इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से चुनाव चिन्ह की अनिवार्यता हटाने के लिए तेज़ हो रहा आंदोलन

evmइलेक्ट्र्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) से चुनाव चिन्हों को हटाने का मसला एक व्यापक जन आंदोलन की शक्ल लेता जा रहा है. संविधान का सहारा लेकर शुरू हुए इस अभियान का ही नतीजा है कि चुनाव आयोग ने ईवीएम मशीन पर चुनाव चिन्हों के साथ-साथ प्रत्याशियों का चेहरा लगाने का भी नियम लागू किया. अब उसी अभियान का अगला हिस्सा है ईवीएम मशीनों से चुनाव चिन्हों का हटाया जाना.

लोकतंत्र मुक्ति आंदोलन के संयोजक प्रताप चंद्रा कहते हैं कि चुनाव चिन्हों के बल पर चुनाव जीतने का जो अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक चलन रहा है, वह समाप्त हो जाएगा और वही प्रत्याशी जीतेगा जिसका चेहरा उसके क्षेत्र में जनप्रिय होगा. सबसे पहले बिहार चुनाव में ईवीएम पर प्रत्याशियों की तस्वीर लगाने की प्रक्रिया शुरू की गई. इस बार विभिन्न राज्यों में हुए और हो रहे विधानसभा चुनावों में यह प्रक्रिया जारी है. ईवीएम पर अभी प्रत्याशियों की ब्लैक एंड व्हाइट फोटो लग रही है, ईवीएम पर प्रत्याशियों की रंगीन तस्वीर लगाने के लिए आयोग से बातचीत चल रही है.

लोकतंत्र में नागरिक अपना जन-प्रतिनिधि चुनता है और उससे अपेक्षा करता है कि वह जनहित के प्रति जवाबदेह होगा. लेकिन होता इसका ठीक उल्टा है. जनता द्वारा चुना गया जन-प्रतिनिधि बाद में दल-प्रतिनिधि बन जाता है और उसकी जवाबदेही जनता के प्रति न होकर दल के प्रति हो जाती है. जनता का हित देखने के बजाय उसके लिए दल का हित प्राथमिक हो जाता है. विडंबना यह है कि स्वतंत्र, शुद्ध और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए बना चुनाव आयोग इसे नजरअंदाज करता रहा है.

चुनाव आयोग ने शुद्ध और निष्पक्ष चुनाव कराने के नाम पर प्रत्याशियों के लिए चुनाव-चिन्हों का निर्धारण और आरक्षण कर दिया. इससे चुनाव की पूरी प्रक्रिया अशुद्ध और पक्षपातपूर्ण बन गई. संविधान द्वारा प्रदत्त अवसर की समानता के अधिकार का खुला हनन होता रहा और भारतीय लोकतंत्र चुनाव-चिन्हों का गुलाम होकर रह गया. आरक्षित-चुनाव-चिन्ह की सत्ता पर नियंत्रण की सुनिश्चितता के कारण ही

कॉरपोरेट घराना, पूंजीपति और औद्योगिक जगत इनका संरक्षण करने लगा, आर्थिक मदद देने लगा और संसाधन मुहैया कराने लगा. इसके एवज में उसने अपने लाभ के लिए आर्थिक नीतियों को प्रभावित किया, भ्रष्टाचार और अनियमितता के बूते राजनीतिक दल पर दबाव बनाकर लाभ कमाया. यही वजह है कि अंग्रेजों के जाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के बजाय राजनीतिक पार्टियां कंपनियों की तरह देश पर राज करने लगीं. कभी कांग्रेस की सरकार के रूप में तो कभी भाजपा की सरकार के रूप में.

कभी सपा सरकार तो कभी बसपा सरकार के रूप में. भारतीय लोकतंत्र की विडंबना यही है कि कोई भी सरकार सम्पूर्ण भारत की सरकार आज तक नहीं बन सकी. आरक्षित चुनाव-चिन्हों पर जीतने वाले प्रतिनिधियों की गिनती के आधार पर जो ज्यादा हुए, उनकी पार्टी ने सरकार बना ली. फिर बचे लोगों ने खुद को विपक्ष मान लिया और इसी तरह राजकाज चलता रहा. कभी यह सत्ता में तो कभी वह. दलों के आरक्षित चुनाव चिन्ह ही टिकट के रूप में नीलाम होते रहे और राजनीति देश में भ्रष्टाचार को पालती-पोसती रही.

