1952, 1957, 1962 में कांग्रेस हमेशा 300 से अधिक सांसदों के साथ आती थी, लेकिन विपक्ष कभी हतोत्साहित नहीं हुआ. सोशलिस्ट पार्टी के 5-6 सांसदों ने हमेशा अपने विषय उठाए, सरकार की जायज आलोचना की. सीपीआई ने हमेशा अपने मुद्दे उठाए. आज हतोत्साहित होने की वजह क्या है?
26 मई को नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में 45 मंत्रियों के शुरुआती कैबिनेट के साथ शपथ ली. राष्ट्रपति भवन की विज्ञप्ति में मंत्रियों के मंत्रालयों की जानकारी दी गई. इससे पहले ही टिप्पणी की जाने लगी कि कैबिनेट की टीम योग्य है या नहीं. मुझे लगता है कि यह अनुपयुक्त है. जनता ने भाजपा को सत्ता सौंपी है और इस चुनाव में लोगों ने न स़िर्फ भाजपा को, बल्कि नरेंद्र मोदी को व्यक्तिगत तौर पर वोट दिया है. हम में से कुछ लोग इसे पसंद करें या नहीं, लेकिन यह एक अलग मसला है. नरेंद्र मोदी काम करेंगे और इसी आधार पर उन्हें आंका जाना चाहिए. जहां तक कैबिनेट का सवाल है, तो उन्होंने एक नई परिपाटी बनाई है. इसके द्वारा उन्होंने वरिष्ठ कैबिनेट सहयोगियों का चुनाव किया है, लेकिन उन्हें सीमित ज़िम्मेदारी दी गई है. ऐसा उनकी वरिष्ठता और उम्र आदि को ध्यान में रखते हुए किया गया है.
वहीं, दूसरी ओर उन्होंने कई युवाओं को राज्य मंत्री के रूप में नियुक्त किया है. ऊर्जा, कोयला, पेट्रोलियम जैसे कुछ क्षेत्र हैं, जहां काफी काम करने की आवश्यकता है. चुनाव प्रचार के दौरान बुनियादी ढांचों और अन्य क्षेत्रों में लक्ष्यों को पूरा न कर पाने का मुद्दा काफी जोर-शोर से उठा. वह चाहते हैं कि युवा मंत्रियों द्वारा उन कार्यों को पूरा किया जाए और प्रधानमंत्री कार्यालय से इन युवा मंत्रियों को दिशा-निर्देश मिलता रहेगा. नरेंद्र मोदी ने अपने विश्वस्त सेनापति अरुण जेटली को वित्त मंत्री के रूप में नियुक्त किया है और स्वाभाविक तौर पर उन्हें अपने पुन:उत्थान के लिए उन पर काफी निर्भर होना पड़ेगा. यह कैबिनेट अच्छा या बुरा या पहले जैसा है, इस पर अभी टिप्पणी करने का कोई मतलब नहीं बनता. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि राजनीति में सबसे पहले सभी का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, सभी राज्यों का ध्यान रखा जाना चाहिए और वरिष्ठता एवं कनिष्ठता पर भी विचार किया जाना चाहिए. आज़ादी के बाद से अभी तक सभी कैबिनेट इसी आधार पर बनाए जाते रहे हैं. हालांकि, 80 के दशक के बाद कुछ बातें जटिल हो गईं, क्योंकि कई अन्य जातियां पहले से उलट अपना दावा करने लगीं. नतीजतन, सभी क्षेत्रों, धर्मों, जातियों आदि को संतुलित करना बेहद मुश्किल काम हो गया. और, प्रधानमंत्री चाहे कोई भी हो, लेकिन उसे अपने तरी़के से सोचना चाहिए. नरेंद्र मोदी ने अपने हिसाब से कैबिनेट का गठन किया है. बिना समझे कैसे यह बहस का विषय बन गया है. दरअसल, साल भर के बाद ही कोई व्यक्ति यह आकलन कर सकता है कि सरकार सही दिशा में काम कर रही है या नहीं. लेकिन, तीन दिनों में ही प्रतिक्रिया देने से स्पष्ट है कि चुनाव में जिनकी हार हुई है, वे अभी तक इस हार को पचा नहीं पा रहे हैं.
