मोदी के दिमाग को समझना लखनऊ की भूलभुलैया में खो जाने जैसा है। मोदी जी की बढ़ती दाढ़ी पर तमाम तरह के कयास लगाये गये। रवींद्र नाथ टैगोर और नानकदेव तक से जोड़ा गया। लेकिन रहस्य रहस्य ही रहा। पर हमें लगता है रहस्य कोई बहुत गहरा नहीं। आप मोदी के मन और दाढ़ी के रहस्य को समझने की कोशिश कर रहे हैं और मोदी अपने वोटर के मन समझने की धुन में बुढ़ाते जा रहे हैं। सत्रह और उन्नीस में मोदी के मन की बेचैनी बढ़ी थी लेकिन हर जीत के बाद यह निश्चय भी उतना ही दृढ़ हुआ कि मेरा वोटर भी निश्चित है। पर इस बार की स्थितियां अलग कहानी कहती हैं।

मोदी के सात सालों के शासन में यह साबित हुआ है कि यह सरकार देश के लिए अयोग्य है, अहितकर है और हर मामले में गैर अनुभवी है। गरीब मोदी की छवि को अभी भी ढोने के लिए तैयार है पर महंगाई से हताश परेशान होकर वह द्वंद्व में आ गया है। अब मोदी के पास अंतिम हथियार है फकीरी से छवि बनाने का। भारत संतों और फकीरों का देश है। और जनता कृपालु है। इस कृपालु जनता को ‘मोनेटाइजेशन’ या ‘मुद्रीकरण’ जैसे शब्दों का भान नहीं है। यह जनता यह भी नहीं जानती कि ‘पैगासस’ किस चिड़िया का नाम है और देश में ‘बिकने’ जैसी ऐसी कौन सी चीज है जिसे मेरा फकीर बेच देगा। इस जनता को आप गांधी जी के ‘अंतिम आदमी’ के नाम से जानते और पहचानते हैं। इस जनता के पास मनोरंजन के लिए गोदी मीडिया के चैनल हैं। उसे नहीं पता सोशल मीडिया किस चिड़िया का नाम है। मोदी जी का मन यह सब जानता है। भारत में दुर्भाग्य से आज भी फूहड़ता का मनोरंजन होता है। और प्रबुद्ध समाज अपने बनाये ‘यूटोपिया’ में शगल बाजी में मशगूल रहता है।

2022 और 24, 2017 और 19 नहीं है। इस बार मोदी की स्पष्ट दिखती हार में भी जीत के कण अगर तैरते दिखाई पड़ता रहे हैं तो उन्हें समझना होगा। उन्हें हारना नहीं है। वे हारने के लिए नहीं आये हैं। वे पचास साल राज करने के इरादे से आये हैं। वे ‘सैंट्रल विस्टा’ बनवा रहे हैं। वे शहरों के नाम बदल रहे हैं। वे अपने ‘हिंदू राष्ट्र’ के सपने पर मुसलमानों को मिटा कर तेजी से काम करना चाहते हैं। वे मुसलमानों को पुचकारेंगे भी और मार मार कर भयभीत भी रखेंगे। और हमारी नजर में यही पूरी बिसात है मोदी की हार के कारण की। लेकिन यह फकीरी क्या गुल खिलाएगी कौन जानता है। यह बात, जो सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है, पर सच भी है कि भारतीय समाज में मुसलमानों को लेकर एक नफरत, एक चिढ़ और एक दुश्मनी सदियों से पलती रही है। हमारे नेता और हमारी पुलिस इसी समाज से आती है। हमारे सैनिक भी समाज की उन्हीं कंदराओं से आते हैं जो सात साल पहले तक देश में ‘हिंदू मुसलमान’ नहीं देखते थे। पर आज देखने भी लगे हैं और सोचने भी। तो निकट भविष्य में चुनाव का पहला ऐजेंडा साम्प्रदायिक है। एक तरफ साम्प्रदायिकता चलेगी ,दूसरी तरफ ‘प्राइवेटाइजेशन’ चलेगा और तीसरी तरफ फकीरी चलेगी। अरबों रुपयों का प्रचार अपनी कहानी अलग कहेगा। तैयार रहिए इस बात के लिए भी कि यह फकीरी अचानक कोई ऐसा गुल खिला दे कि आपको बालाकोट या ऐसा ही कुछ और याद आ जाए। चुनाव हर हाल में जीतना है।

मोदी से लड़ेगा सोशल मीडिया !!