चुनाव लड़ने की योग्यता संविधान के अनुच्छेद-84 में निर्धारित है. संविधान के इस अनुच्छेद के अनुसार वही व्यक्ति चुनाव लड़ेगा जो भारत का नागरिक हो, मतदाता हो और बालिग हो. स्पष्ट है कि कोई दल, निकाय या गुट इस निर्धारण की परिभाषा के दायरे में नहीं आता. यही वजह है कि दलों का नाम ईवीएम पर नहीं छपता है.

फिर ईवीएम पर चुनाव चिन्ह कैसे और क्यों छपने लगे? यह एक गंभीर सवाल है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद-75 में सरकार बनाने की व्यवस्था दी गई है. इस अनुच्छेद में यह कहीं नहीं कहा गया है कि जिस समूह के पास प्रतिनिधि ज्यादा होंगे उसे सरकार बनाने के लिए बुलाया जाएगा. बल्कि यह कहा गया है कि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को नियुक्त करेंगे और प्रधानमंत्री अपना मंत्रिमंडल चुनेगा.

बहरहाल, लोकतंत्र मुक्ति आंदोलन के संयोजक प्रताप चंद्रा कहते हैं कि समानता और अवसर की समता के लिए लोकतंत्र मुक्ति आंदोलन पिछले कई साल से सतत्‌ संघर्ष के बाद इस मुकाम तक पहुंचा कि भारी जन-दबाव में चुनाव आयोग ने यह फैसला किया कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में इलेक्ट्र्रॉनिक वोटिंग मशीन पर सभी प्रत्याशियों की फोटो लगाई जाएगी. संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक भविष्य में ईवीएम पर पार्टी के चुनाव चिन्ह के बजाय केवल प्रत्याशी की फोटो लगने की उम्मीद है. इससे यह फायदा होगा कि प्रत्याशी अपने क्षेत्र के मतदाताओं से अपनी फोटो को ही अपना चुनाव-चिन्ह बताकर प्रचार कर सकेंगे और जनता के बीच परिचित चेहरे को ही स्वीकार्यता मिल सकेगी.

ईवीएम पर चिन्ह (आकृति) लगाने के पीछे अशिक्षित मतदाताओं को सुविधा प्रदान करने का तर्क था. इस तर्क को भी आगे बढ़ाएं तो ईवीएम पर प्रत्याशी की फोटो अशिक्षित मतदाताओं के लिए अधिक सुविधाजनक हो जाएगी. हालांकि देश में अब निरक्षरता का प्रतिशत भी काफी कम रह गया है. ईवीएम पर प्रत्याशी की फोटो लगने से चुनाव चिन्ह की भूमिका समाप्त होने की दिशा में है. चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिए जनता के बीच रहकर काम करना जरूरी हो जाएगा. ईवीएम से चुनाव चिन्ह हटते ही जनता द्वारा संवैधानिक सरकार बन पाएगी और जनहित में काम हो सकेगा.

प्रताप चंद्रा कहते हैं कि प्रधान के चुनाव में चुनाव चिन्ह नहीं लगाया जाता, ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि बिना चुनाव चिन्ह का कोई व्यक्ति प्रधान तो बन सकता है लेकिन प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता. उन्होंने कहा कि ईवीएम से चुनाव चिन्ह हटाने और प्रत्याशी का चेहरा लगाए जाने का अभियान एक व्यापक आंदोलन की शक्ल में तब्दील हुआ. यही वजह है कि राष्ट्रीय राष्ट्रवादी पार्टी के बैनर से शुरू हुए अभियान को लोकतंत्र मुक्ति आंदोलन से जोड़ा गया.

इसके लिए पार्टी खत्म कर दी गई और इस आंदोलन को गैर-राजनीतिक बनाए रखने के उद्देश्य से प्रताप चंद्र ने राष्ट्रीय राष्ट्रवादी पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और पार्टी को आंदोलन में विलीन कर दिया. पहले लोकतंत्र मुक्ति मोर्चा बना था, लेकिन उसे भी हटा कर इसे आंदोलन की शक्ल में बदला गया, क्योंकि प्रताप चंद्रा का मानना है कि संगठनात्मक ढांचा आंदोलन को लोकतांत्रिक नहीं रहने देता. इसी कारण राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन, अन्ना समर्थक गांधीवादी संघ व अन्य कई संस्थाओं-संगठनों के सहयोग से चलता हुआ लोकतंत्र मुक्ति आंदोलन व्यापक शक्ल ले पाया.