एक ग़ैर राजनीतिक व्यक्ति की तरफ़ से मूर्खतापूर्ण टिप्पणी की गई कि स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्री नहीं बनाया जाना चाहिए, क्योंकि वह स़िर्फ 12वीं पास हैं. यह मूर्खतापूर्ण है, क्योंकि भारतीय संविधान सांसद चुने जाने के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण नहीं करता. एक भारतीय नागरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने के कारण स्मृति ईरानी चुनी गई हैं, बेशक राज्यसभा में ही. वह एक सांसद हैं और प्रत्येक सांसद मंत्री बनने की योग्यता रखता है. हम यह ़फैसला नहीं कर सकते कि कोई मंत्री किसी मंत्रालय को संभालने के योग्य है अथवा नहीं. यह एक नई परिपाटी है. अगर हम कांग्रेस सरकार के मंत्रियों की सूची देखें, तो वहां भी शैक्षणिक रूप से कम योग्य मंत्री होंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके काम का प्रदर्शन भी ख़राब है. किसी ने भी ऐसा नहीं कहा है कि शिक्षा से कोई व्यक्ति बुद्धिमान बनता है. यह एक गलत प्रतिक्रिया है. वैसे लोग, जिन्हें हम अशिक्षित मानते हैं, उन्होंने इस सरकार को चुना है, तो इसका क्या मतलब निकाला जाए?
कांग्रेस पार्टी अभी सबसे अच्छा यही काम कर सकती है कि वह अपने 44 सांसदों को प्रशिक्षित करे. विभिन्न विषयों का फिर से अध्ययन करे और संसद में विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार पर हमले करे, बजाय सांसदों की डिग्री पर सवाल उठाने जैसे अगंभीर मसले उठाने के. अगर कांग्रेस एक गंभीर विपक्ष बनना चाहती है, तो उसे गंभीर काम भी करना होगा, गंभीर मुद्दे भी उठाने होंगे.
ख़ास तौर पर कांग्रेस पार्टी को ये सब बातें नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह एक राजनीतिक पार्टी है. मधु किश्वर जैसे ग़ैर राजनीतिक लोगों का बोलना अलग मसला है, लेकिन कांग्रेस पार्टी का इस तरह बोलना अच्छी बात नहीं है, क्योंकि जवाहर लाल नेहरू के बाद नेहरू-गांधी परिवार में कोई भी स्नातक से आगे की शिक्षा नहीं पा सका. हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि वे बुद्धिमान नहीं हैं अथवा वे देश को नहीं चला सकते.
