सचमुच हैरत की बात है कि देश में बिहार में विधानसभा चुनाव एवं मप्र सहित कई राज्यों में उपचुनाव चल रहे हैं, लेकिन आसमान छूते आलू प्याज़ के भाव कहीं चुनावी मुद्दा नहीं है। आलू को छोड़ भी दें तो कम से कम प्याज से तो ये उम्मीद रहती ही है कि उसकी गरीब की थाली से बढ़ती दूरी राजनीतिक दलों को चुनाव में सबक सिखाएगी। क्योंकि इतिहास में ऐसा होता रहा है कि प्याज़ ने अच्छे-अच्छे को रूला दिया। लेकिन इस बार वैसा कुछ होता नहीं दिख रहा। लोग 100 रूपए किलो की प्याज़ और उसके हमसफर आलू को 50 रू. किलो के भाव से खरीद कर भी खामोश हैं। मानो कुछ हुआ ही नहीं। घर का बजट बिगड़ने का रोष चुनावी चर्चा में कहीं नजर नहीं आ रहा।

यह बात सही है कि प्याज की माफिक आलू की वो राजनीतिक अहमियत कभी नहीं रही। कारण यह है कि आलू को हमेशा ‘आलू’ ही समझा गया। दो दशक पहले केवल राजद सुप्रीमो और ‍िबहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने आलू को ‘जैसे समोसे में आलू, वैसे बिहार में लालू’ कहकर आलू को एक अलग इज्जत बख्‍शी और बिहार में अपनी अपरिहार्यता पारिभाषित की थी। लालू जब तक सत्ता में रहे, विरोधी भी आलू को याद करते रहे। उसके बाद फिर आलू, आलू की माफिक ही दिन काट रहा है।

यूं आलू हमारी सब्जियों और दूसरे तमाम व्यंजनों का एक जरूरी घटक है। 17 वीं सदी में पुर्तगाली इसे भारत में लेकर आए। वो इसे बताता कहते थे। बाद में अंग्रेजों ने सबसे पहले बंगाल में इसकी खेती शुरू कराई। अब तो आलू देश के हर कोने में मिलता है। आलू की खासियत यह है कि वह तकरीबन हर रूप में खाया जाता है, लेकिन उसे अपनी इस विविधता का कभी गुमान नहीं रहा। आलू वो सब्जी है, जो सर्व सुलभ होने के साथ- साथ इंटरनेशनल पास की तरह हर जगह स्वीकार्य है। आलू को नकारने वाले लोग दुनिया में कम ही हैं। यहां तक कि उपवास में देसी प्याज-लहसुन भले वर्जित हों, लेकिन चार सौ साल पहले विदेश से आया आलू बेझिझक चलता है। यह उबालकर, भूनकर खाया जा सकता है। फरयाली नमकीन में आलू चिप्स की अहम हिस्सेदारी है। जल्दी पकने, लंबा टिकने और कीमत में आम आदमी की पहुंच के कारण आलू की महत्ता सदा बनी रही है। आलू की सूखी, झोलदार सब्जी से लेकर आलू टिकिया, आलू पराठे, आलू दम, आलू चिप्स, आलू पापड़ यानी हर जगह आलू की मौजूदगी दिखाई पड़ती है। घर में आलू-प्याज ‘पड़े’ रहना इस बात की आश्वस्ति है कि अचानक मेहमान आ भी जाएं तो सालन का संकट न हो।

वही गृहिणियों का भरोसेमंद आलू इस बार आंखे तरेर रहा है। अमूमन 10-15 रू. किलो बिकने वाला आलू इतना महंगा क्यों है, इसको लेकर कई बातें हैं। बताया जाता है कि देश में बीते कुछ सालो से आलू की कीमतें बहुत कम होने और उत्पादन लागत बढ़ने से आलू का रकबा घट गया है। सो, जो आ रहा है, वह महंगा है। हालांकि सरकार का कहना दूसरा है। पिछले दिनो केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने बताया था कि भारत में आलू उत्पादन बढ़कर 5 करोड़ 25 लाख टन तक पहुंच गया है। देश में बढ़ती आबादी और आलू की डिमांड  के चलते 2050 तक आलू की पैदावार 7 करोड़ टन से अधिक तक पहुंचाने का लक्ष्य है। वैसे देश में सबसे ज्यादा आलू पैदा करने वाला राज्य उत्तर प्रदेश है। इस सूची में मप्र का नंबर पांचवा है। अब तो हम आलू निर्यात भी कर रहे हैं।