आंदोलन के तहत उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र समेत कई अन्य राज्यों में खूब धरना-प्रदर्शन हुए, हस्ताक्षर अभियान चला, पोस्टकार्ड अभियान चला और दिल्ली में धरना-प्रदर्शनों के साथ-साथ चुनाव आयोग से लगातार वार्ताएं चलती रहीं. राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के नेता प्रदीप कुमार नागपुरकर भी लोकतंत्र मुक्ति आंदोलन के अनुभवों को साझा करते हुए बताते हैं कि ईवीएम पर प्रत्याशियों की फोटो लगाने के लिए चले संघर्ष ने किस-किस तरह का दौर देखा.

लोकतंत्र मुक्ति आंदोलन से जुड़े अजीत नारायण कहते हैं कि राजनीतिक पार्टियां न चुनाव लड़ती हैं और न लड़ सकती हैं. इसीलिए पार्टियों का नाम कभी वोटिंग मशीन पर नहीं होता. फिर भी सरकार बनाने के लिए पार्टियां ही आगे आ जाती हैं और जन प्रतिनिधि काफी पीछे छूट जाता है. चुनाव आयोग ने पार्टियों के लिए चुनाव चिन्ह आरक्षित कर और उसे ईवीएम पर लगा कर लोकतंत्र का काफी नुकसान किया है.

उल्लेखनीय है कि ईवीएम से चुनाव चिन्ह हटाकर प्रत्याशियों का चेहरा लगाए जाने की मांग के तहत देश के 258 जिलाधिकारियों के माध्यम से मुख्य चुनाव आयोग को चेतावनी पत्र दिया गया था. देशभर के 32 हजार निर्दलीय प्रतिनिधियों (चुनाव लड़कर करोड़ों वोट पाने वाले निर्दलीय नेताओं) ने चुनाव आयोग में पोस्टकार्ड पर पेटीशन लिखकर ईवीएम से चुनाव चिन्ह हटाने के लिए अपील दाखिल की थी. उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाईक ने भी मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी को चुनाव में अवसर की समानता सुनिश्चित कराने के लिए पत्र लिखा था.

अपने पत्र में राम नाईक ने कहा था कि चुनाव में कुछ प्रत्याशी अभी से अपने चुनाव चिन्ह का प्रचार कर रहे हैं जबकि निर्दलीय प्रत्याशियों को उसका चिन्ह क्या होगा, इसका पता भी नहीं रहता. लिहाजा, निर्दलियों को भी पहले से ही चुनाव चिन्ह मिले या पार्टी प्रत्याशियों का भी प्रचार रोका जाए. बहरहाल, वोटिंग मशीन पर सभी प्रत्याशियों की फोटो लगने के बाद चुनाव चिन्हों का औचित्य समाप्त हो गया है. इस आंदोलन को देशव्यापी बनाने के लिए 18 राज्यों के 3 करोड़ 70 लाख वोट पाए लगभग 36 हजार 500 निर्दलीय प्रत्याशियों से सम्पर्क कर उनका समर्थन मांगा गया था.

टीवी पर पार्टी का चुनाव चिन्ह दिखाने के खिलाफ याचिका

टेलीविज़न पर चलने वाले विभिन्न प्रोग्राम के तहत तमाम राजनीतिक लोगों द्वारा अपने साथ अपनी पार्टी का चुनाव चिन्ह भी प्रदर्शित किए जाने के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ बेंच में वाद दायर किया गया है. वादी प्रताप चंद्रा की अधिवक्ता डॉ. नूतन ठाकुर ने बताया कि दिल्ली हाईकोर्ट के 07 जुलाई 2016 के एक आदेश के क्रम में चुनाव आयोग ने 07 अक्टूबर 2016 को एक परिपत्र जारी कर सभी राजनीतिक दलों से किसी भी सार्वजनिक या सरकारी स्थान और सरकारी धन से अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह का प्रचार करने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी थी.

