nayakबिहार में विधानसभा चुनावों की दुदुंभी बज गई है और सेनाएं रणभूमि में उतरने को बेताब हैं. हालांकि अभी यह साफ नहीं हुआ है कि आसन्न चुनावी संघर्ष का स्वरूप क्या होगा- राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन के सामने एकीकृत जनता परिवार या बिहार में उनके घटक जद (यू) और राष्ट्रीय जनता दल गठबंधन का उम्मीदवार होगा अथवा हर क्षेत्र में कम से कम तीन प्रत्याशी होंगे, पर अभी से इतना तो तय लगता है कि हाल-फिलहाल तक गैर भाजपा चुनावी रणनीति को आकार देनेवाले कुछ राजनीतिक चेहरे के जिम्मे कोई काम नहीं होगा. ये दशकों से बिहार की राजनीति में अपनी बौद्धिक छटा बिखेरनेवाले ऐसे नेताओं की भूमिका बनाने के जरिये राजनीति को सलाह-मशविरा देने तक सिमट कर रह जाएगी. इतना ही नहीं, सत्ता राजनीति की रणनीति को धार देने में अपनी भूमिका दिखानेवाले कुछ राजनीतिक परिंदों की भूमिका भी बदली रहेगी.
प्रखर सामजवादी और अपनी गैर भाजपाई राजनीति के लिए विख्यात शिवानंद तिवारी की आसन्न विधानसभा चुनावों में कोई विशिष्ट दलीय भूमिका नहीं रहेगी, ऐसा लगभग तय है. यह विडम्बना ही है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को उनके आरंभिक दौर में राजनीति का गुर देनेवाले शिवानंद तिवारी को अब इन दोनों में कोई अपने साथ नहीं रखना चाहते हैं. राज्यसभा की दूसरी बार (2014) उम्मीदवारी न मिलने से नाराज तिवारी जी की पिछले संसदीय चुनाव में भी कोई खास भूमिका नहीं रह गई थी. अपनी भाजपा विरोधी राजनीति के अनुसार काम करने का उस चुनाव में भी उन्होंने काफी प्रयास किया था, लेकिन सफलता नहीं मिली. जद (यू) के अघोषित सुप्रीमो नीतीश कुमार ने चुनाव से काफी पहले ही उन्हें अपने से अलग मान लिया और फिर साथ लाने की जरूरत नहीं समझी. बार-बार इधर-उधर के कारण राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद का उन पर भरोसा नहीं रहा. हालांकि तिवारी जी ने अपने तरफ से काफी कोशिश की थी, पर नतीज़ा वही ढाक के तीन पात रहा. फिर भी वह कुछ न कुछ करते ही रहे. सत्तर साल से अधिक उम्र के तिवारी जी अब किस राजनीतिक ध्रुव की तलाश करें- कहां जाएं. हालांकि मांझी-नीतीश विवाद में वह खुल कर जीतनराम मांझी के पक्ष में रहे. उनके पक्ष में विधायकों के नाम खुली चिट्ठी भी लिखी. इतना ही नहीं, मांझी के कुछ कार्यक्रमों में भाग भी लिया, लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला. अब वह मांझी के हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के आयोजनों में शामिल नहीं होते हैं. एक बौद्धिक हैं प्रेम कुमार मणि. कभी नीतीश कुमार के अति प्रिय लोंगों की सूची में उनका नाम था. श्री शिवानंद तिवारी के जद (यू) में शामिल होने पर उन्होंने लेख लिख कर नीतीश कुमार को शिवानंद तिवारी से सावधान रहने की सलाह भी दी थी. यह वाकया आठ- नौ साल पुराना है, लेकिन उनसे जद (यू) सुप्रीमो ने उससे पहले ही दूरी बना ली थी और अंत में दल विरोधी गतिविधियों के कारण उनकी विधान परिषद की सदस्याता भी समाप्त हो गई. वह राजद से तत्कालीन समता पार्टी में गए थे, लालू प्रसाद को खूब
भला-बुरा कहा था. अब एक बार फिर लालू प्रसाद ने अपने दल में तो उन्हें शामिल कर लिया है, पर उनकी कोई राजनीतिक भूमिका तय नहीं की है.
