अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक
शहादत न सही, कोरोना योद्धाओं की मौत जिन्हें देश ने कोरोना योद्धा कहा, जिनके सम्मान में प्रधानमं‍त्री नरेन्द्र मोदी ने ताली-थाली बजाने का आव्हान किया, जिन्होंने कोविड 19 महामारी से लड़ते हुए जी जान लगा दी, और उसी क्रूर कोरोना का शिकार बने डाॅक्टरों की शहादत को लेकर मोदी सरकार और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के बीच जिस तरह ठनी है, वह निहायत दुर्भाग्यपूर्ण और सरकारी तंत्र की असंवेदनशील का परिचायक है। हाल में सरकार ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि मार्च 2020 से लेकर अब तक देश में कोरोना के कारण कुल 162 डाॅक्टरों को अपनी जानें गंवानी पड़ी। गौरतलब है कि केन्द्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने बुधवार को राज्यसभा में दिए अपने जवाब में बताया था कि देश में कोरोना संक्रमण से 22 जनवरी 2021 तक कुल 162 डाॅक्टरों, 107 नर्सों तथा 44 अधिमान्य सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं तथा आशा कार्यकर्ताअों की मौत हुई है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ( आईएमए) ने इन सरकारी आंकड़ों पर गहरी नाराजी जताते हुए दावा किया कि कोरोना काल में 4 फरवरी 2021 तक देश भर में कुल 734 डाॅक्टरों ने अपनी जानें गंवाईं। आईएमए के अध्यक्ष डाॅ. जे.ए.जयालाल तथा सचिव डाॅ. जयेश एम. लेले ने कहा कि कोरोना संक्रमण के कारण मरने वाले डाॅक्टरों और मेडिकल स्टाफ की संख्या उससे कहीं अधिक है, जो सरकार ने बताई है। यानी कोरोना से डाॅक्टरों की मौतों को लेकर सरकार और आईएमए के आंकड़ों के बीच का यह फर्क लगभग चार गुने का है।

जहां तक आईएमए की बात है तो ये एलो‍पैथिक डाॅक्टरों की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था है। इसकी स्थापना 1923 में हुई थी। आज देश भर के लगभग 3 लाख 24 डाॅक्टर इसके सदस्य हैं। संस्था की छात्र शाखा भी है, जिसके  50 हजार से ज्यादा जूनियर डाॅक्टर सदस्य हैं। सरकार के आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए आईएमए ने सरकारी आंकड़ों की गहन जांच के लिए उच्चस्तरीय कमेटी गठित करने तथा सभी कोरोना से मृत डाॅक्टरों को सम्मानित करने की अपील की है। आईएमए के अनुसार कोरोना काल में अपनी जान गंवाने वाले डाॅक्टरो में 431 सामान्य चिकित्सक थे। कोरोना वायरस से मृत डाॅक्टरों में से 25 की उम्र तो 35 वर्ष से भी कम थी। पत्र में कहा गया है कि डाॅक्टर ऐसे खतरनाक माहौल में भी राष्ट्र की सेवा के लिए चिकित्सा क्षेत्र (डॉक्टरों) ऐसे खरतनाक माहौल में भी राष्ट्र की सेवा करने के लिए चिकित्सा क्षेत्र को चुनते हैं। लेकिन भारत सरकार इस तथ्य को स्वीकार करने और उन्हें उचित महत्व और मान्यता देने में विफल रही।

आईएमए की‍ चिट्ठी इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सरकारी तंत्र की संवेदनहीन और कामचलाऊ वृत्ति पर चोट करती है। जिन डाॅक्टरों से कोरोना जैसी भयंकर जानलेवा बीमारी से जी जान लगाकर लड़ने की अपेक्षा की गई और लगभग सभी ने अपना कर्तव्य जान की बाजी लगाकर नि‍भाया, उन डाॅक्टरों के सही आंकड़े भी सरकार के पास न होना ही कई सवाल खड़े करता है। यूं तो सभी डाॅक्टरों ने कोरोना के खिलाफ लड़ाई में अपना श्रेष्ठ योगदान दिया, लेकिन सबसे ज्यादा बोझ और दबाव सरकारी स्वास्थ्य विभाग के डाॅक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ पर था, जो उस बीमारी से लोगों की बचाने की कोशिश में लगे थे, जिसका कुछ समय पहले तक कोई इलाज नहीं था और शर्तिया उपचार तो अब भी नहीं है। जब कोरोना प्रकोप अपने चरम पर था तो हमे ये सभी डाॅक्टर और मेडिकल स्टाफ देवदूत की तरह नजर आ रहा था, लेकिन सरकारी आंकड़ों में उनकी जगह शायद वही थी, जो अन्य मामलों में सांख्यिकी तैयार करते वक्त होती है।