प्रताप चंद्रा ने पार्टी नेताओं द्वारा टीवी चैनल के माध्यम से अपने चुनाव चिन्ह का प्रचार किए जाने को रोकने की चुनाव आयोग से मांग की थी, लेकिन आयोग ने 24 जनवरी 2017 के आदेश से इसे खारिज कर दिया था. चुनाव आयोग के उसी फैसले को कोर्ट में चुनौती दी गई है. डॉ. नूतन ठाकुर ने कहा कि किसी के निजी आवास या पार्टी कार्यालय के वे हिस्से जो टीवी चैनल के जरिए प्रसारित होते हैं, विभिन्न अधिनियमों और कोर्ट की परिभाषा में सार्वजनिक स्थान की परिभाषा के दायरे में आते हैं, लिहाजा इन पर भी चुनाव आयोग का निर्देश लागू होना चाहिए.

संविधान से खेलती रहीं चंद हस्तियां

आजादी के बाद भले ही भारत को लोकतांत्रिक देश कहा जाने लगा हो लेकिन वास्तव में चंद वीवीआईपी ही भारत के भाग्य विधाता बने बैठे हैं. पहले भी देश को एक राजा चलाता था. आज भी देश एक राजा ही चलाता है. हम आज भी गुलाम हैं. इस गुलामी का पहला प्रमाण 25 जून 1975 को समूची दुनिया ने तब देखा था, जब 19 महीनों के लिए आजाद भारत की जनता के सभी मूल अधिकारों को जब्त कर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने

आपातकाल के जरिए देश के लोगों को पुनः गुलाम बना दिया था. दूसरा प्रमाण 08 नवंबर 2016 की शाम तब दिखा, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 व 1000 के नोट बंद करने का फरमान सुना कर पूरे देश में खलबली मचा दी. आजादी का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ. सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में उस समय मात्र 18.35 प्रतिशत जनता साक्षर थी. ऐसे में वोट देने के प्रथम अवसर, देश बंटवारे की उथल-पुथल, भारत में अपने-अपने राज्यों का विलय करने वाले राजाओं के रुतबों की जद्दोजहद के चलते प्रत्याशियों का नाम और क्रम संख्या पढ़ने में जनता अक्षम थी.

लिहाजा, चुनाव चिन्हों का फॉर्मूला निकाला गया. अलग-अलग बैलेट बॉक्सों के ऊपर चुनाव-चिन्ह चिपकाए गए. एक जैसे मतपत्रों पर मोहर लगाकर मनपसंद चिन्ह वाले बॉक्स में डालने को कहा गया. लेकिन पहले ही चुनाव में बैलेट बॉक्सों को लूट कर विरोधियों के संघर्ष को समाप्त कर दिया गया और एक ही संगठन के प्रत्याशियों की जीत हुई.

दूसरे चुनाव 1957 में भी बैलेट बॉक्सों को लूटने से रोका नहीं जा सका. तीसरे चुनाव 1962 के बाद 24 मई 1964 को नेहरू के पश्चात इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, राजनारायण आदि वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं में प्रधानमंत्री बनने की होड़ पैदा हुई. विरोधाभास के बावजूद सर्वसम्मति से सहज सरल व्यक्तित्व वाले लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने. 1965 के युद्ध में पाकिस्तान को पटकनी देने के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने अपनी संकल्प शक्ति व नेतृत्व क्षमता से पूरी दुनिया को प्रभावित किया.

जिससे इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनने के सपने बिखरते दिखाई देने लगे. आखिरकार 11 जनवरी 1966 में ताशकंद में शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. इंदिरा गांधी के कारनामों से कांग्रेस में फूट पड़ गई. सत्ता की ताकत का दुरुपयोग करते हुए इंदिरा गांधी ने भारत निर्वाचन आयोग के चापलूस अधिकारियों के बूते कांग्रेस (आई) नाम से नया राजनीतिक दल बना लिया और चुनाव चिन्ह के रूप में हाथ का पंजा हमेशा के लिए आरक्षित करा लिया.

