भारत के आदिवासियों की जनसंख्या का अनुपात सिर्फ साडेआठ से नौ प्रतिशत है ! लेकिन किसी भी परियोजना में विस्थापित की जनसंख्या में पचहत्तर प्रतिशत सबसे ज्यादा आदिवासियों का शुमार है !
और संपूर्ण विश्व के मुल निवासियों के साथ आक्रामक कौमो का व्यवहार ऐसा ही रहा है ! विकास के नाम पर पाचसौ साल पहले अमेरिका में घुसकर गोरो ने लाखों रेड इंडियन लोगों को मार कर ही अपनी सत्ता को कायम किया है ! और इसीलिये मैं लेख के अंत में 1855 को सिएटल चिफ ने अमेरिका के राष्ट्रपति को लिखे पत्र को दे रहा हूँ !


आज 13 दिसंबर २०२१ के दिन स्थानीय संथाली लोगों मेसे कुछ क्रियाशील लोगों के आग्रह के कारण वह मुझे शांतिनिकेतन आकर लेकर गए ! और सबेरे ग्यारह बजे से दोपहर के तीन बजे तक मैं इस क्षेत्र में था ! कुल साढ़े तीन हजार एकड के जमिन पर पहले से ही पथ्थरोकी खदानों के खोदे हुए विशाल खाईया बनी हुई है ! और बगल में सपाट जमीन के उपर पथ्थरोसे गिट्टियों के विभिन्न आकार और पावडर बनाने के ढाई हजार से अधिक मशीने लगातार चल रहे हैं ! और उनसे निकला हुआ माल की ढुलाई के लिए हजारों हेवी ट्रकों से उस क्षेत्र के रास्ते भरे हुए होने के कारण, सभी रास्ते गढ्ढे होने के कारण उखड चुके हैं ! और चारों ओर पथ्थरोकी मशीन और ट्रकोकी हलचल के कारण, धुल का कोहरे के कारण सामने का वाहन को देख पाने में मुश्किल हो रही थी ! हम जिस वाहन से गए थे वह चार घंटे के भीतर धुल से ढक गया था ! दो बार हम लोगों को गाडी के सामने वाले काच की सफाई करने के लिए गाड़ी रोक कर कांच की धुल साफ करनी पड़ी !


यह है बिरभूम जिले का उत्तर – दक्षिणी दिशा का आखिरी ब्लॉक मोहम्मद बजार, शांतिनिकेतन से सिर्फ सत्तर किलोमीटर दूर ! देवछा, पाचामी, हरिनसिंघा, पाथरचल, देवानगंज, केनपहाडी जैसे 20-25 गांव बहुतायत संथाल, मुस्लिम, दलित तथा अन्य जातियों के लोग कुल 20-25 हजार की, जनसंख्या ! सत्तर साल पुरानी पथ्थरोकी खदानों का इलाका ! बारह महीनों चौबीस घंटे पथ्थरोके ढाई हजार से ज्यादा स्टोन प्रोसेसिंग उद्योग के कारण प्रदुषित हवा को अपने श्वासो-उछश्वास द्वारा फेफड़ों में ले रहे हैं ! मुझे नही लगता कि कोई भी व्यक्ति चालीस से पचास साल की उम्र तक जी पाता होगा !


