tribals karmaदेश भले ही 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ हो लेकिन उत्तर प्रदेश के आदिवासियों को 4 जनवरी 2017 को आजादी मिली, जब चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश समेत देश के पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा की. आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब जनजातीय बहुल यूपी के सोनभद्र जिले के गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईयां और भुनिया न केवल मताधिकार का प्रयोग करेंगे बल्कि अपने लिए आरक्षित सीटों से अपनी

उम्मीदवारी भी ठोकेंगे. साढ़े पांच लाख की आबादी के बावजूद यूपी में जनजातियों के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं थी. निर्वाचन आयोग द्वारा यूपी की दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीटों को जनजातियों के लिए आरक्षित घोषित किए जाने के बाद से मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा से सटे सोनभद्र में उत्सव सरीखा माहौल है. जगह-जगह मिठाइयां बांटी जा रही हैं और करमा गाये जा रहे हैं.

गौरतलब है कि यूपी में छह वर्ष पूर्व हुए परिसीमन के बाद यह दो विधानसभाएं अस्तित्व में आईं. हालांकि 2012 में यह सीटें सामान्य थीं. समाजवादी पार्टी की पूर्व सरकार में मंत्री रहे विजय सिंह गोंड, जो कि दुद्धी विधानसभा क्षेत्र में जनजातियों के नेता रहे हैं, चुनाव आयोग के फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए कहते हैं कि न्यायालय का स्पष्ट आदेश था, लेकिन फिर भी सीटों को आरक्षित करने में हिला-हवाली की जा रही थी. गोंड ने कहा कि अब सही मायनों में सोनभद्र के आदिवासी आजाद हैं.

अजीबोगरीब आरक्षण, अजीबोगरीब चुनाव, केंद्र सरकार की अजीबोगरीब हिला-हवाली और न्यायिक प्रक्रिया की अजीबोगरीब ढुलमुल नीति ने उत्तर प्रदेश के जनजातियों को उनके मौलिक अधिकारों से हमेशा वंचित रखा. आदिवासी या तो मुकदमा लड़ते हैं या टैक्स देते हैं. शायद ही सोनभद्र का कोई ऐसा आदिवासी हो जिसके खिलाफ जंगल विभाग ने मुकदमा कायम न कर रखा हो.

लेकिन मौजूदा कवायद के बाद लगता है अब हालत बदलेंगे. जिले के आदिवासी इस बार विधानसभा में प्रतिनिधित्व करेंगे. इसके अलावा नगर और ग्राम पंचायतों में भी इनका वर्चस्व होगा. यह छोटा मजाक नहीं था कि पूर्व में जिले में दो विधानसभा सीटें थीं और दोनों ही अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित थीं.

हालत इस हद तक खराब थे कि केवल लोकसभा और विधानसभा में ही नहीं, जिन गांवों में जनजातियों की जनसंख्या 99 फीसदी थी और महज एक फीसदी घर अनुसूचित जाति के लोगों के थे, वहां पर भी ग्राम प्रधान अनुसूचित जाति का हुआ करता था. स्थिति का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2001 की जनगणना के आधार पर अनुसूचित जाति वर्ग के लिए आरक्षित हुई ग्राम प्रधान एवं ग्राम पंचायत सदस्य की सीटों पर योग्य उम्मीदवारों की प्रर्याप्त दावेदारी नहीं होने के कारण ग्राम पंचायत सदस्यों की दो तिहाई सीटें खाली ही रह जाती थीं.

यूपी में सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली जनजाति बहुल जनपद हैं. 2004 से पहले जब प्रदेश के आदिवासियों को जनजाति का दर्जा नहीं दिया गया था, वो उन्हीं सीटों पर चुनाव लड़ा करते थे, जो सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित रहती हैं. बेहद लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में यहां की नौ आदिवासी जातियों को, जिनमें गोड़, खरवार, बैगा, चेरो, पनिका, अगरिया, मांझी, पठारी और पहरिया शामिल हैं, अनुसूचित जनजाति की मान्यता दे दी गई.