जबकि संविधान या जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1950-51, भारत निर्वाचन आयोग नियमावली-1961 सहित किसी भी कानूनी दस्तावेज में राजनीतिक दल का उल्लेख नहीं था. इंदिरा के आपातकाल के बाद 1977 में छठवें लोकसभा चुनाव और 1980 में सातवें लोकसभा चुनाव हुए और इंदिरा गांधी प्रचंड बहुमत से जीतीं. 1984 में नौवें लोकसभा चुनाव भावनाओं के आधार पर हुए.

नेहरू परिवार के उत्तराधिकारी राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. मगर उन्होंने गुलाम लोकतंत्र की हत्या करते हुए न सिर्फ 52वां संविधान संशोधन किया, बल्कि दल-बदल विरोधी कानून भी बना डाला. सारे विधायक और सांसद पार्टी के गुलाम बनकर रह गए. 1989 में वीपी सिंह ने राजनीतिक दलों को कानूनी आधार देने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 में संशोधन किया. 23 सितंबर 2016 को सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षित चुनाव चिन्हों के बहिष्कार और दलों के विरुद्ध बगावत करने के लिए भारत निर्वाचन आयोग को ईवीएम में ‘नोटा’ स्थापित करने का आदेश जारी कर दिया. 2011 की जनगणना के अनुसार देश की साक्षरता 74.05 प्रतिशत है.

अतः अब राजनीतिक दलों के आरक्षित चुनाव चिन्हों को ईवीएम में लगाने का कोई मतलब ही नहीं रह गया है. वैसे भी दिल्ली उच्च न्यायालय ने 07 अक्टूबर 2016 को राजनीतिक दलों के आरक्षित चुनाव चिन्हों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया है. अतः अब आवश्यक हो गया है कि राजनीतिक दलों के आरक्षित चुनाव चिन्हों का एकाधिकार खारिज हो और स्वच्छ छवि के प्रत्याशी को देखकर मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें.

चुनाव प्रणाली में संशोधन की लड़ाई का मज़बूत केंद्र बन रहा सीतापुर

ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध बगावत की चिंगारी फूंकने वाला जनपद सीतापुर अब आगामी चुनावों में चुनाव प्रणाली में क्रांतिकारी संशोधन की लड़ाई का गढ़ बनने जा रहा है. सीतापुर में लोकतंत्र मुक्ति मंच के बैनर से ‘गांव-गांव अपनी सरकार, यूपी में निर्दल सरकार’ के नारे के साथ सीतापुर की सभी सीटों पर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव लड़ने जा रहे हैं. सीतापुर के निर्माण की लड़ाई के लिए सीतापुर में जन मुद्दों पर सक्रिय 11 संगठनों का एक साझा मंच बना है, जिसे लोकतंत्र मुक्ति मंच नाम दिया गया है.

पीएन कलकी इस संगठन के अध्यक्ष हैं. इस साझा मंच ने अपने संकल्पना पत्र के जरिए मौजूदा चुनावी प्रणाली में क्रांतिकारी संशोधनों के लिए कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं. संकल्पना पत्र के प्रवक्ता डॉ. बृजबिहारी का कहना है कि अगर जेल में बंद आदमी चुनाव लड़ेगा तो जेल में बंद लोगों को भी वोट देने का अधिकार मिलना चाहिए. वर्तमान में 165 विधायक आपराधिक मामलों में चार्ज शीटेड हैं. विधानसभा में सरकार बनाने के लिए कुल 202 विधायकों की आवश्यकता होती है. माफियाओं के मुख्यमंत्री बनने की संभावना को समाप्त किया जाना चाहिए. इसके अलावा राजनीतिक दलों को आसानी से चंदा लेने की छूट पर पूर्णतया रोक लगाई जानी चाहिए.

नौवीं लोकसभा के चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम कानून-1951 की धारा-29 को संशोधित कर इसे अपने फायदे के लिए लचीला बनाया था. डॉ. बृजबिहारी ने कहा कि ईवीएम से आरक्षित चुनाव चिन्हों को तत्काल हटाया जाना चाहिए. जिससे राजनीतिक दलों द्वारा खड़े किए गए प्रत्याशियों को मिलने वाली अनुचित बढ़त को रोका जा सके. संविधान के निर्देशानुसार चुनाव लड़ने का अधिकार केवल निर्वाचक (अनुच्छेद-326) को है.