क्योंकि पथ्थरोके पावडर के कणों से हर एक के फेफड़े में की कोशिकाओं में जाली जैसे छेदों के कारण वह एक भयानक बिमारी, सिलोकोसिस के शिकार हो रहे हैं ! और उनके आयुष्मान में कमी होकर मरने वालों की संख्या बहुत ज्यादा होगी ! जिसमें उनके गाये, बकरी, कुत्ते, बिल्लियों से लेकर सुअर तथा अन्य जीवों के साथ भी यही होता होगा ! और अब पथ्थरोके निचले स्तर पर कोयला होने की संभावना है ! जो थर्मल पाॅवर के लिए निकाला जायेगा ! तो सभी गांवों के लोगों को विस्थापित होने की संभावना है ! हालांकि अभी कुछ दिन पहले ही पेरिस डिक्लेरेशन में थर्मल पाॅवर की जगह सोलर पावर की बात हुई है ! और भारत ने आदिवासी अधिकारों के संबंध में किए गए दस्तावेज पर हस्ताक्षर नही किया है ! और वहाँ से लौटने के बाद भोपाल के हबीबगंज स्टेशन के नाम को बदलकर आदिवासी रानी का नाम देना आदिवासियों के आखों में धुल झोंकना है !
देश के अधिकांश क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में सूर्य की उपलब्धता होने के बावजूद, भारत थर्मल से बिजली उत्पादन क्यों करने जा रहा है ? वर्तमान सरकार की पर्यावरण संरक्षण के बारे में असंवेदनशीलता को देखते हुए , गंभीर चिंता का विषय है ! और उसी तरह से आदिवासियों के लिए संवैधानिक अधिकार, पांचवीं और छठी अनुसुची को नहीं मानते हैं ! ऐसे व्यक्तव्य देखा है ! क्योंकि तथाकथित विकास के लिए आदिवासी तथा उनके जल, जंगल और जमीन पर कब्जा करने का निर्णय लिया गया है ! और उनके रानी के नाम से किसी रेलवे स्टेशन करने की भावना से, सरकारों को लगता है कि वह उनके साथ कुछ भी कर सकते हैं !
विश्व के सभी विकास के लिए चढते बली आदिवासी समुदाय और दलित और अन्य वंचित समुदाय के साथ विस्थापन से लेकर प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं !


जो मैंने आज शांतिनिकेतन से सौ किलोमीटर के दायरे में देखा है ! और शांतिनिकेतन में रोज शेकडो की संख्या में लोग सैर-सपाटा करने के लिए आ रहे हैं ! तथाकथित सभ्य समाज के लोग कहते हैं कि, विकास के लिये इतना तो सहना ही पड़ता है ! लेकिन वह सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले आदिवासी ही ज्यादा होते है !
हम अपना सुरक्षित जीवन जीते हैं ! और विकास के लिये इतनी किमत किसी न किसी को चुकाने की बात करते हैं ! और विस्थापन के शिकार लोगों की आज क्या हालत है ? इस संबंध में कोई सोचना भी नहीं चाहते हैं ! विकास कीसको बली देकर ? और किस किमत पर ? एक तरफ हमारे संविधान में आर्टिकल 21,26 के अंतर्गत इस देश के हर नागरिक को जीवन जीने के हक दिए हुए हैं ! और पांचवीं और छठी सूची बना कर हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने आदिवासियों के लिए विशेष प्रावधान किया हुआ है ! लेकिन आजादी बाद आई हुई किसी भी सरकारों ने उसकी परवाह नहीं की और वर्तमान सरकार के तरफसे बार – बार कहा जा रहा है कि पांचवीं और छठी अनुसुची संविधान के खिलाफ है जिसे हम बदलाव करेंगे !


