क्या सोशल मीडिया परिवर्तन चाहता है, यह सवाल है जो अब हर जागरूक को कुरेद रहा है। पटना में हमारे एक मित्र हैं जेपी के आंदोलन से जुड़े रहे। संघर्ष वाहिनी के वरिष्ठ सदस्यों में से एक हैं। उन्होंने लिखा कि आपके लेख वस्तुस्थिति को जाहिर करते हैं। इन स्थितियों से लड़ कर कैसा परिवर्तन हो यह नहीं बताते। यह सच है कि जो आप बताते हैं सब कुछ वैसा ही है पर परिवर्तन की बात भी तो कीजिए। मैंने उनसे दो निवेदन किये। एक यह कि मैंने शुरू में सोशल मीडिया के कार्यक्रमों की समीक्षा से लिखना शुरू किया था। लिहाजा मेरे लेख दिल्ली के सभी बड़े पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के पास या आप जैसे देश के दूसरे इलाकों में जो रहते हैं, उनके पास जाते हैं। दूसरा यह कि जो कुछ मैं लिखता हूं वह वही लिखता हूं जो सोशल मीडिया दिखाता है।एक तरह से उनकी समीक्षा। यदि मेरे लेख आम जनता तक जाते तो मैं जरूर आपकी इच्छानुसार परिवर्तन की बात करता।

सोशल मीडिया के तमाम लोगों को पता है कि परिवर्तन किन तरीकों और किन रास्तों से होगा। पर क्या सोशल मीडिया इस दिशा में अग्रसर दिखता है ? मुझे तो कतई नहीं लगता। बल्कि सच यह है कि वह अपनी स्थितियों को ही मजबूत करने में लगा है। सोशल मीडिया पर आने वाली सूचनाओं, जानकारियों, बहसें, डिबेट और चर्चाओं से समाज का कौन सा वर्ग जागरूक हो रहा है। वही जो पहले से जागरूक है। जो अपने भीतर के उठते विचारों को बहस में सुन कर साधारणीकृत हो कर संतुष्ट हो जाता है। जो ‘साधारण’ बौद्धिक की श्रेणी में आता है। पत्रकार आलोक जोशी कहते हैं कि ‘सत्य हिंदी’ को सुनने वालों की संख्या बढ़ रही है। तो ये किस श्रेणी के श्रोता हैं। ये वही ‘जागरूक’ लोग हैं जो रोजाना और हमेशा फेसबुक पर जमे रहते हैं। फेसबुक पर जिस तरह की तू तड़ाक होती है कौन नहीं जानता। अच्छे बड़े लेखक पत्रकार भी उस ‘ट्रैप’ में आकर अपनी मटियामेट करते हैं। यही हाल कमोबेश ट्विटर का है।

परिवर्तन कैसे और कहां से आएगा ? इस सरकार की सबसे बड़ी रीढ़ है ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’। जिसे हम गोदी मीडिया कहते हैं। अगर आप उस पर हमला करें और उस रीढ़ को तोड़ें तो समझिए कि आप आधे सफल हो गये। इस मीडिया में परोसे जाने वाले मसाले की लत गांव गांव तक पहुंच चुकी है। सब जानते हैं कि यह मीडिया क्या परोसता है और क्या नहीं परोसता जोकि उसे परोसना चाहिए। पहले भी लिखा था कि यह मीडिया एक दुकान जैसा है जो अपना माल बेचता है। कल्पना कीजिए कि दुकान चले नहीं, बंद हो जाए तो जनता विकल्प तलाशेगी। कल्पना कीजिए कि हमारे पत्रकारों और राजनीतिक दलों के लोगों ने इस मीडिया का पूर्णतः बहिष्कार कर दिया तो क्या स्थिति बनेगी। पर न हमारे पत्रकार चाहते हैं न राजनीतिक दल। तो सत्ता की रीढ़ मजबूत है और थका मांदा गरीब शाम को इसी मनोरंजन से आनंदित रहता है। आशुतोष और अभय दुबे जैसे पत्रकार इन चैनलों पर नियमित जाते हैं।