मगर अ़फसोस, सीटों पर आरक्षण व्यवस्था को ज्यों का त्यों रखा गया. नतीजा यह हुआ कि मान्यता प्राप्त जनजातियां चुनाव लड़ने के अधिकार से ही वंचित हो गईं. मजाक सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं हुआ, सरकार ने धांगर, बंसोर, घसिया, कोल, बैसवार समेत अन्य 15 आदिवासी जातियों को इस आरक्षण से अलग कर दिया, जबकि इन्हें भी जनजातियों में शामिल करने की मांग आजादी के बाद से ही की जा रही थी.

दूसरी तरफ जिन जातियों को मान्यता दी गई, उनमें भी जमीनी वास्तविकताओं की जानबूझ कर अनदेखी की गई. पहरिया और पठारी सोनभद्र में नहीं के बराबर हैं, इन्हें भी जनजाति में शामिल कर लिया गया. वहीं गोंड और मांझी सोनभद्र में एक ही आदिवासी जातियां हैं, पर इन्हें अलग-अलग करके दो बार मान्यता दे दी गई. चुनाव आयोग का मौजूदा निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2012 में दिए गए आदेश के क्रम में आया है. यह आदिवासियों की बड़ी विजय है और इससे इस बेहद पिछड़े जिले की स्थिति बदलेगी, यह तय है.

आदिवासियों की इस लड़ाई में जन-संघर्षों की लंबी भूमिका रही है. पिछले दिनों दिल्ली के जंतर-मंतर पर जब भारी तादाद में आदिवासी जमा हुए थे, तब भी यह एहसास पुख्ता हुआ था कि आदिवासियों का संघर्ष कितने समय की यात्रा के बाद इतना मजबूत हुआ है. उत्तर प्रदेश विधानसभा में आदिवासियों के लिए सीट आरक्षित करने के लिए ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट (आइपीएफ) समर्थित आदिवासी अधिकार मंच ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन किया था. पिछले लंबे अर्से से उत्तर प्रदेश के सोनभद्र और अन्य आदिवासी बहुल इलाकों में चल रहे आंदोलन के क्रम में आदिवासी समुदाय के लोगों, किसानों, मजदूरों और महिलाओं ने बड़ी तादाद में राजधानी दिल्ली के धरना-प्रदर्शन में हिस्सा लिया था.

उत्तर प्रदेश में आदिवासी समुदाय की आबादी 11 लाख से अधिक है. हाईकोर्ट ने 2012 में आदिवासी समुदाय को उनकी आबादी के अनुपात में विधानसभा में सीट आरक्षित करने का आदेश दिया था. इसके अनुपालन में तत्कालीन सरकार ने अध्यादेश और विधेयक के जरिए दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित करने की अधिसूचना जारी कर दी.

लेकिन विडंबना यह रही कि केंद्र सरकार ने 4 जुलाई 2014 को राज्यसभा में विधेयक वापस ले लिया. इस वजह से अधिसूचना लागू नहीं हो पाई और उत्तर प्रदेश के आदिवासी राजनीतिक प्रतिनिधित्व से ही वंचित हो गए. राजधानी दिल्ली में आयोजित धरना-प्रदर्शन के माध्यम से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पूर्व केंद्र सरकार से अध्यादेश लाकर दुद्धी और ओबरा विधासभा सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित करने की मांग की गई थी. इस संबंध में प्रधानमंत्री को ज्ञापन भी दिया गया था.

लंबे जन संघर्ष ने यह साबित किया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भारत निर्वाचन आयोग द्वारा आदिवासियों के लिए आरक्षित की गई दुद्धी और ओबरा विधानसभा सीट छीने जाने से देश में संवैधानिक संकट की स्थिति पैदा हो गई है.

आदिवासी अधिकार मंच के संयोजक व आईपीएफ के प्रदेश महासचिव दिनकर कपूर और आदिवासी नेता पूर्व विधायक विजय सिंह गोंड़ ने कई फोरमों पर कहा कि केंद्र सरकार ने संसद में 4 जुलाई 2014 को संसदीय और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति प्रतिनिधित्व का पुनः समायोजन विधेयक (तीसरा) 2013 वापस लेकर आदिवासी समाज को राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित कर दिया है.

