जेनेवा संधि से निकली उम्मीद की अच्छी किरण के बावजूद यूक्रेन समस्या अब और भी खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है. हालांकि, यह कयास उसी वक्त लगाया गया, जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि इस समय हम किसी भी पक्ष को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकते.
रूस, यूक्रेन और पश्चिम के बीच हुए जेनेवा संधि के तहत कहा गया था कि पूर्वी यूक्रेन में अवैध तरीके से हथियारों से लैस रूस समर्थक लोगों को हथियार डालने के लिए कहा जाएगा. साथ ही, जिन लोगों ने सरकारी इमारतों पर कब्जा किया है, वे भी समर्पण करेंगे. हालात यह है कि रूस में क्रीमिया के विलय के बाद यूक्रेन के कई सरकारी इमारतों पर हथियारबंद रूसी समर्थकों का कब्जा है और कई इलाकों में हिंसा की घटना लगातार हो रही है. सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि यूक्रेन में अस्थिरता की स्थिति पैदा हो गई. दरअसल, सारी कहानी 2014 के फरवरी महीने से शुरू होती है. यह विरोध एक व्यापारिक समझौते की उपज है. पिछले एक साल से राष्ट्रपति विक्टर यानुकोव्युच ने जोर दिया कि यूरोपीय संघ से ऐतिहासिक राजनीतिक और व्यापारिक समझौते के लिए वे इच्छुक हैं. लेकिन, पिछले साल 21 नवंबर को उन्होंने यूरोपीय संघ (ईयू) से वार्ता को निलंबित कर दिया.
ईयू से समझौते के समर्थकों का कहना था कि इससे राजनीतिक संबंध और आर्थिक विकास तेज होती. यूक्रेन की सीमा व्यापार के लिए खुल जाती और आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तेज होती. यहां ध्यान देने वाली बात है कि आखिर वो कौन-सी वजहें थीं, जिससे यूक्रेन के राष्ट्रपति को अपना कदम पीछे लेना पड़ा. इनमें सबसे बड़ी वजह थी रूस का विरोध. रूस ने अपने छोटे पड़ोसी देश को धमकी दी कि अगर वह समझौते पर आगे बढ़ता है, तो उस पर व्यापारिक पाबंदी लगा दी जाएगी. साथ ही, गैस की आपूर्ति पर भी रोक लगा दी जाएगी. वहीं, अगर वह रूस के साथ जुड़ता है तो उसे प्राकृतिक गैस पर भारी छूट मिलेगी. इसके अलावा एक और प्रमुख वजह थी, जो निहायत ही व्यक्तिगत और राजनीतिक भी थी. दरअसल, ईयू राष्ट्रपति विक्टर यानुकोव्युच से उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी और पूर्व प्रधानमंत्री यूलिया तामोशेंको की रिहाई की मांग कर रहा था. यानुकोव्युच इसकी लगातार अनदेखी कर रहे थे. दो साल पहले यूलिया तामोशेंको को रूसी गैस समझौते में अपने पद का दुरुपयोग करने का दोषी पाया गया था और उन्हें सात साल की सजा सुनाई गई थी. इस घटना को व्यापक तौर पर राजनीतिक से प्रेरित बताया जा रहा था.
इस घटना के बाद यूक्रेन के अधिकांश लोगों में गुस्से की लहर फैल गई. वे सड़कों पर उतर आए और यानुकोव्युच के ईयू से समझौता करने की मांग करने लगे. विपक्ष की मांग जोड़ पकड़ने लगी. यहां सबसे बड़ी समस्या यह थी कि विपक्ष का नेता कोई एक शख्सीयत नहीं था. कई दलों ने मिलकर एक गठबंधन बनाया था. फिर भी उनमें पहला नाम आता है विताली क्लित्श्चको का. वह पूर्व बॉक्सिंग चैंपियन थे. क्लित्श्चको के विरोध ने यूक्रेन में अशांति की लहर फैला दी. इसके बाद यूक्रेनी राष्ट्रपति रूस भाग गए और उन्होंने रूस के साथ मिलकर एक समझौता किया. इस समझौते के तहत पुतिन ने यूक्रेन के 15 अरब डॉलर के कर्ज को माफ करने और कम कीमतों पर गैस देने की घोषणा की. इसके बावजूद जब विरोध बंद नहीं हुआ, तो उन्होंने प्रदर्शन को खत्म करने के लिए दमन विरोधी नीति अपनाई. विरोध- प्रदर्शनों के बीच विपक्षी दल संसद में एक कानून में संशोधन चाहते थे. इसके तहत राष्ट्रपति के अधिकारियों को सीमित करने और 2004 के संविधान की पुनर्बहाली की मांग की गई थी. लेकिन, संसद ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया. नतीजतन हिंसा का एक लंबा दौर शुरू हो गया.
अब ताजा हालात यह है कि रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया का विलय कर लिया है. रूस का इरादा है एक दिन रूसी बोलने वाले लोगों को फिर से एक संयुक्त मुल्क में साथ लाना. इनमें यूक्रेन की सीमाओं में रहने वाले रूसी भाषी भी शामिल हैं. यह पुतिन के अपने विचारों और उनके जैसा सोचने वालों के विचारों से झलकता है. कुशल रणनीतिकार के रूप में पुतिन जानते हैं कि इस महात्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए पूरा जोर लगाना रूस के लिए नुकसानदेह हो सकता है, जैसा कि कड़े प्रतिबंध लगाने की पश्चिमी देशों की धमकी और रूसी गैस आपूर्ति से आजाद होने की यूरोप की कोशिशों में दिखता है.
जेनेवा में पिछले हफ्ते यूक्रेन पर हुए समझौते पर दस्तखत करना और पश्चिमी देशों को यह दिखाना कि वह समझौते के लिए तैयार है, रूस के लिए रणनैतिक महत्व रखता है. अगले चुनाव को होने में चार साल बाकी हैं और उसमें पुतिन के फिर से 6 साल के लिए जीतने की संभावना है. इसे देखते हुए पुतिन के पास समय है जो उन्हें उनके पश्चिमी प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त देता है, जिनकी नीतियां उनके कार्यकाल को देखते हुए छोटी अवधि की हैं. पुतिन का लंबा खेल यह है कि वे यूक्रेन पर किसी सैन्य विवाद में फिलहाल नहीं फंसना चाहेंगे. इसका मतलब यह है कि यूरोपीय देशों को इसके लिए तैयार रहना होगा कि प्रतिबंधों से रूस के साथ उनका कारोबारी रिश्ता जटिल हो सकता है. 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद पूरी दुनिया में अमेरिका की बादशाहत कायम हो गई थी. उसके बाद यूरोपीय संघ, अमेरिका और चीन के रूप आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक शक्ति का उदय हुआ. पुतिन अब सोवियत संघ के समय की शक्तिशाली रूस की कल्पना कर रहे हैं. वे अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की ही तरह रूस को वैश्विक आर्थिक सत्ता का केंद्र बनाना चाहते हैं. यही वजह है कि पहले वे उन इलाकों को रूस में मिलाने की कोशिश कर रहे हैं, जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे. फिलहाल मामला यह है कि यूक्रेन को लेकर रूस और पश्चिमी देशों में एक तनाव की स्थिति बन चुकी है. जेनेवा संधि को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति का बयान यह बतलाता है कि यूक्रेन से एक ऐसी समस्या उत्पन्न हो गई, जो पूरी दुनिया को फिर शीतयुद्ध काल की ओर ले जाता दिख रहा है.
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