मैं ऐसा नहीं कहता. इंदिरा गांधी ने देश अच्छी तरह चलाया. राजीव गांधी भी देश चला चुके हैं. यह बात कौन कहता है और कहां से यह तर्क आया है कि देश को चलाने के लिए अकादमिक होना ज़रूरी है और जो बहुमत के साथ चुनकर आया है, उसे देश चलाने के लिए अकादमिक लोगों की ज़रूरत है? क्या कल को आप यह भी कहेंगे कि शिक्षकों का एक समूह यह तय करे कि फलां आदमी प्रधानमंत्री बने. यह संविधान सम्मत नहीं है. कोई व्यक्ति चुनाव में खड़ा होता है, जीतता है और संविधान के तहत देश चलाता है, तो इसमें दिक्कत कहां है? इसी तरह प्रधान सचिव के रूप में नृपेंद्र मिश्रा के चयन का मसला है. मैं उन्हें तबसे जानता हूं, जब वह मुलायम सिंह के मुख्यमंत्री रहते हुए उनके प्रधान सचिव थे. वह एक बेहतरीन अधिकारी हैं. मैं आश्चर्यचकित हूं कि नरेंद्र मोदी के ध्यान में उनका नाम आया कैसे और रिटायरमेंट के बाद भी वह उन्हें अपने साथ ले आए. यह अच्छा संकेत है. नृपेंद्र मिश्रा पीएमओ को अच्छे सुझाव देंगे. मिश्रा ट्राई के चेयरमैन रह चुके हैं और इस तरह वह कोई नया पद नहीं ले सकते थे, लेकिन सरकार ने उनके लिए अध्यादेश के जरिये नियमों में बदलाव किए हैं. एक बार फिर कांग्रेस यह कहेगी कि ऐसी जल्दबाजी क्या थी, लेकिन प्रधान सचिव की नियुक्ति तीन महीने बाद नहीं हो सकती, जब संसद सत्र शुरू होता. यह जल्दबाजी ज़रूरी थी. प्रत्येक सरकार अपने मंत्रिमंडल और अपने अधिकारियों का चयन करती है. विपक्ष कैसे इस पर टिप्पणी कर सकता है और इससे हासिल क्या होगा? हां, अगर किसी के ख़िलाफ़ कोई आरोप हो, तो बात अलग है, लेकिन मिश्रा के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. मुझे लगता है कि चुनाव में हार के बाद कांग्रेस पार्टी हतोेत्साहित हो गई है, जो कि देश के लिए अच्छी बात नहीं है. देश को कांग्रेस की ज़रूरत है. मैं उनमें से नहीं हूं, जो नरेंद्र मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत की बात कहते हैं और उसका समर्थन करते हैं. यह मूर्खता भरा विचार है. हमें अमेरिका और इंग्लैंड की तरह दो मजबूत पार्टियां चाहिए. यह भाजपा और कांग्रेस हो सकती हैं. इसमें बुराई क्या है? चुनाव हमेशा होते हैं. एक जीतेगा, दूसरा हारेगा. लेकिन, चुनाव हारते ही आप जीरो हो जाते हैं या चुनाव जीतते ही आप तानाशाह या भगवान बन जाते हैं, यह अच्छी बात नहीं है. यह लोकतंत्र नहीं है. दोनों पक्षों को इस पर विचार करना होगा.
हाल में उधमपुर के भाजपा सांसद डॉ जितेंद्र सिंह ने एकदम से आर्टिकल 370 के बारे में बातचीत करनी शुरू कर दी, जिसकी वजह से सरकार को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी. ऐसे में रवि शंकर प्रसाद को सामने आकर यह कहना पड़ा कि उक्त सांसद महोदय सही नहीं बोल रहे हैं. एक बार फिर कहना चाहूंगा कि नरेंद्र मोदी को अपने लोगों पर नियंत्रण रखना चाहिए. आर्टिकल 370 को बिना संविधान संशोधन के नहीं बदला जा सकता है और इसके लिए आपको दो तिहाई सदस्यों की सहमति की आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन दोनों ही सदनों में अभी आपके पास ऐसा बहुमत नहीं है. इसलिए यह बहस बेकार है. अगर मान लिया जाए कि आपके पास यह बहुमत हो भी तो, आपको इसके प्रभावों के बारे में भी सोचना पड़ेगा. इस आर्टिकल को संविधान में उसी बात पर रखा गया था, जो उस समय सरकार और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह के बीच तय हुई थी. न उससे ज़्यादा, न उससे कम. कश्मीर का विलय उन्हीं शर्तों पर किया गया था. कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाए जाने से केवल एक बात होगी और वह यह कि पाकिस्तान का पक्ष कश्मीर में मजबूत होगा. अगर आप चाहते हैं कि कश्मीर में पाकिस्तान का पक्ष कमजोर हो, तो आपको आर्टिकल 370 को और ज़्यादा मजबूत करना होगा. जो प्रक्रिया 1953 के बाद रुक गई थी, उसे फिर से शुरू किया जाना चाहिए. कश्मीरी पहचान को मजबूत बनाए जाने के लिए आर्टिकल 370 का बहुत ही ज़्यादा मजबूत होना ज़रूरी है. मुझे समझ में नहीं आता कि क्यों लोगों में इस बात से हीनता का भाव आ जाता है कि कश्मीर की भिन्न पहचान नहीं होनी चाहिए. कश्मीर की पहचान अलग है. कश्मीर को देश का अविभाज्य अंग बताया जाना गलत है. वास्तव में देश का प्रत्येक प्रदेश विभाज्य है, लेकिन कश्मीर का मामला पूरी तरह अलग इसलिए है, क्योंकि इसकी उन परिस्थितियों का ध्यान रखना होगा, जिसमें इसका विलय किया गया था.
