21 मार्च को जिस दिन यह फैसला आने वाला था, दैनिक इंक़लाब को छोड़ कर दिल्ली के किसी भी बड़े उर्दू अख़बार ने अपने पाठकों को यह बताने की ज़हमत नहीं की कि एक लम्बे इंतज़ार के बाद मुसलमानों से जुड़े एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुकदमे का फैसला आने वाला है. इंक़लाब ने इस खबर को हाशिमपुरा नरसंहार पर ऐतिहासिक फैसला आज के शीर्षक के साथ यह खबर छापी थी, लेकिन यह अख़बार भी इस मामले को कितनी अहमियत दे रहा था, इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि इस खबर को अख़बार के दूसरे पन्ने पर जगह मिली.
साल 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले के 42 लोगों की पीएसी द्वारा गोली मार कर हत्या या नरसंहार पर दिल्ली की तीस हजारी सत्र न्यायालय में चल रहे मुक़दमे का फैसला आ गया है. जानना जरूरी है कि मुसलमानों की आवाज़ होने का दावा करने वाले उर्दू अख़बारों ने फैसले को कैसे देखा? उर्दू अखबारों ने अपने पाठकों को इस मुद्दे पर कितनी जानकारी दी? फैसला आने से पहले दिन या फैसले के दिन क्या उर्दू अख़बारों ने इस मुकदमे पर कोई रिपोर्ट प्रकाशित की? यदि प्रकाशित की तो अख़बार में कहां और कितनी जगह मिली?
अदालत का फैसला आने के बाद रोजनाम राष्ट्रीय सहारा, इंक़लाब, सहाफत, हिंदुस्तान एक्सप्रेस, हैदराबाद से छपने वाले अख़बार मुसिफ और सियासत समेत देश के तकरीबन सभी छोटे-बड़े उर्दू अख़बारों ने सम्पादकीय और रिपोर्टें प्रकाशित की हैं. रोजनाम राष्ट्रीय सहारा अपने सम्पादकीय में लिखता है कि जिस तरह इस मामले में आदालत ने कसूरवारों को बरी किया, उससे अफ़सोस तो ज़रूर है, लेकिन इस फैसले से बहुत ज़्यादा हैरानी नहीं है. अख़बार यह कहता है कि पिछले दंगों में हजारों लोग मरे गए हैं, लेकिन शायद ही किसी दोषी को सजा मिली है. आखिर में मुस्लिम नेतृत्व और संगठनों पर सवाल उठाए गए हैं. इंक़लाब ने भी अपने सम्पादकीय में फैसले पर अफ़सोस जताया है और सरकारी जांच एजेंसियों की सख्त आलोचना की गई है.
सम्पादकीय में यह भी कहा गया है कि कानून के रखवालों ने कानून की आंख में धुल झोंकने के लिए जानबुझ कर साक्ष्य नहीं पेश किए. रोजनामा सहाफत ने भी लगभग वही बातें कहीं हैं, जो दूसरी अख़बारों में कही गईं हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो देश सभी अख़बारों ने लगभग इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं.
21 मार्च को जिस दिन यह फैसला आने वाला था, दैनिक इंक़लाब को छोड़ कर दिल्ली के किसी भी बड़े उर्दू अख़बार ने अपने पाठकों को यह बताने की ज़हमत नहीं की कि एक लम्बे इंतज़ार के बाद मुसलमानों से जुड़े एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुकदमे का फैसला आने वाला है. इंक़लाब ने इस खबर को हाशिमपुरा नरसंहार पर ऐतिहासिक फैसला आज के शीर्षक के साथ यह खबर छापी थी, लेकिन यह अख़बार भी इस मामले को कितनी अहमियत दे रहा था, इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि इस खबर को अख़बार के दूसरे पन्नेे पर जगह मिली. बहरहाल, फैसला आने के बाद देश के तकरीबन हर छोटे-बड़े उर्दू अख़बार ने अदालत के फैसले पर रिपोर्टें प्रकाशित कीं. इन रिपोर्टों में अदालत के फैसले के साथ-साथ इस वारदात, पुलिस जांच, मुक़दमे की कार्रवाई और फैसला आने के बाद की रणनीति पर रिपोर्टें शामिल थीं, लेकिन सबसे हैरानी की बात यह है कि कुछ ऐसे भी अख़बार थे, जिन्होंने अदालत का फैसला आने के दूसरे दिन भी कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की. उनकी नींद उस समय खुली, जब कई टीवी न्यूज़ चैनलों ने इस फैसले पर परिचर्चा प्रसारित की. मिसाल के तौर पर लखनऊ, दिल्ली और मुंबई से प्रकाशित होने वाला अख़बार सहाफत दैनिक है, जिसकी नींद फैसला आने के तीसरे दिन खुली. अब सवाल यह उठता है कि इसे क्या माना जाए? क्या ये अखबार किसी के दबाव में काम करते हैं या उन्हें इतनी बड़ी खबर की जानकारी ही नहीं थी? कुल मिलाकर देखा जाए तो उर्दू अख़बारों ने आदालत के फैसले के बाद ही इसकी रिपोर्टिंग की, वो भी आधे-अधूरे मन से.