राही मासुम रजा साहब ने आधा गाँव नाम का उपन्यास लिखा है ! हालांकि उपन्यास का मध्य बिंदु बटवारे के समय के मुस्लिम परिवार की मनोदशा को लेकर है ! बहुत ही सुंदर लिखा है ! और मेरे हिसाब से यह हर विस्थापन के शिकार हो रहे लोगों को भी लागू होता है !
और मेरे हिसाब से आदि – वासी हजारों सालों से जंगल में रहने वाले लोगों को इस तरह के विस्थापन के शिकार होने के कारण उसके जीवन में कितना उथल-पुथल होता होगा ! क्योकि हजारों वर्ष पुराने समय से, जंगल में रह रहे समाज के लोगों को अचानक किसी परियोजना के कारण, अपने जीवन में एक जगह से दूसरी जगह जाने की बात ! एक पुराने वृक्ष को जड़ से उखाडकर किसी दूसरे जगह पर लगाया गया तो वह जीवित रहने की संभावना नहीं है ! और दस करोड़ से भी ज्यादा जनसंख्या के साथ तथाकथित विकास के नाम पर कितना बड़ा अन्याय लगातार जारी है ! आज विश्वप्रसिद्ध शांतिनिकेतन के पडोस में यह सब अन्याय हो रहा है ! हालांकि यह आदिवासी बहुल जिला होने के बावजूद भी कोई विशेष विरोध होता हुआ नहीं दिखाई देता है ! सिर्फ मुआवजे की बात हो रही है ! लेकिन मुआवजा कितने लोगों को मिलेगा ? क्योंकि रोख रकम का इस्तेमाल करने की आदत आदिवासियों को नही होती है ! और पुनर्वास किनका और कितने लोगों का करेंगे ? क्योंकि आदिवासियों के पास प्रमाण पत्र होने की संभावना नहीं है ! तो सरकारी कार्य में कागज पर काम होता है और आदिवासियों पास कागज रखने की संभावना नहीं है ! तो सचमुच कितने लोग मुआवजा और पुनर्वास के लिए हकदार होंगे ? अमेरिका के सिएटल चिफ का 1885 का पत्र अंत में देकर इस लेख को समाप्त करता हूँ

 

सिएटल चिफ का 1885 का पत्र

चीफ सियाटल (1786-1866) अमेरिका के मूल निवासियों के नेता थे. वाशिंगटन राज्य में सियाटल शहर का नामकरण उन्हीं के ऊपर किया गया है. अपनी जमीन से अधिकार छोड़ने के मुद्दे पर उन्होंने 11 मार्च, 1854 को सियाटल में अपने लोगों के सामने यह उल्लेखनीय भाषण दिया था:

“भाइयों, वाशिंगटन से राष्ट्रपति ने यह कहलवाया है कि वह हमारी जमीन खरीदना चाहते हैं. लेकिन कोई जमीन को या आकाश को कैसे खरीद सकता है? मुझे यह बात समझ नहीं आती.

जब हवा की ताजगी पर और पानी के जोश पर तुम्हारा मालिकाना नहीं है तो तुम उसे कैसे खरीद और बेच सकते हो? इस धरती का हर एक टुकड़ा मेरे लोगों के लिए पवित्र है. चीड़ की हर चमकती पत्ती, हर रेतीला किनारा, घने जंगलों का कुहासा, हर मैदान, हर भुनभुनाता कीड़ा – ये सभी मेरे लोगों की स्मृति और अनुभवों में रचे-बसे हैं और पवित्र हैं.

इन पेड़ों के तनों में बहने वाले अर्क को हम उतना ही बेहतर जानते हैं जितना हम अपनी शिराओं में बहने वाले रक्त से परिचित हैं. हम इस धरती के अंश हैं और यह भी हमारा एक भाग है. महकते फूल हमारी बहनें हैं. भालू, हिरन, और गरुड़, ये सभी हमारे भाई हैं.

पथरीली चोटियाँ, चारागाहों की चमक, खच्चरों की गरमाहट, और हम सब, एक ही परिवार के सदस्य हैं. इन झरनों और नदियों में बहनेवाला चमकदार पानी सिर्फ पानी ही नहीं है बल्कि हमारे पूर्वजों का लहू है. यदि हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो तुम यह कभी नहीं भूलना कि यह हमारे लिए कितनी पावन है. इन झीलों के मंथर जल में झलकने वाली परछाइयां हमारे लोगों की ज़िंदगी के किस्से बयान करतीं हैं. बहते हुए पानी का कलरव मेरे पिता और उनके भी पिता का स्वर है.

नदियाँ हमारी बहनें हैं. उनके पानी से हम प्यास बुझाते हैं. वे हमारी नौकाओं को दूर तक ले जातीं हैं और हमारे बच्चों को मछलियाँ देतीं हैं. इसके बदले तुम्हें नदियों को उतनी ही इज्ज़त बख्शनी होगी जितनी तुम अपने बहनों का सम्मान करते हो.

