प्रख्‍यात समाजसेवी और कुष्ठ रोगियों के भगवान स्व. की पोती और समाजसेवी डाॅ. शीतल आमटे द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबर जहां समाज सेवियों के लिए एक बड़ा सदमा है, वहीं यह घटना इस बात का भी सूचक है कि सेवा भावी संस्थाएं भी अंतत: सत्ता केन्द्र में कैसे बदलती हैं और कैसे पारिवारिक विवाद एक अच्छी भली संस्था के लिए नासूर बन जाते हैं। कुष्ठ रोगियों का इलाज और पुनर्वास करने वाले इस मानवीय संस्थान ‘आनंदवन’ का संचालन एक गैर लाभप्रद एनजीओ ‘महारोगी सेवा समिति’ ( एमएसएस) करती है।

डाॅ.शीतल इसी समिति की सीईओ थीं और समिति के काम काज को आधुनिक बनाने में जुटी थीं। लेकिन बताया जाता है कि आनंदवन और एमएसएस पर कब्जे की लड़ाई ने अंतत: उनकी जान ले ली। डाॅ. शीतल ने समिति में कथित आंतरिक गड़बडि़यों तथा पािरवारिक कलह को लेकर पिछले हफ्‍ते फेसबुक पर एक पोस्ट भी डाली थी, जिसके वायरल होते ही पूरे आनंदवन और आमटे परिवार में हड़कंप मच गया था। डाॅ.शीतल ने परिवार के दबाव में दो घंटे बाद ही उसे हटा दिया था। तब परिजनों ने कहा था कि शीतल ने काम के तनाव और डिप्रेशन के चलते ऐसा किया।

लेकिन उसके एक हफ्ते में ही शीतल ने डाक्टर, एक पत्नी और एक बेटे की मां होने के बावजूद स्वयं को विष का इंजेक्शन लगाकर जान दी तो रहस्य और गहरा गया। यकीनन इसके पीछे कुछ गहरे राज और आंतरिक विवाद हैं, जिन्हें सामने आना चाहिए। क्योंकि ‘आनंदवन’ अपने आप में ऐसी अनूठी संस्था है, जो सात दशकों से कुष्ठ रोगियों की अंधेरी दुनिया में आत्मनिर्भरता की रोशनी बिखेरती आ रही है।

उल्लेखनीय है कि ‘आनंदवन’ की स्थापना एक सुशिक्षित और जुनूनी समाजसेवी बाबा आमटे और उनकी पत्नी साधना ताई ने 1949 में वर्धा के पास वरोरा में की थी। बाबा और साधना ताई सम्पन्न परिवारों में पले-बढ़े थे, लेकिन समाज में कुष्ठ रोगियों की दयनीय स्थिति को देखते हुए, उन्होंने समाज से बहिष्कृत ऐसे लोगों की निस्वार्थ भाव से मदद करने की ठानी। हालांकि उस जमाने में उन्हे परंपरागत सोच से ग्रस्त लोगों के भारी विरोध का भी सामना करना पड़ा।

लेकिन वो लक्ष्य से नहीं डिगे। उन्होने वरोरा में दो झोपडि़यों में आनंदवन नामक एक आश्रम प्रारंभ किया। यहां कुष्ठ रोगियों का सिर्फ इलाज ही नहीं किया जाता बल्कि उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी भी बनाया जाता है। कुष्ठ रोग एक बीमारी है, जिसमें मनुष्य के हाथ-पैर गलने लगते हैं। लेकिन अब इसे इलाज से काफी हद तक ठीक किया जा सकता है।

1983 में मुझे आनंदवन जाने और देखने का सुअवसर मिला था। अमूमन जिनकी छाया से भी लोग डरते हों, उनके बीच तीन दिन रहना उनसे एक आत्मीय रिश्ता कायम करना अविस्मरणीय अनुभव था। ये वो क्षण थे, जब मनुष्य सिर्फ मनुष्य होता है। जिन कुष्ठ रोगियों का समाज दुत्कार देता है, आनंदवन उन्हीं को गले लगाता है। इनमें स्त्री-पुरूष सभी होते हैं। वहां हर साल वृक्ष महोत्सव भी मनता है।

इस दौरान सभी अतिथियों का स्वागत-सत्कार ठीक हो चुके कुष्ठ रोगी ही करते हैं। वो ही आश्रम में अतिथियों के लिए खाना बनाते हैं, वो ही परोसते हैं। वो ही आगंतुकों के लिए बिस्तर बिछाते हैं। सुबह चाय बनाते हैं। इन सबके माध्यम से दुनिया को यह बताने की कोशिश होती है कि कुष्ठ रोगी भी मनुष्य हैं। उनसे भी इंसानों जैसा ही बर्ताव करें।

आनंदवन प्रोजेक्ट बाबा के बड़े बेटे विकास आमटे और उनका परिवार देखता है, जबकि छोटे बेटे डाॅ. प्रकाश आमटे गडचिरौली जिले में आदिवासियों के बीच हेमलकसा में दूसरा प्रोजेक्ट देखते हैं। डाॅ. शीतल, डाॅ विकास अामटे की ही बेटी थीं। उन्होंने 2007 में गौतम करजगी से विवाह किया। ये दोनो पहले बाहर काम करते थे,लेकिन बाद में आनंदवन आ गए। आंनदवन का संचालन महारोगी सेवा समिति ट्रस्ट करता है, जिसमें ज्यादातर आमटे परिवार के सदस्य ही हैं।

