प्रयागराज में अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेन्द्र गिरी की संदिग्ध मौत के वास्तविक कारणों का खुलासा तो निष्पक्ष जांच के बाद ही होगा। कुछ लोगों को शंका है कि उनकी ‘हत्या’ हुई, लेकिन शुरूआती सबूत उनकी आत्महत्या की ओर इशारा करते हैं। किसी धार्मिक साधु-संत की आत्महत्या इसलिए चौंकाती है, क्योंकि माना जाता है कि ऐसे लोगों का काम ऐहिक सुखों से परे आध्यात्मिक जीवन जीना और समाज को मुक्ति का मार्ग दिखाना है। लेकिन नरेन्द्र गिरी की मौत उस काले सच की ओर भी इशारा कर रही है, जिसमें आज साधु समाज का एक बड़ा वर्ग गले-गले तक डूबा लगता है। नरेन्द्र गिरी का जो सुसाइड नोट (अगर वो सही है तो) मिला है, उसमें साफ कहा गया है कि महंतजी को अपने ही शिष्य द्वारा उनके एक महिला से सम्बन्धों को लेकर ब्लैकमेल का भय सता रहा था। वो अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा धूल में मिल जाने की आशंका से परेशान थे। लिहाजा एक लांछित जीवन जीने की जगह उन्होंने खुद ही दुनिया छोड़ने का फैसला किया। लेकिन नरेन्द्र गिरी की यह मौत किसी सात्विक संत की जीवित समाधि की तरह परमात्मा में लीन होने की परमेच्छा से ऐहिक जीवन को त्यागने की जैसी नहीं है। यह तो शुद्ध रूप से सांसारिक स्वार्थों, क्लेश और साजिशों से आहत होकर मौत को गले लगाना ज्यादा है।
यूं धर्म चाहे कोई सा हो, उसका काम मनुष्य को, समाज को एक आध्यात्मिक संबल देता है, उसे सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना है। धर्म ईश्वर के रूप में एक सर्वोच्च शक्ति से डरने का पाठ पढ़ाता है। यानी धर्म एक तरह समाज का आध्यात्मिक रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखता है। इसके पीछे मूल भावना यही है कि समाज नैतिक नियमन के साथ संचालित हो। सत्कर्म का इनाम मनुष्य को मोक्ष के रूप में और दुष्कर्म की सजा आत्मा के भटकने के रूप में मिले। हिंदू सहित दुनिया के सभी धर्मों की स्थापना, विकास और विस्तार इसी उद्देश्य के साथ हुआ है। लेकिन इसका अतिवाद अपने ही धार्मिक दुराग्रहों को थोपने के रूप में दिखता है। कुछ लोग धर्म को पूरी तरह नकारते हैं, बावजूद इसके दुनिया की अधिकांश आबादी धर्म की सत्ता को न केवल स्वीकारती है बल्कि कई बार धर्मांध होकर उसी को परम सत्य मान बैठती है।
महंत नरेन्द्र गिरी मौत प्रकरण की सुइयां जिस दिशा में जा रही हैं, वो सांसारिक निवृत्ति का मार्ग स्वीकारने वाले साधु-संत समाज के उस भीतरी काले सच की ‘सत्य कथा’ है, जिसे बेनकाब होना बेहद जरूरी है। समाज को यह जानने का पूरा हक है कि धर्म सेवा की आड़ में आखिर हो क्या रहा है ( और यह बात सभी धर्मों पर लागू है)? भगवा वस्त्रो के पीछे कौन से चरित्र फल-फूल रहे हैं? क्यों धर्म के नाम पर अकूत संपत्तियां इकट्ठा करना, आध्यात्मिक जीवन की आड़ में हर तरह के सुखों का उपभोग करना, मठाधीश बनकर उनपर कुंडली मारकर डटे रहना, धर्म सत्ता और राजसत्ता का काॅकटेल बनने देना, स्वयं तमाम इंद्रिय सुख भोग कर बाकी समाज को भगवद भक्ति का कोरा उपदेश देना, यह जानते हुए कि मरने के बाद फूटी कौड़ी भी साथ नहीं जाने वाली है, सम्पत्तियों के मुकदमें कोर्ट में लड़ना, इसके लिए एक दूसरे की जान तक लेना, तमाम तरह के नशों को मुक्ति का माध्यम मानना धर्म सत्ता का सामान्य चरित्र होता जा रहा है?