यदि हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो यह न भूलना कि हमारे लिए इसकी हवा अनमोल है. इस हवा में यहाँ पनपने वाले हर जीव की आत्मा की सुगंध है. हमारे परदादाओं के जीवन की पहली और अंतिम सांस इसी हवा में कहीं घुली हुई है. हमारे बच्चे भी इसी हवा में सांस लेकर बढ़े हैं. इसलिए, अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो इसे तुम अपने लिए भी उतना ही पवित्र जानना.

इस हवा में मैदानों में उगनेवाले फूलों की मिठास है. क्या तुम अपने बच्चों को यह नहीं सिखाओगे, जैसा हमने अपने बच्चों को सिखाया है कि यह धरती हम सबकी माता है!? इस धरती पर जो कुछ भी गुज़रता है वह हम सबको साथ में ही भोगना पड़ता है.

हम तो बस इतना ही जानते हैं कि हम इस धरती के मालिक नहीं हैं, यह हमें विरासत में मिली है. सब कुछ एक-दूसरे में उतना ही घुला-मिला है जैसे हमें आपस में जोड़ने वाला रक्त. यह जीव-जगत हमारा बनाया नहीं है, हम तो इस विराट थान के एक छोटे से तंतु हैं. यदि इस थान का बिगाड़ होगा तो हम भी नहीं बचेंगे.
और हम यह भी जानते हैं कि हमारा ईश्वर तुम्हारा भी ईश्वर है. यह धरती ईश्वर को परमप्रिय है और इसका तिरस्कार उसके क्रोध को भड़कायेगा.

तुम जिसे नियति कहते हो वह हमारी समझ से परे है. तब क्या होगा जब सारे चौपाये जिबह किये जा चुके होंगे? और जब साधने के लिए कोई जंगली घोड़े नहीं बचेंगे? और तब क्या होगा जब जंगलों के रहस्यमयी कोनों में असंख्य आदमियों की गंध फ़ैल जायेगी और उपजाऊ टीले तुम्हारे बोलनेवाले तारों से बिंध जायेंगे? तब झुरमुट कहाँ बचेंगे? गरुड़ कहाँ बसेंगे? सब ख़त्म हो जाएगा. चपल टट्टुओं पर बैठकर शिकार पर निकल चलने का क्या होगा? यह वह वक़्त होगा जब जीवन ख़त्म होने के कगार पर होगा और ज़िंदगी कायम रखने की जद्दोजहद शुरू हो जायेगी.

इस वीराने से आख़िरी लाल निवासियों के चले जाने के बाद जब प्रेयरी से गुज़रनेवाले बादलों की परछाईं ही उन्हें याद करेगी. क्या तब भी यह सागरतट और अरण्य बचे रहेंगे? क्या यहाँ से हमारे चले जाने के बाद भी हमारी आत्मा यहाँ बसी रहेगीं?

हम इस धरती से उतना ही प्यार करते हैं जितना एक नवजात अपने माता की छाती से करता है. तो, अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेच दें तो इसे उतना ही प्यार करना. हम इसकी बहुत परवाह करते हैं, तुम भी करना. इसे ग्रहण करते समय इस धरती की स्मृति को भी अपना लेना. इसे अपनी संततियों के लिए संरक्षित रखना, जैसे ईश्वर ने हमें हमेशा संभाला है.

जिस तरह हम इस धरती के अंश हैं, तुम भी इसके अंश हो. यह हमारे लिए अनमोल है और तुम्हारे लिए भी.
हम तो बस इतना ही जानते हैं – कि हम सबका एक ही ईश्वर है. न तो कोई लाल आदमी है और न ही कोई गोरा, कोई भी किसी से अलग नहीं है. हम सब भाई हैं.”

 

डॉ सुरेश खैरनार, शांतीनिकेतन 14,दिसंबर २०२१

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