चुनाव आयोग द्वारा पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह अखिलेश यादव के धड़े को दिए जाने के बाद समाजवादी पार्टी में पिछले कुछ हफ़्तों से जारी अंदरूनी झगड़ा समाप्त होता दिख रहा है. अब ऐसा लग रहा है कि मुलायम सिंह यादव अलग चुनाव लड़ना नहीं चाहते हैं, जो अच्छी बात है, क्योंकि ऐसा करने से उनके वोट नहीं बंटेंगे. अंदरूनी झगड़े किसी भी पार्टी को नुकसान पहुंचाते हैं.
यदि समाजवादी पार्टी ने अपने झगड़े कुछ हफ्ते पहले सुलझा लिए होते, तो अच्छा होता. बहरहाल, जो होना था, वो हो चुका है. अब उत्तर प्रदेश चुनाव में जो तस्वीर नज़र आ रही है, उसमें बसपा, भाजपा और सपा-कांग्रेस-अजित सिंह के गठबंधन के बीच मुकाबला होगा. ज़ाहिर है, जब तक नामांकन दाखिल नहीं हो जाता और चुनाव प्रचार शुरू नहीं हो जाता, तब तक कुछ कहा नहीं जा सकता है.
उत्तर प्रदेश में यह बात की जा रही है कि सत्ता और विपक्ष के लोग आश्वस्त हैं कि नोटबंदी का फायदा उन्हें ही मिलने वाला है. भाजपा सोचती है कि नोटबंदी से गरीब इतने खुश हैं कि वे भाजपा को ही वोट देंगे. विपक्ष यह सोचता है कि नोटबंदी ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की संभावनाओं को समाप्त कर दिया है. बहरहाल, चुनाव पूर्व की बात कौन करे, चुनाव के बाद भी यह कहना मुश्किल होगा कि नोटबंदी का प्रभाव चुनाव पर पड़ा या नहीं.
उत्तरप्रदेश देश का सबसे बड़ा प्रदेश है और लोकसभा चुनाव में भाजपा-अपना दल गठबंधन ने राज्य की 80 लोक सभा सीटों में से 73 सीटें जीती थी. बाक़ी सीटें मुलायम सिंह यादव परिवार और कांग्रेस के खाते में गई थीं. यदि भाजपा की जो लोकप्रियता लोकसभा चुनाव के दौरान थी, वही अब भी कायम है (हालांकि इसमें शक है) तो तार्किक रूप से 73 को 5 गुणा करने के बाद जो अंक आएगा, वही विधानसभा चुनाव में भाजपा की संख्या होनी चाहिए. हालांकि भाजपा के लोगों को भी शक है कि उन्हें फिर से वैसा समर्थन मिलेगा.
यह देखना दिलचस्प होगा. कांग्रेस का वोट शेयर 8 प्रतिशत था. उसके जुड़ जाने से निश्चित रूप से सपा को मजबूती मिलेगी, क्योंकि 8 प्रतिशत वोट बहुत मायने रखता है. यदि यह वोट सपा के वोट के साथ मिल जाता है, तब यह और प्रभावी हो जाएगा. बसपा का अपना वोट बैंक है. दलित उसके साथ हैं. मुस्लिम उसके साथ जाते हैं या सपा-बसपा के बीच बंट जाते हैं, इसके लिए और इंतज़ार करना होगा.
नोटबंदी से पैदा अव्यवस्था अब ठीक हो रही है, क्योंकि अब शायद 500 रुपए के नोट उपलब्ध हो गए हैं. मार्च तक रही-सही कमी भी पूरी हो जाएगी. दरअसल यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि नोटबंदी का फैसला सही था या गलत, ज़रूरी था या गैर-ज़रूरी, क्योंकि इसके कारण और प्रभाव (कॉज एंड इफेक्ट) जानने का कोई पैमाना नहीं है. एक बात जो तय है, वह यह है कि प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के लिए जो तीन कारक (नकली नोट, कालाधन और आतंकवाद खत्म करना) बताए थे, वो इतने बड़े क़दम के लिए बहुत ही छोटे और कमज़ोर कारक थे.
प्रधानमंत्री के पक्ष में बात करते हुए मैं कह सकता हूं कि यदि वो यह क़दम उठाना ही चाहते थे, तो उन्हें यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए था कि विमुद्रीकरण से पहले रिज़र्व बैंक में पर्याप्त नोट मौजूद हों. ऐसा क्यों नहीं हुआ, यह अब एक रहस्य है. यदि इसका रहस्योद्घाटन होता है, तो अच्छी बात है. शायद नोटबंदी का फैसला अचानक ले लिया गया या शायद यह फैसला केवल 1000 रुपए के नोट के लिए था, जिसके लिए 2000 रुपए के नोट पहले से ही छप चुके थे.