सोशल मीडिया के लिए अब छननी की जरूरत पड़ रही है। इतना गर्द आ चुका है और हर कोई जीतना चाहता है। हर कोई डिबेट कर रहा है। और हर कोई डिबेट में जा रहा है। इसीलिए न डिबेट का स्तर बचा है और प्रबुद्धजनों का तो जैसे अकाल ही हो चला है। फिर भी हर कोई मोदी से लड़ने के लिए उनके ढहते किले के सत्य असत्य पर बहस कर रहा है।’सत्य हिंदी’ की डिबेट में यदा कदा किसी चेहरे को देख कर मन करता है कि सुना जाए। जब समाज में हर चीज का स्तर घटा है और हमारे बीच से ‘क्रीम’ कहे जाने वाले दिमागों का लोप हो चुका है तो इसी भेड़चाल से काम चलाना है। मोदी को और मोदी के वोटर को इनसे कुछ लेना देना नहीं है। पिछले हफ्ते का लेख पढ़ कर किसी ने हमसे गम्भीर मुद्रा में कहा, कभी अशोक वानखेड़े की भी तारीफ कर दिया कीजिए। बरबस हंसी आ गयी। मैंने कहा अशोक वानखेड़े को बहुत लोग सुनना चाहते होंगे और हैं भी। वे जो कुछ कहते हैं उनसे आप किसी भी कोण से अलग राय नहीं रख सकते। वे चटकारेदार भी होते हैं। आकर्षित भी करते हैं। और निर्भीकता में बहुत कुछ बढ़ चढ़ के भी बोल जाते हैं। जो सत्य के बहुत करीब होता है। पर मेरी नजर में वे गम्भीर अध्येता नहीं हैं। गहन अध्ययन किये शख्स नहीं जान पड़ते। यह ऊपरी समझ है जो सत्य के बहुत करीब है। ऐसे ही तमाम वे लोग हैं जो आजकल यहां वहां, इस उस बहस में छाए हुए हैं। पर जब गहन अध्ययन वाले दिमागों का अकाल हो तो ऐसे ही लोग चुने जाएंगे। मैंने ‘4पीएम’ जैसे मामूली वेबसाइट को एक बार सुना सिर्फ इसलिए कि वहां अभय दुबे बैठे थे। हैरानी और भी तब हुई जब एक बार नीरजा चौधरी को भी वहां देखा।

हमारे दिमागों में जो दिग्गज बैठे हुए हैं ऐसे में अपने ही दिमाग पर शंका होती है। घटिया वातावरण में घटिया पात्र ही उतरते हैं और वे ही उस वक्त के उम्दा कहे जाने वालों की श्रेणी में कब आ जाते हैं पता ही नहीं चलता। कल तक जो सबसे घटिया था आज वह सबसे ताजातरीन और निखरा हुआ है। यही वक्त का पैमाना है। ‘सत्य हिंदी’, ‘वायर’ और ‘लाउड इंडिया टीवी’ बस आजकल तो इन्हीं की धूम है सोशल मीडिया में। अब आप वायर को आरफा खानम शेरवानी का समझिए। सत्य हिंदी आशुतोष का और लाउड इंडिया संतोष भारतीय कान्म। और भी असंख्य हैं। पर इनकी धूम है। संतोष जी की पुस्तक को लेकर फ़ौज़िया आर्शी इन दिनों खूब छा रही हैं। दो दिन पहले आरफा का जदिन हुआ। पूरे ट्विटर पर छायी रहीं। यह उनकी लोकप्रियता का आलम है, जो उन्होंने स्वयं अर्जित की है।

बहरहाल, यह समय बहुत विचलित कर देने वाला है। हम सब तो जाग रहे हैं पर आशा की कोई किरण साफ नजर नहीं आती। जो सोये हैं उन पर मोदी का जादू है। अब फकीरी बढ़ चढ़ कर बोलेगी। कहीं कोई ईश्वर नहीं है फिर भी सुना है जल्द ही ‘कृष्ण’ का जन्म होने वाला है। जन्माष्टमी, सामने है। कृष्ण जन्मते नहीं प्रकट होते हैं या अवतरित होते हैं। समाज उलझा है इन्हीं उलझनों में। और राजा खुश है।

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