आप इतिहास को मिटा नहीं सकते. यह इतिहास का हिस्सा है. मैं टाइम्स नाउ के एक कार्यक्रम में देख रहा था कि शिवसेना के एक सांसद कह रहे थे कि अंबेडकर आर्टिकल 370 नहीं बनाना चाहते थे. आप इन सब बातों को भूल जाइए. यह सब आपके संविधान में है और यह देश का क़ानून है. यह क़ानून कैसे बनाया गया, यह महत्वपूर्ण नहीं है. वह देश की अखंडता की बात कर रहे थे. आख़िर कैसी अखंडता? इस तरह से काम नहीं होता. सवाल है कि उद्देश्य क्या है? अगर यह लक्ष्य है कि कश्मीर को अपनी शर्तों पर जबरदस्ती अपने साथ बनाए रखना है, तो फिर आप गलत ट्रैक पर हैं. ठीक बात है कि आप आर्टिकल 370 पर चर्चा करना चाहते हैं. चर्चा करिए, लेकिन आर्टिकल 370 पर चर्चा करते वक्त उसमें कश्मीर के लोगों को भी शामिल कीजिए. बिना कश्मीरी लोगों को साथ लिए आर्टिकल 370 पर चर्चा किया जाना गलत होगा. और, अगर आप अपने साथ कश्मीर नहीं चाहते हैं, तब तो कोई बात नहीं है. तब तो आप जो करना चाहते हैं, सब ठीक है. ऐसी सूरत में आप कुछ भी कर सकते हैं. अगर आप युद्ध लड़ना चाहते हैं, तो वे भी लड़ सकते हैं. झगड़ा करते रहिए. लेकिन, सवाल यह है कि अगर आपको लगता है कि युद्ध एक समाधान है, तब आप क्यों नवाज शरीफ के साथ चर्चा कर रहे हैं? चर्चा छोड़िए और एक युद्ध शुरू कर दीजिए.
मुझे लगता है कि यह कैबिनेट अभी नया है, थोड़े जोश में है, अनुभव की कमी है. अभी इसे बने दो-तीन सप्ताह ही हुए हैं. इसे कुछ और समय लेने दीजिए. लेकिन, इतना तय है कि इस कैबिनेट को नए सांसदों को निश्चित रूप से नियंत्रण में रखने के लिए परिपक्व सलाह की ज़रूरत है. अगर आप अभी से ही इस तरह की बातें करना शुरू कर देते हैं, तो इससे कुछ हासिल नहीं होने वाला. यह भारत की अखंडता को चोट ही पहुंचाएगा. और, कांग्रेस पार्टी अभी सबसे अच्छा यही काम कर सकती है कि वह अपने 44 सांसदों को प्रशिक्षित करे. विभिन्न विषयों का फिर से अध्ययन करे और संसद में विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार पर हमले करे, बजाय सांसदों की डिग्री पर सवाल उठाने जैसे अगंभीर मसले उठाने के. अगर कांग्रेस एक गंभीर विपक्ष बनना चाहती है, तो उसे गंभीर काम भी करना होगा, गंभीर मुद्दे भी उठाने होंगे. कांग्रेस एक गंभीर पार्टी है. एक बहुत पुरानी पार्टी है. कांग्रेस खेल को जानती है. वह सत्ता और विपक्ष में भी रह चुकी है. उसे पता है कि सरकार में काम कैसे होता है. निश्चित रूप से उसे हतोत्साहित होने की ज़रूरत नहीं है. हतोत्साहित होने से उसे कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है.
