तटबंधों के निर्माण के संघर्ष पहले विस्थापन के मुद्दे पर केन्द्रित हुआ करते थे, लेकिन प्रकृति की रक्षा की पारिस्थितिकीय अनिवार्यता ने इस संघर्ष में एक नया आयाम जोड़ा है. नेपाल से निकलने वाली बागमती नदी को कई दशकों से बांधा जा रहा है. बागमती पर बनाए गए पहले के बांधों के दुष्परिणाम को देखते हुए अब लोग बांधों के विरोध में खुलकर सामने आ रहे हैं. एक नए तटबंध निर्माण को लेकर बिहार के कई जिलों में लोगों का खासा विरोध देखने को मिल रहा है.
लोगों का कहना है कि यदि यह तटबंध बनता है, तो मुजफ्फरपुर, दरभंगा व समस्तीपुर के 120 से ज्यादा गांव बर्बाद हो जाएंगे. सैकड़ों गांव और लाखों की संख्या में आबादी विस्थापित होगी और खेती के लिए जमीन मिलनी मुश्किल हो जाएगी. जहां तक बांध का निर्माण हुआ है, वहां के लोगों की परेशानियों और तबाही को देखकर लोग डरे हुए हैं. लोगों का मानना है कि यह एक विनाशकारी परियोजना है. इसलिए व्यापक स्तर पर इसका विरोध हो रहा है. बागमती तटबंध के निर्माण के खिलाफ जनाक्रोश अब सड़कों पर भी दिख रहा है.
विरोध के रूप में सड़क जाम और सत्याग्रह का सिलसिला आरंभ हो गया है. आक्रोशित लोगों ने राज्य के प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-57 पर गायघाट के बेनिबाद केवटसा चौक पर चक्का जाम कर के अपना विरोध दर्ज कराया. लोगों के इस व्यापक विरोध को देखते हुए उप विकास आयुक्त अरविंद कुमार वर्मा सामने आए और मामले को शांत कराया. लेकिन इस बड़े अहिंसक आंदोलन ने सरकार को अपनी ताकत का अहसास करा दिया है.
बागमती योजना आधी शताब्दी पुरानी है. 46 साल बाद भी यह परियोजना पूरी नहीं हो सकी है. वर्ष 1970 में भारत-नेपाल बॉर्डर से रुन्नीसैदपुर तक करीब 77 किलोमीटर तटबंध का निर्माण हुआ, लेकिन बाद में इस पर ब्रेक लग गया. वर्ष 2006 में एक बार फिर से इस परियोजना पर काम शुरू हुआ.
इस बार रुन्नीसैदपुर से सोमरमार हाट तक तटबंध का निर्माण हुआ. उसी साल मुजफ्फरपुर में भी तटबंध निर्माण का काम शुरू हुआ, जो काफी हद तक पूरा हो चुका है. गायघाट में भी तटबंध बनना है, लेकिन स्थानीय लोग इसका लगातार विरोध कर रहे हैं. यह विरोध परियोजना के आरंभ से ही हो रहा है.
बागमती तटबंध बनने से पहले बिहार सरकार ने बागमती घाटी का एक क्षेत्रीय अध्ययन करवाया था. इस अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया था कि बागमती भारत के बहुत उर्वर क्षेत्र से प्रवाहित होती है. इस क्षेत्र के प्रत्येक एकड़ में फसल उगाई जाती है और यहां के जमीनों की उर्वरता प्रति वर्ष बाढ़ों के कारण ताजा हो जाती है.
यह क्षेत्र बाढ़ के बिना फल फूल नहीं सकता है. वे क्षेत्र जहां बागमती की गाद नहीं पड़ती है, धीरे-धीरे अपनी उर्वरा शक्ति खोते जा रहे हैं. वहीं, वे क्षेत्र जिन पर बागमती की गाद पड़ती है, या जो बागमती की बाढ़ के चपेट में आते हैं, उर्वर हो जाते हैं. अत: समस्या बाढ़ को रोकने की नहीं, अपितु अतिरिक्त पानी के सरल प्रवाह और सिंचाई सुविधा प्रदान करने की है. इस अध्ययन में बागमती क्षेत्र की समस्याओं के पूर्ण समाधान के लिए नेपाल के नुनथर के पास बहुद्देशीय बांध के निर्माण का सुझाव दिया गया था.