महंत नरेन्द्र गिरी मामले में भी यही क्षुब्धकारक सत्य सामने आता दिख रहा है।
महंतजी को अपने ही शिष्यों द्वारा उनके चरित्र हनन का भय था। पुलिस ने इस मामले में उनके तीन चेलों को गिरफ्तार किया है। यह सिलसिला और भी लंबा हो सकता है। दूसरे, मंहतजी ने सिर्फ एक भय के कारण खुदकुशी कर ली हो, ऐसा नहीं लगता। उनका रसूख इतना था कि वो चाहते तो ऐसे ब्लैकमेलर शिष्यों को आसानी से ठिकाने लगा सकते थे। महंत नरेन्द्र गिरी की संत समाज और राजनेताओ में भी बड़ी प्रतिष्ठा थी। लेकिन कुछ ऐसा जरूर है, जिसकी वजह से उन्होंने अपने गले में फंदा डालना ही बेहतर समझा। कई और भी राज होंगे, जो सही जांच के बाद सामने आएंगे। शायद इसीलिए सुसाइड नोट में नरेन्द्र गिरी ने साफ तौर कहा है कि मेरी मौत की जिम्मेदारी आनंद गिरि, आद्या तिवारी और संदीप तिवारी की है। उन्होंने पुलिस से इन लोगों कर एक्शन लेने का अनुरोध किया है ताकि मौत के बाद उनकी आत्मा को शांति मिले।
यहां एक सवाल मौजूं है कि हिंदुओ में साधु संतों की संख्या आखिर है कितनी? मोटे तौर पर माना जाता है कि यह संख्या करीब 1 करोड़ के आसपास है। यानी देश में हिंदुओ की आबादी का लगभग एक फीसदी। यह वो आबादी है, जो धर्म सेवा के लिए खुद के जीवन को समर्पित करना मानती है। हिंदुओ में भी कई पंथ और सम्प्रदाय हैं, लेकिन मुख्य धारा सनातन धर्म की है। सनातन धर्म में संतों के 15 अखाड़े हैं, जिनके अपने नियम-कायदे हैं। आदि शंकराचार्य ने देश भर चार पीठो की स्थापना की थी, जिनके अधिष्ठाता जगद्गुरू शंकराचार्य हैं। लेकिन हकीकत में देश में दर्जन भर से भी ज्यादा स्वघोषित शंकराचार्य अलग अलग पीठों पर जमे हुए हैं। और भी कई अलग अलग मठ, आश्रम भी काम कर रहे हैं। इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
इनके अलावा नागा साधुओ की अलग श्रेणी और कर्तव्य हैं। संत समाज में स्त्रियां भी शामिल हैं और अब तो किन्नर अखाड़ा भी स्थापित हो गया है। इन तमाम मठों, आश्रमों और मंदिरों के पास अकूत सम्पत्ति है, जो श्रद्धालुओ द्वारा इस उद्देश्य से दान दी गई थी, या दान दी जाती है कि धर्म सत्ता के इन श्रेष्ठि जनों को किसी अभाव का सामना न करना पड़े। हालांकि यह बात ही अपने आप में विरोधाभासी है कि जो लोग समाज को सांसारिक सुखों से परावृत्त होने का उपदेश देते हैं, भोली आस्था के चलते समाज उन्हीं के हर सांसारिक सुख का ध्यान रखने के लिए एडी चोटी का जोर लगा देता है।
इस प्रश्न का समाधानकारक उत्तर किसी के पास नहीं है कि ईश्वर की भक्ति के लिए इतना सब तामझाम, इतने सुख-साधन क्यों जरूरी है? सन्यास का मार्ग इच्छाओ के दमन और उन पर विजय पाने का मार्ग है। लेकिन ज्यादातर मामलों में तो इच्छाअो का अंत ही दिखाई नहीं पड़ता। बेशक कई साधु-संत आध्यात्मिक साधना, धर्मशास्त्रों का अध्ययन, निरूपण, सृजन आदि करते हैं। प्रवचन देते हैं। लोगो को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित भी करते हैं। इसीलिए समाज उन्हें आराध्य और ईश्वर तुल्य मानता है। मानकर कि इनके पास वो बूटी है, जो मनुष्य को ऐहिक बंधनो से मुक्त करती है। सच्चे संत को तो कुछ भी नहीं चाहिए। वह मोह-माया से परे है। लेकिन हकीकत यह है कि आज साधु-संत बनना भी एक धंधे में तब्दील हो गया है। ‘आध्यात्मिक लूट’ के कारोबार में बदल गया है। इसी का नतीजा है कि हम राम रहीम, आसाराम, रामपाल जैसे कथित संतो और धर्माचार्यों को देख रहे हैं, जो आज जेल में हैं। कई और भी हैं, जिनके चेहरे अभी सामने नहीं आए हैं। यह बात अलग है कि अंधभक्त इसे भी गुरू की ‘लीला’ का ही एक भाग मानते हैं।
दुर्भाग्य से संतो के बीच हमे जो प्रतिस्पर्द्धा तर्क-वितर्क और खंडन-मंडन धर्म के मूल्यों, नियम-कायदों को लेकर दिखाई देनी चाहिए थी, वो आज मठ-महंतों में गद्दी की छीना- झपटी, आजीवन उस पर कुंडली मार पर बैठने, सम्पत्तियों को हड़पने और हर तरह के राग- रंग को उपभोगने की राक्षसी इच्छा के रूप में ज्यादा नजर आ रही है। इसे राजसत्ता का भी परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन है। सवाल तो यह उठता है कि आखिर ऐसे साधु-संत वास्तव में कर क्या रहे हैं, धर्म की कौन-सी सेवा कर रहे हैं, मुक्ति का कौन-सा मार्ग दिखा रहे हैं? क्यों धार्मिक मठाधीश अब स्वयं ही सत्ताधीश बनने का लोभ पाले हुए हैं? हालांकि वर्तमान परिस्थिति में ऐसे सवाल पूछना भी ‘धर्मद्रोह’ हो सकता है। और फिर जब राजनेताओ, समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों की भी जवाबदेही है तो धर्मसेवियों की सत्ता इससे परे कैसे हो सकती है? आखिर समाज ही तो इन्हें पोसता और सिर पर बिठाता है।
महंत नरेन्द्र गिरी की मौत के बहाने इन तमाम सवालों के जवाब मिलने चाहिए। क्योंकि बहुतेरी खामियों के बाद भी संतो की छवि जनमानस में मंदिर में जलने वाली अगरबत्ती की सुगंध की तरह है। जिसमें एक पवित्रता और शुचिता का भाव सदा तैरता रहता है। लेकिन साधु-संतो की दुनिया का वो चेहरा भी उजागर होना चाहिए जो वास्तव में एक मुखौटा भर है और जहां भगवा शामियाने में आपराधिक, षड्यंत्री, लोभी और कामुक लोगों ने अपने आशियाने बना लिए हैं। और यही सब करना है तो संत बनने का पाखंड किसलिए ?