हाल में उधमपुर के भाजपा सांसद डॉ जितेंद्र सिंह ने एकदम से आर्टिकल 370 के बारे में बातचीत करनी शुरू कर दी, जिसकी वजह से सरकार को काफी शर्मिंदगी उठानी पड़ी. ऐसे में रवि शंकर प्रसाद को सामने आकर यह कहना पड़ा कि उक्त सांसद महोदय सही नहीं बोल रहे हैं. एक बार फिर कहना चाहूंगा कि नरेंद्र मोदी को अपने लोगों पर नियंत्रण रखना चाहिए. आर्टिकल 370 को बिना संविधान संशोधन के नहीं बदला जा सकता है और इसके लिए आपको दो तिहाई सदस्यों की सहमति की आवश्यकता पड़ेगी, आपके पास ऐसा बहुमत नहीं है.
कांग्रेस के अलावा, दुर्भाग्य से वाम दलों की उपस्थिति इस संसद में नगण्य रह गई है. हालांकि, वाम दलों के बारे में एक अच्छी बात यह है कि उनकी संख्या 5 भी क्यों न हो, वे अपनी नीति, अपनी बातों से नहीं हटते. वे अपनी लाइन के साथ खड़े रहते हैं. यह अच्छी बात है. दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों को चाहिए कि वे इन्हें अपने विचारों का निर्माण और उसे व्यक्त करने के लिए पर्याप्त मा़ैका दें. दुर्भाग्य से संसद के दोनों सदनों में पार्टी की ताकत के अनुसार उन्हें भाषण का समय दिया जाता है, लेकिन हमारे यहां कई ऐसी पार्टियां हैं, जिनके पास एक या दो सदस्य हैं. उन्हें भी अपनी बात रखने के लिए ज़रूर मौक़ा मिलना चाहिए. इन पार्टियों की ज़रूरत क्या है, मुझे नहीं पता. वे सरकार का समर्थन कर सकती हैं, सरकार का विरोध कर सकती हैं.
लेकिन, संसद एक मैट्रिक्स की तरह है. यानी यहां आने वाले हर एक दल का अपना महत्व है. हर एक के विचारों का सामने आना ज़रूरी है. जवाहर लाल नेहरू हमेशा संसद में अधिक से अधिक समय तक बैठे रहते थे. लोग उनसे पूछते थे कि आप इतने अधिक समय तक यहां क्यों बैठे रहते हैं, तो उनका जवाब होता था कि यहां पर सांसदों की बातें सुनकर मैं देश की दशा को समझता हूं. यह था संसद के प्रति उनका सम्मान. उनके लिए संसद देश को समझने में मदद करने का एक मंच था. अब दुर्भाग्य से हम लोग संसद में ऐसे लोगों को कम देख पा रहे हैं. संसद का समय घट रहा है. सत्र का समय कम हो गया है. बहस के घंटों की संख्या कम होती जा रही है. सिर्फ शोर-शराबे का माहौल बच गया है. सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों मिलकर शोर-शराबे में अपना समय बर्बाद करते हैं. इससे कुछ हासिल नहीं होता. मैं उम्मीद करता हूं कि अब ये सारी अतीत की बातें होंगी. मैं एक नई शुरुआत की उम्मीद करता हूं. सरकार अगर अपने तरीके से काम करना चाहती है, तो उसे विपक्ष को भी अपनी बात कहने का मौक़ा देना होगा. अगर ऐसा नहीं होता है, तो फिर विपक्ष सरकार को अपने तरीके से काम नहीं करने देगी. लेेकिन, मैं आशा करता हूं कि अब यह सब नहीं होगा. संसद में लोग काम करने के लिए आते हैं. अगर संसद में काम नहीं होगा, तो इससे हम संसद की विश्वसनीयता को ही कमजोर करने का काम करेंगे. आज ज़रूरी है कि एक उचित संसदीय प्रक्रिया सामने निकल कर आए. इसके लिए होना यह चाहिए कि सरकार सभी पार्टियों के नेताओं की एक बैठक बुलाए और संसद ठीक से अपने समय का उपयोग कर सके, ठीक से काम करे, इसके लिए रास्ता तलाशना चाहिए. आख़िरकार संसद की कार्यवाही पर जनता का ही तो इतना पैसा खर्च होता है. उन पैसों का इस्तेमाल सही तरीके से हो, इसके लिए रास्ता तो निकालना ही पड़ेगा.