जनवरी 1956 में केंद्रीय जल विधुत आयोग के तत्कालीन मुख्य अभियंता डॉ के. एल. राव तथा बिहार के सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता एच. के. श्रीनिवास ने भी बागमती की पूरी लंबाई का क्षेत्रीय अध्ययन किया था. वे लोग नेपाल में नूनथर भी गए थे, जहां बागमती पर बहुद्देशीय बांध बनाने का प्रस्ताव था. डॉ राव का मानना था कि नूनथर बांध के साथ धाराओं के पुनरूद्धार के जरिए पानी की निकासी ही समस्या का स्थायी समाधान है. लेकिन इस परियोजना के कार्यान्वयन में स्थानीय अध्ययन और देश के जाने माने विशेषज्ञों के राय की अवहेलना की गई.
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में जब तटबंध का काम शुरू हुआ, तो वहां इसके विरोध में एक आंदोलन खड़ा हो गया है. आंदोलन की शुरुआत रामवृक्ष बेनीपुरी के गांव से लगे मुजफ्फरपुर के कटरा प्रखंड के गंगिया गांव से हुई. हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी का आशियाना इस तटबंध की भेंट चढ़ चुका है.
उस इलाके के स्कूल, मंदिर, मस्जिद सब जमींदोज हो चुके हैं. अगर तटबंध का निर्माण नहीं रुका, तो रामदयालु बाबू का गांव और उनका बनाया हुआ स्कूल, सब जमींदोज हो जाएंगे. सवाल यह है कि जब स्थानीय नागरिकों को यह बांध नहीं चाहिए तो सरकार इसे बनाने पर आमादा क्यों है?
तटबंध निर्माण के विरोध के लिए लोगों ने वर्ष 2012 में बागमती बचाओ संघर्ष समिति का गठन किया, जो लगातार सक्रिय है. विरोध के कारण अभी तक गायघाट में तटबंध का निर्माण शुरू नहीं हो सका है. इससे पूर्व समाजसेवी अनिल प्रकाश, पूर्व डीजीपी रामचंद्र खान, पूर्व विधायक महेश्वर प्रसाद यादव, जदयू नेता डॉ. हरेंद्र कुमार, विजय कुमार, वीरेंद्र कुमार राय व रणजीव तत्कालीन जल संसाधन मंत्री विजय चौधरी को मुजफ्फरपुर में बागमती नदी पर तटबंध बनाए जाने के खतरों से अवगत करा चुके हैं. तब मंत्री ने कहा था कि सरकार बांधों और तटबंधों के विकल्प की तलाश कर रही है और तटबंधों का निर्माण कराना सरकार की पसंद नहीं विवशता है.
कटरा में अधूरे काम को पूरा करने के लिए इस साल 28 जनवरी को एजेंसी ने सामान गिराया, लेकिन संघर्ष समिति के लोग वहां पहुंच गए व एजेंसी के टेंट को उखाड़ दिया. वाहनों को भी वहां से वापस भेज दिया गया. मामले में चास बास बचाओ संघर्ष मोर्चा के संयोजक जितेंद्र यादव सहित अन्य लोगों पर प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई है. लोगों का कहना है कि बांध विनाशकारी हैं. नदियों को खुला छोड़ देना चाहिए और नदियों की पेटी में जमे गाद को निकालने की व्यवस्था की जानी चाहिए.
विरोध का दूसरा कारण विस्थापित लोगों के पुनर्वास की लंबी प्रक्रिया को लेकर है. औराई, कटरा में तटबंध निर्माण से 44 गांव के लोग विस्थापित हुए हैं. विस्थापितों के पुनर्वास और मुआवजे में अनियमितता भी सामने आई है. इस पर मुजफ्फरपुर के जिलाधिकारी धमेंद्र सिंह का कहना है कि सभी को ठीक किया जा रहा है.
बागमती और इस पर तटबंधों के निर्माण को लेकर पटना में एक सेमिनार आयोजित किया गया था. इस सेमिनार में आई आई टी कानपुर के भूगर्भ विज्ञान के विभागाध्यक्ष राजीव सिन्हा, नेपाल के उच्चस्तरीय संस्थान इसिमोड के प्रतिनिधि डॉ डी.के मिश्रा तथा तेजस विमान को डिजाइन करने वाले डॉ मानस बिहारी वर्मा सहित कई लोग शामिल हुए थे.
