जाका गुरु अंधला, चेला खरा निरंध. अंधे-अंधे ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत…! कबीर की यह पंक्ति बिहार की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर बिलकुल सही बैठती है. राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आंकड़ों में चाहे जितनी शेखी बघार लें, लेकिन यह एक बड़ी सच्चाई है कि ग़लत बहाली नीति के कारण राज्य की बुनियादी शिक्षा का स्तर तेज़ी से गिर रहा है और चौपट होने के कगार पर है. पहले झटपट बहाली ने, फिर उसके बाद परीक्षा ने तो और भी बेड़ा गर्क कर दिया है. राज्य के कई निजी स्कूलों में एक तरफ जहां अंतरराष्ट्रीय मानक स्तर की प़ढाई कराई जा रही है, वहीं दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों में अनिवार्य शिक्षा के नाम पर स़िर्फ खानापूर्ति की जा रही है. यहां के ज़्यादातर स्कूलों की स्थिति यह है कि भवन है, तो शिक्षक नहीं, शिक्षक है, तो भवन नहीं, और जहां दोनों है, वहां बच्चे नहीं हैं. हाल यह है कि राज्य के सरकारी स्कूलों में शिक्षा व्यवस्था एक भद्दा मज़ाक बनकर रह गई है, जिससे बच्चों का भविष्य अंधकारमय प्रतीत हो रहा है. शहर स्थित स्कूलों में जहां शिक्षकों का जमावड़ा है, वहीं सुदूर ग्रामीण इलाक़ों में कई स्कूल शिक्षक के अभाव में बंद हैं. स्कूलों में शिक्षा स्तर की स्थिति यह है कि सातवीं और आठवीं कक्षा के बच्चे ठीक से नाम लिखना भी नहीं जानते और तो और, शिक्षकों का भी यही हाल है. विशेषकर हाल में नवनियुक्त शिक्षकों की स्थिति तो काफी खास्ता है.
हालांकि यह सच है कि नीतीश सरकार ने शिक्षा में सुधार के नाम पर सरकारी थैली का मुंह पूरी तरह खोले दिया है. साल 2002-03 में राज्य सरकार द्वारा जहां 3259.58 करोड़ रुपये शिक्षा पर खर्च किए गए थे, वहीं साल 2006-07 में 5358.99 करोड़ रुपये तथा वित्तीय वर्ष 2008-09 में 7293.84 करोड़ रुपये खर्च किए गए. राज्य सरकार द्वारा बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं. इसमें सरकार काफी हद तक सफल भी रही, लेकिन इससे बच्चों के शिक्षा स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. शिक्षा स्तर में सुधार के मामले में यह सरकार फिसड्‌डी साबित हुई है. इसकी सबसे बड़ी वजह अयोग्य शिक्षकों की बहाली है. सरकार की ग़लत शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया से न स़िर्फ यहां के बच्चे अच्छे शिक्षकों से वंचित रह गए, बल्कि इससे भ्रष्टाचार का एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया है, जिसने शिक्षा व्यवस्था के साथ ही यहां पंचायती राज की भी दुर्गती कर दी है. शिक्षक नियुक्ति के नाम पर राज्य भर में करोड़ों-अरबों रुपये का खेल हुआ, जिसमें कथित रूप से कई ज़िला शिक्षा अधीक्षक, विकास आयुक्त, प्रखंड विकास पदाधिकारी से लेकर शिक्षा विभाग के अदना कर्मचारी एवं कई सफेदपोश तक संलिप्त नज़र आए. हाल-फिलहाल तक साइकिल की सवारी करनेवाले कई पंचायत प्रतिनिधियों के दरवाजे पर चार पहिया वाहन दिखाई पड़ने लगा. वहीं 50 हज़ार से दो लाख रुपये देकर शिक्षक की नौकरी प्राप्त करने वाले शिक्षकों के चेहरे पर नौकरी प्राप्त करने के बाद दक्षता परीक्षा के नाम पर हवाइयां उड़ने लगीं. लोगों ने सोचा था कि एक दो साल बाद उन्हें स्थायी कर दिया जाएगा एवं उनका वेतन पांच हज़ार रुपये मासिक से बढ़कर 25 हज़ार रुपये हो जाएगा, लेकिन ऐसे लोग अब निराश होने लगे हैं.

आश्चर्य होता है कि यही नीतीश कुमार जब रेलमंत्री थे, तब रेलवे में गैंगमैन की बहाली के लिए प्रतियोगिता परीक्षा का प्रावधान कराया था, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने शिक्षक जैसे महत्वपूर्ण पदों की नियुक्ति के लिए प्राप्तांक को आधार बनाया.