टकराव के मुद्दे हो सकते हैं. ठीक है. अगर कोई इस तरह का बिल आता है, तो उसके लिए संसद की स्थायी समिति है, जहां सभी दलों के लोग होते हैं. वे सभी बिल देखते हैं, अपने सुझाव देते हैं और अपना विरोध दर्ज कराते हैं. मैं यह नहीं कह सकता कि प्रेस की स्वतंत्रता को अवरुद्ध किया जाएया. यह भी नहीं कह सकता कि आज प्रेस काफी स्वतंत्र है. जिस तरीके से टीवी चैनल ख़बरें दिखा रहे हैं, उससे कोई भी आदमी इसकी सच्चाई को समझ सकता है. मैंने कई चैनलों को नवाज शरीफ को कवरेज देते देखा, लेेकिन मेरा मानना है कि आप टीवी चैनलों पर विदेश और सुरक्षा के मुद्दों पर चर्चा नहीं कर सकते हैं. आप टीवी चैनलों के मंच पर भारत-पाक की बातचीत का संचालन नहीं कर सकते हैं. यह एक बहुत ही दु:ख की बात है.
कुछ ऐसा किया जाना चाहिए कि सरकार, विपक्ष, संसद, प्रेस सब मिलकर देश की तरक्की में सकारात्मक योगदान दें. आप सहमत या असहमत हो सकते हैं. यही लोकतंत्र की खूबसूरती भी है. आप असहमत हैं, लेकिन एक उचित तरीके से असहमत होना चाहिए. आप विनम्र भाषा में बात कर सकते हैं. यहां मैं देखता हूं कि जिस तरीके से असहमति जताई जाती है, उससे रोशनी कम निकलती है और गर्माहट ज़्यादा पैदा होती है. मैं उम्मीद करता हूं कि सारे विपक्षी लोग इस बात से हतोत्साहित होने की बजाय कि भाजपा को एक बड़ा बहुमत मिला है, गंभीरता से अपनी ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार हो जाएंगे. मैं याद दिलाने के लिए बताना चाहूंगा कि 1952, 1957, 1962 में कांग्रेस हमेशा 300, 350 से अधिक सांसदों के साथ आती थी, लेकिन विपक्ष कभी हतोत्साहित नहीं हुआ. सोशलिस्ट पार्टी के 5-6 सांसदों ने हमेशा अपने विषय उठाए, सरकार की जायज आलोचना की. सीपीआई ने हमेशा अपने मुद्दे उठाए. आज हतोत्साहित होने की वजह क्या है? मुझे नहीं मालूम. मैं देख रहा हूं कि अचानक आप धैर्य खो रहे हैं और अप्रासंगिक मुद्दों को उठा रहे हैं. याद रखना चाहिए कि किसी मामले में बहस से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उत्साह का बने रहना.