इस सेमिनार में तत्कालीन जल संसाधन मंत्री विजय चौधरी ने ही बागमती तटबंधों पर सवाल खड़ा किया था. उन्होंने कहा था कि ऐसे बांध जब कई बार टूट चुके हैं, फिर इनकी जरूरत ही क्या है? इन पर पैसा क्यों बर्बाद किया जाता है? अस्सी के दशक में गंगा की जमींदारी के खिलाफ आंदोलन छेड़ने वाले संगठन गंगा मुक्ति आंदोलन के प्रमुख नेता अनिल प्रकाश इस तटबंध विरोध अभियान के संचालकों में शामिल हैं. इनका कहना है, बागमती नदी के जिन-जिन हिस्सों में डैम बने, वहां के लोग उजड़ गए.
बांध जल प्रलय को बढ़ावा देते हैं. हमें नदी के साथ रहने की आदत है, बांध की कोई जरूरत नहीं है. बागमती पर बांध गैर जरूरी व अवैज्ञानिक हैं. इस मामले में नदी व बाढ़ विशेषज्ञ डॉ. दिनेश कुमार मिश्र का मानना है कि तटबंध बांध कर नदियों को नियंत्रित करने की जगह सरकार इनके पानी की निर्बाध रूप से निकासी की व्यवस्था करे. तटबंध पानी की निकासी को प्रभावित करते हैं. टूटने पर जान-माल की व्यापक क्षति होती है.
सीतामढ़ी जिले में बागमती पर सबसे पहला तटबंध बनने से मसहा आलम गांव प्रभावित हुआ था. उस गांव के 400 परिवारों को अब तक पुनर्वास का लाभ नहीं मिला है और रुन्नीसैदपुर से शिवनगर तक के 1600 परिवार पुनर्वास के लाभ के लिए भटक रहे हैं. दोनों तटबंधों के बीच गाद भरने की भी एक बड़ी समस्या है. रक्सिया में तटबंध के बीच एक 16 फीट ऊंचा टीला था, जो बालू में दबने के बाद मात्र तीन फीट बचा है. बागमती नदी बार-बार अपनी धारा बदलती है.
बागमती के जिन-जिन हिस्सों में डैम बनाए गए, वहां के लोग उजड़ गए हैं. तटबंध के बाहर भी जलजमाव होने लगा है. मनुषमारा, लखनदेई आदि सहायक नदियों के पानी का निकास बंद हो जाने के कारण जलजमाव की समस्या उत्पन हो गई है. बागमती क्षेत्र के शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, दरभंगा, सुपौल, खगड़िया आदि जिलों के सैकड़ों गांव लोगों के लिए काला पानी में तब्दील होते जा रहे हैं.
बागमती पहले हर साल 12 किलोमीटर की चौड़ाई में उपजाऊ मिट्टी बिछा देती थी. लोग खुशहाल थे, लेकिन जब से इस नदी को तटबंधों के माध्यम से तीन किलोमीटर के दायरे में कैद करने का सिलसिला शुरू हुआ, राज्य से पलायन तेज हो गया है. भागवतपुर गांव के सूरत लाल यादव का कहना है- बागमती को बांधा तो जमीन, घर-द्वार सब कुछ चला जाएगा. बाढ़ से नुकसान से ज्यादा लाभ होता है.
दो-चार-दस दिन के कष्ट के बाद तो सब कुछ अच्छा ही होता है. जमीन उपजाऊ हो जाती है, पैदावार अधिक हो जाता है. बंसघत्ता के रौदी पंडित के मुताबिक बांध बनने से बांध के बाहर के जमीन की कीमत दो लाख प्रति कट्ठा हो गई है, जबकि बांध के अंदर की जमीन का भाव 15 हजार रुपए प्रति कट्ठा ही है.
गंगिया के रंजन कुमार सिंह ने कहा- बांध के बनने से उसके भीतर मेरा 10 एकड़ जमीन आ जाएगा और हम बर्बाद हो जाएंगे. जब तटबंध नहीं थे, तो बागमती द्वारा लाए गए गाद नदी के दोनों और लगभग 12 किलोमीटर की चौड़ाई में ़फैल जाते थे और खेतों में उपजाऊ मिट्टी बिछ जाती थी. लोगों का घर धन-धान्य से भरा रहता था.