हो सकता है कि बिना पर्याप्त नोटों की व्यवस्था के ही 500 रुपए के नोट बंद करने का फैसला प्रधानमंत्री ने अचानक ले लिया हो, जिसकी वजह से अमीरों और कालाधन वालों के बजाय आम आदमी को अधिक मुसीबत का सामना करना पड़ा. 500 के नोट की जरूरत सब्जी बेचने वाले, दूध वाले, दिहाड़ी मजदूर से लेकर आम आदमी सबको होती है. नोटबंदी से सबसे अधिक प्रभावित दिहाड़ी मजदूर थे क्योंकि उनके पास बैंक अकाउंट नहीं होता और न ही कैशलेस रहने के लिए प्लास्टिक कार्ड होता है. तात्कालिक रूप से वो बहुत अधिक तनाव में रहे.
किसान भी बैंक से लेन-देन के आदि नहीं हैं. वे अपना लेन-देन कैश में करते हैं, लिहाज़ा उन्हें भी परेशानी में डाला गया. किसानों पर इसका वास्तविक परिणाम क्या होगा, यह आने वाला समय बताएगा. सरकार दावा कर रही है कि इस साल खेतों की बुआई अधिक हुई है. यदि बुआई अधिक हुई है, तो यह निश्चित रूप से अच्छी खबर है. किसानों ने ज़रूर कोई नया तरीका अपनाया होगा, साधारण क़र्ज़ या कोई अनौचारिक ऋृण लिया होगा, जिसकी वजह से वे अपनी बुआई कर पाए होंगे.
यह अर्थशात्रियों के बहस का विषय है, जो लंबे समय तक चल सकता है. जहां तक आम आदमी का सवाल है, तो यदि ये नोट फिर से उपलब्ध हो जाएं तो उसकी समस्या समाप्त हो जाती है. सरकार कालाधन, नकली नोट और आतंकवाद से निपटती रहे, इससे आम आदमी के रोजाना के लेन-देन पर कोई फर्क नहीं पड़ता.
ख़बरों के मुताबिक, आरबीआई गवर्नर संसदीय समिति के समक्ष पेश हुए हैं. समिति ने नोटबंदी पर उनसे तीखे सवाल पूछे. संसदीय समिति एम्पावर्ड समिति होती है. उसकी कार्यवाही आदि कैमरे में कैद होती है, प्रेस के लिए नहीं होती, यानी उसकी विषयवस्तु गोपनीय होती है. बहरहाल हर चीज़ की एक सीमा होती है, जिसे पार नहीं किया जा सकता है. संसद ऐसे सवाल नहीं कर सकती, जिनका जवाब गोपनीय हो, जिसकी जानकारी केवल गोपनीयता की शपथ ली हुई सरकार को होती है.
अगर कोई संसद के प्रति जवाबदेह है तो वो संसदीय समिति के प्रति भी जवाबदेह होगा. मुझे यह पढ़ कर ख़ुशी हुई कि मनमोहन सिंह ने आरबीआई गवर्नर को सतर्क किया कि उन्हें इन सवालों का जवाब नहीं देना चाहिए. मनमोहन सिंह आरबीआई के गवर्नर रहे हैं, वित्त मंत्री रहे हैं और दस साल के लिए प्रधानमंत्री रहे हैं, उन्हें इसकी जानकारी है. आखिरकार यह देश सबका है. भले ही हमारे प्रधानमंत्री बहुत एडवेंचरस (उत्साही) हैं, जैसे ही वो माइक देखते हैं भाषण देना शुरू कर देते हैं, जैसे वे देश को बदलने जा रहे हों.
जानकार लोग बदलाव की सीमा को समझते हैं, जैसा कि नानी पालकीवाला ने बजट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए एक बार कहा था कि बुद्धिमता की एक सीमा होती है, गैर ज़िम्मेदारी की कोई सीमा नहीं होती. मनमोहन सिंह एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं, उन्होंने आरबीआई गवर्नर को सतर्क किया है, आखिरकार मौजूदा गवर्नर पहले गवर्नर नहीं हैं. उनसे पहले 20-30 गवर्नर आ चुके हैं और उनके बाद भी आएंगे. सवाल यह है कि रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता, गोपनीयता और शुचिता हर कीमत पर बचाए रखनी होगी.
मैं समझता हूं कि जो लोग संसद को समझते हैं, वे अब भी ठीक व्यवहार कर रहे हैं. भाजपा के सदस्य नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का शह पाकर गैर-जिम्मेदाराना बयान जारी कर रहे हैं और देश में संवाद के स्तर को नीचे ला रहे हैं, जो सही संकेत नहीं है. मेरा मानना है कि चुनाव को बीत जाने देना चाहिए और बहस के स्तर को फिर से परिपक्व बनाना चाहिए, जिसमें शोर-शराबा कम हो. एक दूसरे पर चिल्लाने से, एक दूसरे के लिए अपशब्द इस्तेमाल करने से किसी समस्या का समाधान नहीं होगा. हमें आशा करनी चाहिए कि चीज़ें बेहतर होंगी.