्ञान में उच्च शिक्षित ये दंपती तंत्र मंत्र के गहरे प्रभाव में था। हालांकि काॅलेज में पुरूषोत्तम की छवि एक अच्छे शिक्षक की है।

बताया जाता है कि घटना के हफ्ते भर पहले बड़ी बेटी अपने कुत्ते को साथ लेकर घूमने गई थी। जब लौटी तो चक्कर खाकर गिर पड़ी। मां बाप ने उस पर किसी दुष्टात्मा की छाया मानकर उसे दूर करने किसी तांत्रिक से अनुष्ठान कराया। कहते हैं कि हत्या के कुछ समय पहले से ही बेटियां कहने लगी थीं कि वो मर जाएंगी। मां-बाप ने ही दोनो की हत्या कर उनकी आशंका को सच साबित कर दिया। ये हत्याएं त्रिशूल और डम्बल मार कर की गईं। अपनी ही जवान बेटियों की जान लेने के बाद हत्यारे पिता ने अपने एक मित्र को इस जघन्य कृत्य की जानकारी फोन पर दी तो वह सुनकर सिहर गया और भागकर पुलिस को सूचना दी।

दोनो पढ़े-लिखे मां बाप इस कदर अंधविश्वास की गिरफ्त में थे कि बेटियों को मारने का उन्हे कोई पश्चाताप नहीं था। वो अभी भी उस बेहोशी की अवचेतनावस्था से बाहर नहीं अाए हैं,जब उन्हें यह अहसास हो कि उन्होंने यह क्या कर डाला है। पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद भी वो यही कहते रहे कि अभी कलियुग चल रहा है। सोमवार को सतयुग शुरू होते ही दोनो बच्चियां फिर जी उठेंगीं। जब पुलिस घटनास्थल पर पहुंची तो मां मृत बेटी की लाश के चारों और नृत्य कर रही थी। साथ में यह बड़बड़ाती जा रही थी कि कोरोना चीन से नहीं शिव से आया है। और मैं ही शिव हूं।

कोरोना मार्च तक खत्म हो जाएगा। वास्तव में दंपती को किसने बहकाया और वो किसी तांत्रिक के झांसे में क्यों और कैसे आ गए, इसकी सचाई तभी सामने आएगी, जब वो दोनो ‘होश’ में आएंगे। हकीकत की दुनिया में लौटेंगे। इस दंपती के पड़ोसियों ने पुलिस को बताया कि लाॅक डाउन के समय से ही दोनो कुछ अजीब व्यवहार करने लगे थे। कहा यह भी जा रहा है कि बेटियों को मार देने के बाद दोनो पति पत्नी भी आत्महत्या की तैयारी में थे ताकि सतयुग में जा सकें। लेकिन पुलिस के पहुंच जाने से उनकी यह योजना सफल नहीं हो सकी।

मदनापल्ली की इस भयावह घटना ने ढाई वर्ष पूर्व दिल्ली के बुराड़ी में एक परिवार द्वारा की गई सामूहिक आत्महत्या की घटना की याद ‍दिला दी। जिसमें एक ही परिवार के 11 लोगों ने एक साथ फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने अपने मुंह और हाथ भी बांध रखे थे। ये खुदकुशी इस उम्मीद में की गई थी कि उनका पुनर्जन्म होगा। वहां 11 रजिस्टर भी पाए गए थे, जिनमें कुछ रहस्यमय बातें लिखी हुई थीं। पिछले साल नवंबर में कानपुर में दिवाली पर एक युवा दंपती ने तां‍त्रिक के कहने पर साल साल की बच्ची की बलि दे दी कि मृत बालिका का लिवर व अंन्य अंगों को खाने से नि:संतान दंपती को संतान की प्राप्ति होगी।

चार साल पहले केरल के तिरूअनंतपुरम में एक युवक ने अपने माता पिता, बहन और रिश्तेदारों की हत्याकर उनकी लाशें इसलिए जला दीं क्योंकि वह आत्मा को शरीर से बाहर निकलते देखना चाहता था। यह उसके तांत्रिक कर्मकांड का हिस्सा था और वह आत्माओं से बात करना चाहता था। ऐसे और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं, जिनमें एक काल्पनिक दुनिया में जीने के लिए लोगों ने इहलोक को अलविदा कह दिया और दूसरों को मुक्ति दे दी। यहां सवाल यह है कि अनपढ़ अशिक्षित लोग जादू-टोने और तंत्र-मंत्र के झांसे में आएं तो बात समझ आती है, लेकिन पढ़े-लिखे लोगों की आंखों पर पट्टी और विवेक पर पत्थर क्यों कैसे पड़ जाता है? कैसे वो अपनी सोच और समझ को ताक पर रखकर वही सोच और देखने लगते हैं, जो कोई और उनसे करवाता है।

मान्यता तो यह है कि शिक्षा मनुष्य में तर्कबुद्धि का पोषण करती है। वह व्यावह‍ारिक दुनिया में जीने और समझने की क्षमता विकसित करती है। लेकिन हमेशा ऐसा ही हो, यह जरूरी नहीं है। जब मन मस्तिष्क उसे ही सच मान बैठता है, जिसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है और जो दृश्य भी नहीं है। केवल परानुभूति के दम पर चलता है। अघोरी तां‍‍त्रिक क्रियाओं को अलग रखें तो सामान्य जीवन में भी टोटको पर भरोसा और मान्यता पीढ़ी-दर-पीढ़ी यथावत है। मसलन बिल्ली रास्ता काट जाना, अटारी पर कौव्वे का बोलना, भूत प्रेत की बातें, शगुन अपशगुन की मान्यताएं, शुभ लाभ का मानसिक द्वंद्व या फिर चौघडि़या देखकर ही कोई काम करना आदि इसी तरह की बातें हैं।

जानकारों का मानना है बावजूद तमाम आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक प्रगति के अंधविश्वास की टोने टोटको को सत्य मानने की जड़ें हमारे अतीत में हैं। यहां तक कि न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक भी इससे नहीं बच सके। यानी इस तरह की मान्यताएं सत्य से ज्यादा मनुष्य के मनोविज्ञान से जुड़ी हैं। हम वही सोचने और देखने लगते हैं, जो हमे दिखाया और लोगों तक पहुंचाने के लिए कहा जाता है। यहां आस्था और अंधविश्वास, श्रद्धा और अंधश्रद्धा के बीच बहुत कम फर्क रह जाता है।

अंधविश्वास हमे एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में जीने की ओर ठेलता है, जहां कोई प्रतिप्रश्न नहीं होता। ऐसा मन पराशक्तियों पर अंधा भरोसा करता है और जो प्रति प्रश्न करता है, उसे नास्तिक कहकर ठुकरा दिया जाता है। अंधविश्वास की यह समांतर दुनिया पराशक्तियों पर भरोसा करती है। उन्हीं को त्राता मानती है। गनीमत है कि दु‍िनया केवल ऐसे लोगों के भरोसे नहीं चलती, वरना नायडू दंपती की मानसिकता वाले लोग न जाने कितनी ही बेटियों को ‘सतयुग’ में पहुंचाने पर आमादा हो जाते।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

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