बाहर जाकर कमाने की जरूरत नहीं होती थी. तब कटनी, रोपनी के लिए बाहर से लोगों को बुलाना पड़ता था, जैसे आज पंजाब में बुलाते हैं. महिलाएं हाथ जोड़कर विनती करती थीं- हे बागमती मइया, बाढ़ ले कर मेरे गांव में आइए और हमें खुशहाल बनाइए. लोग कहते थे- बाढ़े जीली, सुखारे मरली. बच्चे नाव पर चढ़कर झिझिया खेलते थे, उत्सव मनाते थे. तटबंधों के कारण नदी तीन किलोमीटर की चौड़ाई में कैद हो गई.
लोगों का मानना है कि बागमती योजना मात्र तटबंध बनाकर अफसरों को मालामाल करने की योजना है. मुजफ्फरपुर के जिलाधिकारी भी बांध की निरर्थकता पर सरकार को पत्र लिख चुके हैं. लेकिन अभियंता, मंत्री, ठेकेदार और वे अफसर जिनका इस तटबंध निर्माण में स्वार्थ छुपा है, वे बांध बनवाने पर अमादा हैं, बिना इसकी परवाह किए कि इससे लाभ से ज्यादा हानि की संभावना है.
बिहार के लिए वरदान है बागमती
हिमालय के दक्षिणी ढलान पर काठमांडू के पास लगभग आठ हजार मीटर की ऊंचाई के गोसाई नाथ के शिखर से बागमती निकलती है. भारत में गंगा की तरह नेपाल में बागमती भी बहुत ही पवित्र नदी मानी जाती है. नेपाल के सभी राजाओं का दाह-संस्कार बागमती के तट पर ही हुआ है. नेपाल के गौर नामक गांव के बाद बागमती भारत में प्रवेश करती है.
बिहार के सीतामढ़ी जिले का आदम बांध गांव भारत में बागमती का प्रवेश द्वार है. इसी गांव से आगे यह नदी सीतामढ़ी, दरभंगा, सहरसा, और खगड़िया जिलों से प्रवाहित होते हुए गंगा में मिलती है. नेपाल में 7,080 वर्ग किलोमीटर तथा बिहार में 6,320 वर्ग किलोमीटर के साथ बागमती का कुल जलग्रहण क्षेत्र 13,400 वर्ग किलोमीटर है.
नेपाल में काठमांडू से पहले या उसके आस-पास बागमती में मुख्यत: सात हिमालयी नदियां ह्नुमती, मनोहरा, मणिमती, विष्णुमती, भद्रमती, रूद्रमति और धोबीखोला आकर मिलती हैं. शायद इसी कारण नेपाल के कुछ इलाकों में बागमती को सप्त बागमती के नाम से भी जाना जाता है. हिमालय से निकलने वाली लाल बकैया, लखनदेई और अधवारा समूह की नदियां बागमती के भारतीय प्रवाह क्षेत्र की प्रमुख सहायक नदियां हैं.
लाल बकैया सीतामढ़ी के पिपराही प्रखंड के अदउरी गांव में बागमती से संगम करती है, जबकि लखनदेई कटरा गांव के पास इसमें मिलती है. अधवारा समूह की नदियां आपस में मिलती हुई, दरभंगा के हायाघाट के पास इस नदी में विलीन होती हैं. अधवारा समूह की नदियों से संगम के बाद बागमती करेह कहलाती है. हायाघाट के आगे सहरसा मानसी लाईन को बदलाघाट में पार कर कोसी में मिलती हुई यह नदी गंगा में विलीन होती है.
बागमती हिमालय से निकलने वाली बिहार की ऐसी अकेली नदी है, जो अपने जल के साथ सबसे अधिक उपजाऊ गाद लाती है. बाढ़ के समय इसके जल में गाद की मात्रा काफी अधिक होती है. इस कारण बागमती की बाढ़ पूरे इलाके में वरदान मानी जाती है. बागमती की बाढ़ों के कारण इस इलाके की मिट्टी इतनी उर्वर थी कि यहां हमेशा तीन फसलों की खेती का प्रचलन रहा है.
बागमती नदी के जिन-जिन हिस्सों में डैम बने, वहां के लोग उजड़ गए. बांध जल प्रलय को बढ़ावा देते हैं. हमें नदी के साथ रहने की आदत है, बांध की कोई जरूरत नहीं है. बागमती पर बांध गैर जरूरी व अवैज्ञानिक हैं.
-अनिल प्रकाश, प्रमुख नेता, गंगा मुक्ति आंदोलन