यह बड़ा सवाल था कि जिस समय मोदी सरकार संसद से बिल वापस ले रही थी, उस समय आदिवासी क्षेत्र के आदिवासी सांसद और भाजपा से जुड़े अन्य आदिवासी सांसद चुप्पी साधे बैठे थे. आदिवासी समाज को विकास की मुख्यधारा से काट दिए जाने की कोशिश के खिलाफ आदिवासियों को व्यापक पैमाने पर गोलबंद किया गया.

यह विडंबना ही तो है कि सरकार लगातार दलितों और आदिवासियों के बजट में कटौती करती रही. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी केंद्र सरकार ने मनरेगा की मजदूरी का चार माह से भुगतान नहीं किया. परिणामतः भीषण सूखे और वर्षा के कारण संकटग्रस्त ग्रामीण परिवार भुखमरी के शिकार हैं. वृक्षारोपण के लिए कैम्पा कानून बनाकर वनाधिकार कानून को खत्म करने में केंद्र सरकार लगी हुई है. सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली का यह

दलित-आदिवासी बहुल पहाड़ी अंचल उत्तर प्रदेश का कालाहांडी बना हुआ है. आजादी के साठ साल बाद भी चुआड़, नालों और बांधों का प्रदूषित पानी पीकर ग्रामीण बेमौत मर रहे हैं. आज भी इन क्षेत्रों में गांवों में जाने को सड़कें नहीं हैं और बीमारी की हालत में खटिया पर लादकर लोग इलाज के लिए ले जाते हैं. मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही आदिवासियों और दलितों के विकास के लिए बजट में आवंटित होने वाली धनराशि में भी 32,105 करोड़ रुपये की भारी कटौती कर दी. आदिवासियों के लिए 2014-15 में आंवटित 26,714 करोड़ को घटाकर

2015-16 में 19,980 करोड़ और 2016-17 में 23,790 करोड़ रुपये कर दिया गया है. इसके साथ ही आदिवासी जीवन के लिए जरूरी मनरेगा, शिक्षा, स्वास्थ्य व छात्रवृत्ति के बजट में भी भारी कटौती कर दी गई है. दस लाख से भी अधिक आदिवासी समाज के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का सरकार हनन कर रही है. वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों को मिलने वाली ज़मीन के 92,406 दावों में से 74,701 अर्थात 81 प्रतिशत दावे रद्द कर दिए गए हैं और मात्र 17,705 दावों में ही ज़मीन दी गई है.

इसमें सोनभद्र जनपद के 65,526 प्राप्त दावों में से 53,506 दावे खारिज किए जा चुके हैं. इसमें भी सत्तर प्रतिशत दावे दुद्धी तहसील के आदिवासियों के हैं. उच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी प्रदेश सरकार आदिवासियों व वनाश्रित जातियों को उनकी पुश्तैनी जमीन पर अधिकार देने को तैयार नहीं है. इससे उत्तर प्रदेश के आदिवासियों में घोर निराशा और आक्रोश व्याप्त है. इसके साथ ही सरकार वृक्षारोपण के लिए कैम्पा कानून बनाकर वनाधिकार कानून खत्म करने पर आमादा है.

आदिवासियों ने समवेत रूप से यह आवाज उठाई कि दुद्धी व ओबरा विधानसभा सीट को आदिवासी समाज के लिए आरक्षित करने के आदेश को हर हाल में लागू किया जाना चाहिए. इसके अलावा वनाधिकार कानून के तहत जमीन पर अधिकार देने, कोल, धांगर समेत सात अन्य जातियों को आदिवासी का दर्जा देने व गो़ंड, खरवार समेत आदिवासियों का दर्जा पा चुकी 10 जातियों को चंदौली समेत पूरे प्रदेश में आदिवासी का आधिकारिक दर्जा देकर आबादी के अनुसार उन्हें बजट में हिस्सा देने जैसे सवालों पर भी आदिवासी अधिकार अभियान शुरू किया गया है.