अपनी प्रबुद्धता दिखाने, पैसे के लिए और अपने मित्र एंकरों की संतुष्टि के लिए। मुझे इस पर घोर आपत्ति है। अभय दुबे का तर्क है कि सब जगह जाना चाहिए, मन की बात और मोदी जी के भाषण सब सुनने चाहिए। सब जगह जाना चाहिए इससे ही आपत्ति है। सब जगह तब जाना चाहिए जब स्थितियां अनुकूल हों। जब देश में ऐसी सरकार का संचालन हो जिससे हर नागरिक खुश या संतुष्ट हो। बाकी सब सुनना चाहिए वह तो मैं ही स्वयं सुनता हूं। मोदी के लगभग हर भाषण और हर पत्रकार की वह मजबूरी भी है। लेकिन गोदी मीडिया के चैनलों का बहिष्कार बहुत जरूरी है। जब तक गोदी मीडिया मुखरता के साथ वजूद में रहेगा या कहिए मजबूती के साथ जिंदा रहेगा तब तक परिवर्तन की बात पचास पचास टका कहिए।

अभय दुबे जैसे लोग जाना बंद भी कर दें तो कर दें पर आशुतोष जैसे लोग बंद नहीं कर सकते। पैसे के अलावा सर्व गुण संपन्न दिखाना भी तो जरूरी है। ‘सत्य हिंदी’ अपनी दिशा में बहुत खूब चल रहा है। मुकेश कुमार के टापिक से ज्यादा पैनल में मौजूद लोग सुनने को विवश करते हैं। अभी अभय दुबे के साथ ‘राजनीति की पाठशाला’ नामक कार्यक्रम की श्रंखला शुरू की गयी है। पर ये ताजा समय में परिवर्तन के लिए कितनी प्रासंगिक है ? सच तो यह है कि अभय दुबे की जो बातचीत ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर संतोष भारतीय के साथ आती है वह ज्यादा रोचक और प्रासंगिक होती है। क्योंकि उसमें वर्तमान की राजनीति और मुद्दों की चर्चा होती है।

परसों मुझे एक सरकारी संस्थान में स्पीच देने के लिए आमंत्रित किया गया था। ‘आजादी के 75 साल और देश के हालात’। पहले तो मुझे इस विषय ने ही चौंका दिया। क्योंकि सरकार कभी नहीं चाहेगी कि देश के ताजा हालात पर कोई चर्चा भी करे। फिर वहां देखा कि लगभग सौ टका लोग मेरे ही विचार के थे। यानि ताजे हालात से खफा। फिर स्पीच के अंत में जब मैंने यह पूछा कि आप लोग सोशल मीडिया पर क्या देखते हो तो किसी ने ‘सत्य हिंदी’ का नाम नहीं लिया, किसी ने ‘वायर’ का नाम नहीं लिया तो दूसरी वेब साइट की तो बात ही क्या। ‘रिपब्लिक’, ‘एनडीटीवी’ और ‘न्यूज 24’ को सभी लगभग जानते थे। रवीश कुमार का भी कई लोगों ने जिक्र किया।

बौद्धिक जगत में इस बात का भ्रम है कि जनता सब जानती है और बंगाल की तरह यूपी में भी सबक सिखा देगी। पर वह कौन सी ‘जनता’ है। सबको पता है कि विपक्ष और कांग्रेस की क्या स्थिति है। लेकिन बुद्धिजीवियों की ओर से कहीं कोई पहल नहीं की जाती। जब मोदी पीएम बनने वाले थे तब कई बुद्धिजीवियों ने अमरीका को उन्हें वीज़ा न देने का आग्रह किया था। पर क्या हुआ। आज एनडीटीवी की मजबूरी है कि मोदी का कोई भी और कैसा भी भाषण पूरा दिखाए। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रमन्ना के आ जाने के बावजूद उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही कि पैगासस जासूसी मामले पर कोई सख्त फैसला सुनाए।

तो जब बुद्धिजीवी दिग्भ्रमित हों, सोशल मीडिया सिर्फ अपनी बौद्धिकता में उलझा हो तो अकेले रवीश कुमार, अभय दुबे और पुण्य प्रसून वाजपेयी कितना किसको जगा देंगे। बाकी तो यूट्यूब भरा पड़ा है ढेरों तरह की अनाप शनाप से। सरकार भ्रम फैला कर अपनी मनमानी करने में माहिर है तो ये प्लेटफार्म भी ऐसे ही हैं। बस इंतजार कीजिए जनता के विवेक और उसके फैसले का। क्योंकि इस बार कोई विपक्ष है तो बस जनता ही है जो आये दिन सब देखती, सुनती और भीतर ही भीतर कुछ न कुछ गुनती रहती है। यह जनता बेशक बंटी हो पर फैसला तो इसी का सर्व मान्य होगा। इस बार के चुनाव बेहद रोचक हैं और आर पार वाले भी। जो सीधे भीष्म पितामह जैसे दिखने वाले शख्स और जनता के बीच होने जा रहे हैं। बस कुछ दिन की बात है।

Adv from Sponsors