डाॅ. शीतल की खुदकुशी के पीछे आनंदवन और एमएसएस पर कब्जे और भाई बहन के बीच महत्वकांक्षा की लड़ाई बताई जाती है। डाॅ. शीतल के बड़े भाई कौस्तुभ आमटे पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। पांच साल पहले कौस्तुभ को एमएसएस में कई ‍अनियमितताए करने के आरोप में ट्रस्ट से निकाल दिया गया था। उन पर अनियमितताओ के आरोप डाॅ. शीतल ने ही लगाए थे। शीतल की अपने चचेरे भाई और इंजीनियर अनिकेत से भी पटरी नहीं बैठती थी। हालांकि बाद में डाॅ. शीतल को एमएसएस का सीईओ बना दिया गया। उन्होंने आनंदवन को ‘स्मार्ट विलेज’ बनाने के प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया।

इसी के साथ उन्होंने आनंदवन में काम कर रहे कई पुराने और अहम पदों पर बैठे कर्मचारियों को भी हटा दिया। इससे संदेश यह गया कि वो ‘आनंदवन’ का कारपोरेटीकरण करना चाहती हैं। जबकि डाॅ शीतल का मानना था कि संस्था को नए जमाने के हिसाब से बदलना और चलाना होगा। डाॅ. शीतल खुद दिव्यांग विशेषज्ञ थीं और दिव्यांगों के ‍इलाज के लिए उन्होंने महत्वाकांक्षी ‘निजब ल’प्रोजेक्ट भी शुरू किया था। लेकिन पिछले महिने जब ट्रस्टियों ने कौस्तुभ को फिर ट्रस्टी बनाने का प्रस्ताव लाया तो डाॅ शीतल और उनके पति ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन आंतरिक दबाव के चलते कौस्तुभ को ट्रस्ट सदस्य बनाने का प्रस्ताव पािरत हो गया और उन्हें गडचिरौली जिले के सोमनाथ में ‘लोक बिरादारी’ प्रोजेक्ट का दायित्व सौंपा गया। डाॅ. शीतल इससे कतई खुश नहीं थीं।

हालांकि सार्वजनिक तौर पर उन्होंने इसका विरोध नहीं किया, लेकिन फेसबुक पर ऐसी पोस्ट डाली, जिससे साफ पता चलता था कि आमटे परिवार में कलह सतह पर आ गई है और यह विवाद संस्था पर वर्चस्व का है। इस पोस्ट के बाद उनके अपने लोग भी विरोधी हो गए थे। हालांकि आमटे परिवार ने मामले पर यह कहकर पर्दा डालने की ‍कोशिश की कि डाॅ. शीतल काम के तनाव में हैं और डिप्रेशन के चलते उन्होंने ऐसी पोस्ट डाली। हैरानी की बात यह है कि अपने एक वीडियो में डाॅ शीतल यह समझाती दिखती हैं कि कैसे जीवन में तनाव को सृजनात्मक कार्यों से दूर किया जा सकता है। इसलिए वो लोगों को पेंटिंग करना और ऐसे ही दूसरे काम करने की सलाह देती दिखती हैं, जिनकी वजह से वो अवसाद से खुद को बचा पाई हैं। पिछले दिनो आमटे परिवार के सदस्यों ने डाॅ.शीतल के कामों की तारीख करते हुए एक बयान जारी किया था, लेकिन शीतल ने कौस्तुभ पर जो अनियमितताअोंके आरोप लगाए थे, उनके बारे में चुप्पी साध ली थी।

यकीनन कहीं कुछ दाल में काला है, वरना 39 वर्षीय शीतल, जो ऊर्जावान चिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ता थीं,यूं खुद मौत को गले लगा लेंगी, इसे स्वीकार करना कठिन है। वर्ल्ड इकानामिक फोरम ने उन्हें 2016 में ‘यंग ग्लोबल लीडरशिप’ अवाॅर्ड से नवाजा था। 29 नवंबर को ही डाॅ. शीतल ने एक एक्रेलिक पेंटिंग पोस्ट की थी, जिसका कैप्शन था-‘वाॅर एंड पीस।‘ इसके बहाने वो शायद कुछ कहना चाहती थीं।

यहां एक अहम सवाल यह भी है कि ‘आनंदवन’ जैसी संस्थाएं भी अंतत: पारिवारिक कलह का केन्द्र क्यों बन जाती हैं? निस्वार्थ सेवा के पैमाने पारिवारिक सतह पर आकर ध्वस्त क्यों होने लगते हैं? और यह भी कि जो व्यक्ति समाज के लिए आइकन बन जाए, जिसे लोग सेलेब्रिटी मानते हो, वही आत्महत्या जैसा नकारात्मक रास्ता अख्तियार कर ले तो समाज अपना आदर्श किसे और क्यों मानें?

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

‘सुबह सवेरे’

 

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