कोई भी राजनीतिक दल निर्वाचक नहीं हो सकता. फिर भी भारत निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों को चुनाव चिन्ह आरक्षित कर दिया. इन्हीं चुनाव चिन्हों को ईवीएम अथवा मतपत्रों पर आरक्षित करके समूचे लोकतंत्र को दल-तंत्र में और दल-तंत्र ने समूचे शासन-प्रणाली को दलाल-तंत्र में तब्दील कर दिया है. राजनीतिक दलों के आरक्षित चुनाव चिन्हों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए.

07 अक्टूबर 2016 को दिल्ली उच्च न्यायालय ऐसा आदेश दे चुकी है. भारत निर्वाचन आयोग को ईवीएम से आरक्षित चुनाव चिन्हों को तुरन्त हटाना चाहिए, क्योंकि आयोग के पास चुनाव चिन्हों को ईवीएम पर लगाने के लिए कोई उचित दलील नहीं रह गई है. चुनाव चिन्हों का फॉर्मूला तब दिया गया था, जब सरकारी आंकड़ों में देश की साक्षरता 18.35 प्रतिशत थी. जबकि 2011 की जनगणना के अनुसार देश की

साक्षरता 74.04 प्रतिशत हो गई है. ऐसे में राजनीतिक दलों के आरक्षित चुनाव चिन्हों के लगाए जाने का कोई औचित्य ही नहीं है. बृजबिहारी कहते हैं कि 26 दिसम्बर 2014 को सिविल सोसायटी द्वारा निर्वाचन आयोग के समक्ष जोरदार प्रदर्शन हुआ था, जिसके बाद ही भारत निर्वाचन आयोग ने 01 मई 2015 के बाद देश के सभी लोकसभा और विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों की फोटो को ईवीएम पर लगाने का आदेश जारी किया था. डॉ. बृजबिहारी कहते हैं कि वर्ष 1991 में मुख्य निर्वाचन आयुक्त बने टीएन शेषन ने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है कि उन्होंने पदभार ग्रहण करते समय आयोग की दीवारों पर टंगी देवी-देवताओं की तस्वीरें और आयोग की कार्यशैली देख कर कहा था कि आयोग भगवान भरोसे ही चल रहा है. शेषन ने निर्वाचन आयोग की कार्यशैली में क्रांतिकारी बदलाव किया.

बृजबिहारी बताते हैं कि आरक्षित चुनाव चिन्हों के बहिष्कार एवं राजनीतिक दलों के विरुद्ध निर्वाचकों को ताकतवर तरीके से खड़ा करने के उद्देश्य से ही सीतापुर से 44580 पोस्टकार्डों पर हस्तलिखित याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय भेजी गई थीं और 15वीं लोकसभा चुनाव के दौरान भारत निर्वाचन नियमावली- 1961 के नियम 49 (ज) को आधार बनाकर राजनीतिक दलों के आरक्षित चुनाव चिन्हों के बहिष्कार का आंदोलन प्रारंभ किया गया था. लोकसभा सीट धौराहरा में 78 निर्वाचकों ने पोलिंग बूथ पर जाकर आरक्षित चुनाव चिन्हों का बहिष्कार किया था. जबकि 2012 के विधानसभा चुनावों में जनपद सीतापुर में ही कुल 17170 निर्वाचकों ने चुनाव चिन्हों का बहिष्कार किया था. आखिरकार 23 सितंबर 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान लेते हुए ‘नोटा’ का विकल्प रखने का आदेश दिया था.

16वीं लोकसभा के चुनाव में धौरहरा लोकसभा सीट से 8138 तथा सीतापुर सीट से 12682 निर्वाचकों ने आरक्षित चुनाव चिन्हों का बहिष्कार करते हुए ‘नोटा’ का प्रयोग किया था. इंडिया अगेंस्ट करप्शन के पूर्वी भारत के प्रभारी और लोकतंत्र मुक्ति मंच के अध्यक्ष पंकज नाथ कलकी कहते हैं कि मौजूदा चुनाव प्रक्रिया राज्यपाल की अधिसूचना के खिलाफ है. दरअसल, राज्यपाल चुनाव अधिसूचना जारी कर विधानसभा गठन करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों के निर्वाचकों से सदस्य चुनने की अपील कर रहे हैं. जबकि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह चुनवा कर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे रहा है. लिहाजा चुनाव राज्यपाल की अधिसूचना के गजट के खिलाफ है.

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