आदिवासी अधिकार को लेकर कई सम्मेलन हुए, जिनमें हजारों की संख्या में जुटे आदिवासियों ने इस बात पर गहरा रोष जताया कि केंद्र व प्रदेश में राज करने वाली कांग्रेस, भाजपा और सपा, बसपा की सरकारों ने आदिवासियों के अधिकार नहीं दिए. गोंड़, खरवार समेत दस जातियों को जब आदिवासी का दर्जा दिया गया था, उस समय केंद्र व राज्य में भाजपा की सरकार थी, पर उसने उनके लिए कोई भी सीट आरक्षित नहीं की.

उसके बाद बनी सरकारों ने तो आदिवासियों के आरक्षण को ही रोकने की कोशिश की. 2010 में उच्च न्यायालय ने आदिवासियों के लिए पंचायत में आरक्षण देने का निर्णय दिया था, पर उस समय मायावती सरकार इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई और इसे स्टे करा दिया. बाद में आधे अधूरे मन से अखिलेश सरकार ने आंदोलन के दबाव में सीट आरक्षित की, पर इसमें भी बेईमानी हुई. कुशीनगर, जहां आदिवासी हैं ही नहीं, वहां आदिवासी आरक्षण दे दिया गया.

भारत निर्वाचन आयोग द्वारा दुद्धी व ओबरा विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित करने के निर्णय का स्वागत करते हुए पूर्व मंत्री विजय सिंह गोंड़ ने इसे लोकतांत्रिक ताकतों के लम्बे संघर्ष का परिणाम बताया. चुनाव आयोग के इस निर्णय को उन्होंने भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के उत्तर प्रदेश में आदिवासी विरोधी मंसूबे के खिलाफ एक तमाचा माना है.

उन्होंने बताया कि इन दलों के नेता अभी भी मोर्चा बनाकर आदिवासियों को उत्तर प्रदेश की राजनीति की मुख्यधारा में आने से रोकने में लगे हैं और आदिवासियों की आरक्षित सीट के खिलाफ इधर-उधर की दौड़ लगा रहे हैं. लेकिन इसमें उनका आदिवासी विरोधी चेहरा और बेनकाब हो रहा है और आदिवासियों को नुकसान पहुंचाने में वह असफल साबित होंगे.

ज्ञातव्य हो कि इन दलों के संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने 11 जनवरी को निर्वाचन कार्यालय दिल्ली में निर्वाचन अधिकारी से मुलाकात की थी, लेकिन उनके आदिवासी सीट निरस्तीकरण के प्रतिवेदन को आयोग ने अस्वीकार कर दिया था. विजय सिंह गोंड़ ने बताया कि ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के आदिवासी अधिकार मंच और स्वराज इंडिया के सक्रिय सहयोग से आदिवासियों को यह अधिकार मिला है. इसलिए इस संघर्ष के लिए वे विशेष धन्यवाद के पात्र हैं.

पंचायत चुनाव में ही बज गई थी मुनादी

उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में ही तीन सौ से ज्यादा आदिवासियों ने पंचायत प्रमुख का चुनाव जीतकर खुद के ताकतवर होने के संकेत दे दिए थे. आजादी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश की गोंड़, धुरिया, नायक, ओझा, पठारी, राजगोंड़, खरवार, खैरवार, परहिया, बैगा, पंखा, पनिका, अगरिया, चेरो, भुईयां और भुनिया जैसी आदिवासी जातियां अपनी मूल पहचान और आबादी के अनुपात में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव लड़ी थीं.

सोनभद्र जैसे आदिवासी बहुल जिले में भी पिछले डेढ़ दशक से करीब आधा दर्जन ग्राम पंचायतों का गठन नहीं हो पा रहा था. पहली बार उत्तर प्रदेश की आदिवासी जातियों के तीन सौ से ज्यादा लोग अपनी मूल पहचान पर त्रिस्तरीय पंचायतों के प्रमुख बने.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here