नतीजा यह हुआ कि प्रथम चरण की शिक्षक नियुक्ति में आधे से अधिक ऐसे लोगों को शिक्षक बनाया गया, जिनका सालों पहले किताबों से नाता टूट चुका था. यह वह दौर था जब मैट्रिक की परीक्षा में परीक्षार्थी के साथ पांच सात चिटार्थी यानी परीक्षा में नकल कराने वाले भी साथ जाया करते थे. परीक्षा केंद्र ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों में ही अधिक हुआ करता था, क्योंकि इसके लिए मोटी रक़म खर्च की जाती थी. परीक्षार्थियों को पुर्जा बनाकर दे दिया जाता था, जबकि कमजोर छात्र सीधे कापी ही बाहर भेज देते थे, जहां पूरी कॉपी सही उत्तर से रंग दी जाती थी. तेज-तर्रार अभिभावक यहीं नहीं रुकते थे, वे परीक्षा के बाद पोटली में सत्तू बांधकर कॉपी की पैरवी के लिए निकल पड़ते थे. ऐसे में स्वाभाविक है कि जो जितना बड़ा पैरवीकार होता था, उसके बच्चों को उतने अधिक नंबर मिलते थे.
लालू सरकार में बिहार में पहली बार 1944 शिक्षकों की नियुक्ति के लिए बीपीएससी द्वारा प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की गई. उसके बाद पुन:1999 में भी शिक्षकों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की गई. इस बीच दो और अनसूचित जाति/जनजाति तथा ट्रेंड शिक्षकों के लिए बीपीएससी द्वारा प्रतियोगिता परीक्षा आयोजित की गई. यही वजह है कि इस दौर में यहां जो भी शिक्षक नियुक्त हुए, उनकी प्रतिभा पर उंगली नहीं उठाई जाती है. आज भी राज्य के अधिकतर स्कूलों एवं ज़िला शिक्षा कार्यालयों का दारोमदार उन्हीं शिक्षकों पर है.
लेकिन नीतीश सरकार ने शिक्षक नियुक्ति में वही पुरानी पद्धति अपनाते हुए प्रथम चरण में दो लाख 12 हज़ार शिक्षकों को नियुक्ति किया, जबकि अभी एक लाख और शिक्षकों की नियुक्ति की जा रही है. इसके लिए काउंसिलिंग हो चुकी है. इस दौरान नियुक्ति में नंबर को आधार बनाया गया. सरकार का सीधा फंडा है- प्रमाणपत्र दिखाओ, नौकरी पाओ भले ही प्रमाणपत्र जाली ही क्यों न हो. जाली प्रमाणपत्र पर नौकरी पाने के कई मामले उजागर होने के बाद तो यही कहा जा सकता है. हालत यह है कि दूसरे चरण की शिक्षक नियुक्ति प्रक्रिया के दौरान भी राज्य भर में पैसों के लेने- देने का खेल खेला जा रहा है. बरबीघा के रमेश कुमार ने बताया कि एक मुखिया ने उनसे पंचायत शिक्षक में नौकरी लगवाने के नाम पर एक लाख रुपया लिया. सौदा दो लाख रुपये में तय हुआ है. बाक़ी का एक लाख नौकरी लगने के बाद देना होगा.
इसी तरह राजेश नाम के एक युवक ने बताया कि उसकी कपड़े की दुकान है. एक लाख रुपये रिश्वत दे देने से उसका व्यवसाय भी प्रभावित हुआ है. दूसरे चरण के पंचायत शिक्षकों की नियुक्ति कब होगी, इस बारे में अभी कुछ भी कहना मुश्किल है. जहां तक शिक्षकों के ज्ञान स्तर का सवाल है, शेरघाटी स्थित राजकीय प्राथमिक विद्यालय के एक शिक्षक को यह भी पता नहीं कि सुभाष चंद्र बोस कौन थे. नवनियुक्त शिक्षकों में से तक़रीबन 70 प्रतिशत शिक्षक ठीक से अंग्रेजी पढ़ भी नहीं पाते हैं. मिड डे मील ने तो और भी हालत खराब कर दी है. कई स्कूलों में इस फंड की बंदरबांट की होड़ लगी रहती है. अभी हाल में ही भाजपा के मीडिया प्रभारी वीरेंद्र झा ने नीतीश कुमार को पत्र लिखकर इस योजना में फैले भ्रष्टाचार से अवगत कराया था. सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से भी राज्य सरकार को झटका लगा है और नियोजन की चल रही प्रक्रिया अधर में लटकती नज़र आ रही है. स्थिति यह है कि दुनिया को ज्ञान बांटने वाला राज्य बिहार आज स्वयं अंधकार में भटक रहा है. प्राप्तांकों के आधार पर बहाल शिक्षकों ने अगर गंभीरता न दिखलाई और सरकार ने मौजूदा बहाली प्रक्रिया में तुरंत बदलाव न किए तो बिहार की अगली पीढ़ी नए ज़माने की दौड़ में सबसे पीछे नज़र आएगी.

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