बताया जा रहा है कि देश में कोल्ड स्टोरेज में आलू भरा पड़ा है, लेकिन मुनाफाखोरी के चलते व्यापारी उसे बाजार में नहीं ला रहे। लिहाजा आलू भी लग्जरी आयटम बनता जा रहा है। आम आदमी परेशान है कि सब्जी भी घर का बजट बिगाड़ रही है। वैसे चिंता सरकार की पेशानी पर भी है। केन्द्र सरकार ने आनन-फानन में 30 हजार टन आलू भूटान से आयात करने का निर्णय लिया है। यूं बाजार में बाउंड्री पर रहने वाला आलू हाफ सेंचुरी से कम में बात ही नहीं कर रहा। लगता है नए कृषि कानून आने के बाद जमाखोरों में कानून का डर नहीं रह गया है।
हालांकि आलू के भाव बढ़ने का सिलसिला तो जुलाई से ही शुरू हो गया था। लेकिन आलू यह तेवर डराने वाला नहीं था। यूं भी लाॅक डाउन और अनलाॅक में लोग जो मिल जाए, उसी को मुकद्दर मान कर जी रहे थे। लेकिन कोरोना का डर थोड़ा कम हुआ तो आलू भी हमे डराने लगा।

उधर आलू की मुंहबोली बहन प्याज के तेवर तो और ऊंचे हैं। वह आलू से डबल रेट पर बिक रही है। सरकारें आलू को भले भाव न दें, लेकिन प्याज से जरूर डरती आई हैं। क्योंकि प्याज में सरकारें उलटाने की ताकत है। इसी के चलते मोदी सरकार ने पिछले महीने ही प्याज के निर्यात और जमाखोरी पर लगाम लगा दी थी। लेकिन खुदरा सब्जी मार्केट पर उसका कोई खास असर होता नहीं दिख रहा है। प्याज फिर रईसों के किचन में जा बैठी है। अब कहा जा रहा है कि नई फसल आने पर ही आलू और प्याज दोनो के तेवर ढीले होंगे। हालांकि देश में प्याज का आयात जारी है, लेकिन भी उसके भाव सुनकर लोगों की आंख में आंसू आ रहे हैं।

फिलहाल लोगो के लिए आलू और प्याज खाना रईसी शौक के माफिक हो गया है। यहां तक कि किसानो को भी आलू का बीज काफी मंहगे दामों में खरीदना पड़ रहा है। आम लोगों ने भी घर में आलू-प्याज का कोटा घटाकर आधा कर दिया है। वैसे यह शोध का विषय है कि सब्जियों में आलू के साथ प्याज की यह ‘अमर जोड़ी’ कैसे बनी? क्योंकि दोनो की तासीर अलग-अलग है। आलू सरलमना है, कहीं भी धक जाता है, लेकिन प्याज उग्र है और हर जगह अपना असर जरूर दिखाती है। इन विपरीत स्वभावों के बाद भी लोग बोलते वक्त आलू के साथ प्याज का नाम जरूर लेते हैं। वैसे आलू के मुकाबले प्याज ज्यादा गुणकारी और कुछ हद तक स्वार्थी भी है। वह पेट में तो जाती है, लेकिन आंखों के रास्ते से और रास्ते को गीला करते हुए। कट्टर शाकाहारी प्याज देखना भी पसंद नहीं करते। लेकिन रेसिपी के शौकीन घर में प्याज का पर्याप्त स्टाक रखते हैं। सब्जी के रूप में आलू-प्याज की यह जोड़ी, इस बात की जमानत है कि उनकी मौजूदगी घर में सब्जी कौन सी और क्या बनाएं, इस दुविधा को खत्म करती है।

फिलहाल हैरानी की बात यह है कि कोई पार्टी चुनाव में महंगे आलू-प्याज को मुद्दा नहीं बना रही। रोजगार, विकास या ‍फिर हिंदू-मुसलमान मुददा बन रहे हैं, लेकिन सर्व धर्म समभावी आलू- प्याज की चुनावी सौदेबाजी में कोई जगह नहीं है। मतदाता भी महंगे आलू-प्याज खाकर खामोश सा है। क्या कहे और किससे कहे? आलू-प्याज खरीदने की औकात घटती जा रही है, यह बोलना भी अब खतरे से खाली नहीं है। चुनावों में तमाम बड़े बड़े वादे किए जा रहे हैं, लेकिन कोई भी यह नहीं कहता कि वो लोगों को आलू-प्याज सस्ते में उपलब्ध करा देगा।

वरिष्ठ संपादक

अजय बोकिल

‘सुबह सवेरे’

 

Adv from Sponsors