कोरोना से लड़ाई लड़ते-लड़ते जान गंवाने वाले चिकित्सकों में अधिकांश ऐसे थे, जो अपनी और अपने परिवार की चिंता किए बगैरे रात दिन कोविड मरीजों की सेवा और उनके इलाज में लगे रहे। और अपना कर्तव्य निभाते निभाते उन्होंने प्राण त्याग दिए। आईएमए ने इस बात पर भी क्षोभ व्यक्त किया कि ऐसे असमय जानें गंवाने वाले डाॅक्टरों के साथ सरकार ने वास्तव में क्या सलूक किया। उन्हे कोरोना शहीद का दर्जा देना तो दूर कोरोना काल में प्राण त्यागने वाले कई डाॅक्टरों को ठीक से मुआवजा भी अब तक नहीं मिल पाया है। उनके परिवारों पर मुसीबतों का पहाड़ टूटा सो अलग।

यह निश्चय ही जांच का विषय है कि कोरोना से लड़ते हुए कितने डाॅक्टरो को असमय अपनी जानें गंवानी पड़ी। तकरीबन ऐसी हर मौत मीडिया की सुर्खी भी बनी। इसलिए वह कोई गोपनीय बात नहीं है। हमे यह भी पता है कि कोरोना से युद्ध के दौरान कई डाॅक्टरो महीनो अपने घरों को नहीं गए, क्योंकि परिजनों को भी संक्रमण का खतरा था। मसलन सागर के युवा चिकित्सक डाॅ.शुभम उपाध्याय तो कोरोना मरीजों को बचाने के जुनून में ही खुद महामारी का शिकार हो गए। तमाम कोशिशो के बाद भी उन्हें नहीं बचाया जा सका। ऐसे और भी उदाहरण है, जिन्होने चिकित्सा व्यवसाय की उच्च परम्पराओं को कायम रखते हुए अपनी जान तक की परवाह नहीं की। लेकिन सरकार केजिस आह्वान पर वो ये सब कर रहे थे, उसी सरकार के पास अपने इन कोरोना वीरो का सही डाटा भी न होना यकीनन क्षुब्ध करने वाला है।

सवाल यह भी है कि कोरोना से युद्ध करने वाले डाॅक्टरों की मौतों की सही आंकड़े किसके माने जाएं? सरकार के या फिर आईएमए के? आईएमए कोरोना काल में शहीद हुए डाक्टरों की संख्याक बढ़ा चढ़ाकर बता रही होगी, ऐसा नहीं लगता। तो क्या सरकार अब भी कोरोना से मृत डाॅक्टरों और पैरा मेडिकल स्टाफ के सही आंकड़े नहीं बताना चाहती या फिर उसके पास पूरे और प्रामाणिक आंकड़े हैं ही नहीं? जो आंकड़े सामने आए, उनकी पुष्टि करने की जहमत भी नहीं उठाई गई? यहां सवाल सिर्फ कोरोना युद्ध में अपने प्राण त्यागने वाले डाॅक्टरों की संख्या की प्रामाणिकता का ही नहीं है, उससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि आड़े वक्त पर ‍जिन डाॅक्टरों को सरकारे और लोग सिर आंखों पर बिठा रहे थे, कोरोना से मरने के बाद उनमें से कई परिजनो को उचित मुआवजा और वो भी समय पर अभी तक नहीं मिला है। इसे क्या कहा जाए?
आईएमए की यह मांग जायज है कि कोरोना काल में मृत डॉक्टरों के संपूर्ण डेटा का गहन अध्ययन करने के लिए एक उच्च-शक्ति समिति का गठन किया जाए और जिन चिकित्सकों ने उपचार करते करते दम तोड़ दिया था, उन्हें सम्मानित किया जाए।” सरकार की तरफ से इस पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन उसे आईएमए की मांग पर पूरी संवेदनशीलता के साथ विचार करना चाहिए। क्योंकि कोरोना काल समूचे मानव इतिहास का ऐसा कठिन और अप्रिय समय रहा है, जिसमें हमने इंसानियत और हैवानियत दोनो की पराकाष्ठा को देखा और भुगता है।

कोरोना केवल एक महामारी भर नहीं है, उसने मनुष्य की सामाजिकता और आपसी रिश्तों को भी इतनी बुरी तरह से प्रभावित किया है, पुरानी स्थिति लौटने में काफी समय लगेगा और वह पहले जैसा होगा , यह कहना मुश्किल है। यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि जब इंसानियत की अग्नि परीक्षा थी, तब डाॅक्टर समुदाय ने उसे विशेष योग्यता के साथ पास किया। अपनी सुरक्षा और स्वार्थों से आगे देश और समाज को रखा। देश ने भी उनकी इस कर्तव्य निष्ठा को सराहा, उसे सलाम किया। लेकिन आंकड़ों की बेजान दुनिया में यह शहादत भी महज एक महामारी के कारण हुई फ्रंटलाइन वर्कर की मौत से ज्यादा मायने नहीं रखती। ऐसा लगता है कि इस शहादत का ग्लैमर भी जरूरत मद्देनजर ही था। लिहाजा आईएमए का रोष जायज है। अगर सरकार यह दलील देती है कि अपुष्ट आंकड़ों को अधिकृत जवाब में शामिल नहीं किया गया है तो यह भी खुद को धोखे में रखना है। होना तो यह चाहिए था कि संसद में जवाब देने के पहले ही सरकार अपने आंकड़े जांच लेती और फिर देश को बताती। लेकिन ऐसा करने की चिंता भी किसको है?

 

Adv from Sponsors