ऐसे ही नामचीन लोगों में रंजन प्रसाद यादव भी हैं. वर्षों तक लालू प्रसाद के सबसे करीबी थिंक टैंक रंजन प्रसाद यादव के सितारे भी गर्दिश में हैं. लालू प्रसाद और बाद में राबड़ी देवी के राज के आरंभिक वर्षों में बिहार के विश्‍वविद्यालयी और स्कूली शिक्षा के भाग्यविधाता के तौर पर चर्चित रंजन प्रसाद यादव भी खुद को लालू-नीतीश का राजनीतिक गुरु मानते रहे हैं, पर अपनी शरद-भक्ति के कारण बिहार की राजनीति में उन्हें याद करनेवाले कुछ ही लोग बचे हैं. इस शताब्दी के शुरुआती वर्षों में ही लालू प्रसाद के कूचे में ही अपनी हैसियत से बेदखल कर दिए जाने के बाद रामविलास पासवान के साथ हो गए. फिर जद (यू) में आ गए और लोकसभा के सदस्य बने. पिछला चुनाव हारने के बाद उन्हें याद करने के लिए लोगों को जोर डालना पड़ता है. यह सही है कि बिहार में 1991 से लेकर बाद के कई चुनावों में उनका पौ बारह रहा, पर अब लोग उनकी दर की ओर रुख करने भी कतराने लगे हैं. राजनेता के बाद प्रखर साहित्यकार की खुद की पहचान बनानेवाले जाबिर हुसैन तो अब भी राजद के साथ मानते हैं, पर सवाल है कि राजद सुप्रीमो ऐसा मानते हैं या नहीं. राजद सुप्रीमो बहुतों की नोटिस नहीं लेते, शायद जाबिर साहब भी उन्हीं लोगों में हैं. जाबिर साहब विधान परिषद के अध्यक्ष रहे, राजद के नेता रहे, सांसद रहे, पर हाल के वर्षों में उनकी दलीय निष्टा के बारे राजद के लोग भी भरोसे के साथ कुछ नहीं कह सकते. श्री हुसैन मधुरभाषी और मितभाषी हैं, लेकिन हाल के वर्षों में अखबारनवीसों से दूर रहने लगे हैं. इसलिए राज-पाट और राजनीति से ज़ुडी खबरों में बहुधा दिखते नहीं हैं. बिहार के राजनीतिक हलके में एक और नाम है पीके सिन्हा का. पीके सिन्हा गत कुछ वर्षों से भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चला रहे हैं. उनका यह अभियान मुख्यतः राजनीति में ढोंग और पाखंड के खिलाफ है और इसीलिए उन राजनेताओं को उन्होंने अपना निशाना बनाया है, जो खुद को राजनीतिक शुचिता और ईमानदारी के प्रतीक के तौर पर पेश कर रहे हैं. सिन्हा के निशाने पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सबसे ऊपर हैं. हालांकि समता पार्टी के उस दौर को भी बिहार ने देखा, जब नीतीश कुमार के सबसे प्रिय लोगों के तौर पर पीके सिन्हा को माना जाता था और फिर लोगों ने उस दौर को भी देखा, जब पीके सिन्हा के खिलाफ नीतीश भक्त नित नई रणनीति तैयार करते रहे थे. प्रशासनिक अधिकारी से सोशल एक्टीविस्ट, पत्रकार और राजनेता बने सिन्हा की बिहार के चुनावों में कभी बड़ी भूमिका रही थी, पर अब कोई भूमिका नहीं बची है. हालांकि अभियानों की मदद से चुनाव में अपनी भूमिका वह साबित करना चाहते हैं, पर अपनी इस भूमिका को वह किस हद तक जमीन पर उतार पाते हैं, यह देखना अभी बाकी है.
ये कुछ नाम हैं, जिनकी हाल-फिलहाल तक चुनावों में भूमिका रही. ऐसे लोगों की फेहरिस्त काफी लंबी है, जो अब चुनावी राजनीति में अपनी भूमिका तो चाहते हैं, पर जमीन नहीं मिल रही है. इनमें से अधिकांश राजनेता बिहार की राजनीति में दशकों से सक्रिय रहे हैं-पांच दशक से. उन्होंने सक्रियता से अपनी पहचान बनाई है, पर अब राजनीति के रंग-ढंग बदल गए हैं. कुछ लोगों को छोड़ दें तो अधिकांश लोग उस दौर की राजनीति की उपज हैं, जब राजनीति में धन की वक़त उतनी ही थी, जितनी इसकी जरूरत समझी जाती थी. उन दिनों राजनीति में संघर्ष और कार्यक्रम का जोर हुआ करता था. जन संघर्ष और कार्यक्रम जन-गोलबंदी के आधार होते थे, धन नहीं. उस दौर में राजनीति सामुहिकता की उपज हुआ करती थी, सुप्रीमो का उदय नहीं हुआ था. मौजूदा दौर में हालात पूरे बदल गए हैं. राजनीति धन केन्द्रित हो गई है और सुप्रीमो-संस्कृति से यह ओत-प्रोत है. अब नेतृत्व के विचार से असहमति का अर्थ दल का विरोध है. ऐसे में दलों में नेता एक ही होता है और नेता (सुप्रीमो) कहे दिन तो दिन, नेता कहे रात तो रात. इसलिए हर पार्टी में सुप्रीमो के बाद की कुर्सी बड़ी महत्वूर्ण हो गई है और नेता जी को छोड़ कर बाकी लड़ाई इसी दो नम्बर की कुर्सी की हो गई है. ऐसे में किसी गैर सुप्रीमो की राजनीतिक भूमिका इस पर निर्भर है कि उसकी कुर्सी किस नम्बर पर है. कुर्सी का स्थान परिवर्त्तन किसी नेता की राजनीतिक वक़त का पैमाना हो गया है और इसी से किसी की भूमिका भी तय होती-वह चुनाव ही क्यों न हो. इसलिए जब स्थान ही नहीं रहा, तो भूमिका क्या रहेगी. पहले नगरी मिले, फिर तो कोई राजा बनेगा. राजनीति में अब दास-भाव का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. राजनीति में इस बढ़ते दास-भाव को एक घटना बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करती है. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद पूर्वी चम्पारण जिले के कल्याणपुर विधानसभा क्षेत्र के एक गांव (जसोली जमुनिया) में एक पूर्व विधायक की प्रतिमा का अनावरण करने पहुंचे थे. अनावृत प्रतिमा पर माल्यार्पण और सभा मंच से उतरने के बाद जूते पहनने के लिए उन्हें कसरत करनी पड़ती. यह उनके लिए परेशानी का सबब था. परेशानी की बात उनके मुंह से निकलते ही एक पूर्व विधान पार्षद समेत कई नेता उनके पांव पर झुक गए-जूते पहनाने में बाज़ी मार लेने की होड़ मच गई. यह जानना जरूरी नहीं है कि जूते पहनाने का सौभाग्य अंततः किसे मिला. यह जानकारी देना मेरा अभिष्ठ भी नहीं है. मैं तो केवल यह इंगित करना चाहता हूं कि गरीबों-पिछड़ों की राजनीति के नायक किस हद तक सामंत हो गए हैं और इस सामंती आचरण के सार्वजनिक प्रदर्शन में उन्हें कोई संकोच भी नहीं होता. ऐसे में सुप्रीमो से अलग राजनीति और समाजिक मुद्दों पर अपनी निजी राय रखनेवालों की क्या वक़त होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है.

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