jayalalithaइस हफ्ते की सबसे बड़ी खबर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का देहांत है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि वे दो महीने से बीमार थीं और सेप्टीशिमिया, जो उनके शरीर में फैल गया था, से चमत्कारिक रूप से सफलतापूर्वक बाहर निकल आई थीं. बिरले लोग ही इस बीमारी से मुक्त हो पाते हैं.

वो पूरी तरह से ठीक हो गई थीं और अस्पताल से बाहर निकलकर अपना कार्यभार संभालने की स्थिति में पहुंच गई थीं, लेकिन अचानक उन्हें कार्डियक अरेस्ट हो गया. इसके बाद अस्पताल ने फिर कहा कि उनका उपचार चल रहा है.

मेडिकल साइंस की जानकारी रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि कार्डियक अरेस्ट के बाद फौरन मौत हो जाती है या कुछ मिनटों के भीतर मरीज को रिवाइव (जिंदा) किया जा सकता है. इसके लिए उपचार जैसी कोई चीज होती ही नहीं है.

जाहिर है, वो उतने समय तक वेंटीलेटर सपोर्ट पर ही रखी गई थीं, जितने समय में सरकार उनकी मौत से उत्पन्न स्थिति से निपटने का प्रबंध कर सके. सरकार ने उनकी मौत की घोषणा रात 11 बजे की. जहां तक तमिलनाडु की सियासत का सवाल है, 1952 से 1967 तक वहां कांग्रेस सत्ता में रही.

राज्य में के कामराज और एम भक्त वत्सलम का वर्चस्व था. उनके सामने कोई चुनौती नहीं थी. 1966 में भाषा को लेकर प्रदर्शन हुए, क्योंकि संविधान में ये प्रावधान किया गया था कि 1952 से अगले 15 साल तक अंग्रेजी आधिकारिक भाषा होगी और उसके बाद हिन्दी उसका स्थान ले लेगी.

तमिलनाडु इसे किसी भी कीमत पर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था. चारों तरफ दंगा-फसाद, तोड़-फोड़ व आगजनी होने लगी. इसका नतीजा ये हुआ कि 1967 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह से हार गई और डीएमके यानी द्रविड़ मुनेत्र कषगम सत्ता में आई. यह पार्टी ईवी रामास्वामी उर्फ पेरियार के सामाजिक आंदोलन से निकली थी. सीएन अन्नादुर्रई मुख्यमंत्री बने थे.

वो केवल दो साल तक सत्ता में रहे और कैंसर से उनकी मौत हो गई और एम करुणानिधि, जो उस वक्त युवा थे, मुख्यमंत्री बन गए. पार्टी के बड़े नेताओं में से एक थे एमजी रामचंद्रन, जो एक लोकप्रिय फिल्म कलाकार थे. उन्होंने डीएमके को तोड़ कर एक नई पार्टी अन्नाद्रमुक (एआईएडीएमके) बनाई. दोनों पार्टियां बनी रहीं. डीएमके मुख्य पार्टी थी और एआईएडीएमके उससे अलग हुई.

इसके बाद श्रीमती गांधी ने आपातकाल लगा दी, जिसका कारण तमिलनाडु नहीं था और करुणानिधि सरकार को बर्खास्त कर दिया गया. जब चुनाव हुए तो अन्नाद्रमुक ने आश्चर्यजनक रूप से चुनाव में भारी जीत हासिल की. एमजीआर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने. उनकी सबसे भरोसेमंद जयललिता बनीं, जो उनके साथ फिल्मों में काम कर चुकी थीं.

दिलचस्प पहलू ये था कि करुणानिधि, अन्नादुर्रई इत्यादि लोग द्रविड़ियन आंदोलन से जुड़े हुए लोग थे, इसलिए वे पेरियार के आंदोलन से निकली राजनीति के वैधानिक वारिस थे. दरअसल, एमजीआर केरल से संबंध रखते थे. उनके नाम में पिल्लई जुड़ा हुआ था और उनकी सहयोगी जयललिता कर्नाटक की थीं, जिनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि आने वाले समय में तमिलनाडु के लोगों ने एमजीआर और बाद में जयललिता को अपने सर आंखों पर बिठाया. हालांकि, जयललिता ब्राह्मण थीं और द्रविड़ियन व्यवस्था में फिट नहीं बैठती थीं. सार्वजनिक जीवन तो सार्वजनिक जीवन ही होता है. उनके खिलाफ भ्रष्टाचार और निरंकुशता के आरोप लगे, लेकिन अंत में जनता ही फैसला करती है.

इस साल हुए चुनाव में जयललिता ने लगातार दूसरी बार जनता का समर्थन हासिल किया. ये तमिलनाडु के लिए एक अपवाद था. आमतौर पर तमिलनाडु में डीएमके 5 साल सत्ता में रहती है और 5 साल एआईएडीएमके. हर किसी को लग रहा था कि इस बार वे हार जाएंगी, लेकिन कुछ अखबार ये कह रहे थे कि इस बार वे उस ट्रेंड को तोड़ देंगी. हालांकि, वो बीमार चल रही थीं, भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भी जा चुकी थीं, लेकिन इस सबके बाद भी उन्होंने एक बड़ी जीत हासिल की.

इसका आकलन करना चाहिए कि उनके व्यक्तित्व मेें कैसा आकर्षण था? कोई व्यक्ति आम जनता से कैसे समर्थन हासिल करता है? शुरुआती दिनों में हमने देखा कि जवाहरलाल नेहरू एक करिश्माई व्यक्तित्व के मालिक थे. उनसे पहले गांधी जी थे, लेकिन अब ऐसा रुझान केवल दक्षिण भारत में देखने को मिलता है. आंध्रप्रदेश में एनटीआर, तमिलनाडु में एमजीआर.

तमिलनाडु में फिल्म कलाकारों का आम लोगों से एक खास तरह का जुड़ाव है. जयललिता को क्रेडिट मिलना चाहिए कि उन्होंने उस करिश्मे का इस्तेमाल किया और वास्तविक तौर पर गरीबों के लिए योजनाओं का निर्माण किया. उनकी जो चीज लोगों को पसंद थी, वो थी गरीबों के लिए उनकी हमदर्दी. उन्होंने अम्मा कैंटीन, अम्मा योजना जैसी लोकप्रिय स्कीम चलाई.

जब वो बीमार थीं, तब लोगों की आंखों में आंसू थे, लोग रो रहे थे, बिलख रहे थे. कई लोगों की मृत्यु हो गई. दक्षिण भारत में यह प्रवृत्ति है कि लोग अपने नेताओं के लिए जान दे देते हैं, जो अजीब है. उत्तर भारत में ऐसा नहीं होता. जैसा कि उनके चिर प्रतिद्वंद्वी करुणानिधि ने कहा कि इतिहास में वे हमेशा जिन्दा रहेंगी. मुझे लगता है कि उन्होंने बेहतरीन श्रद्धांजलि दी है. भले आप सहमत हों या न हों, उन्होंने राज्य की सियासत पर अपनी पूरी छाप छोड़ी है.

वे चार बार मुख्यमंत्री रहीं और दो बार उन्हें सत्ता छोड़नी पड़ी. अगर उनको भी आप जोड़ लें, तो उन्होंने छह बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. उन्होंने 1991, 2001, 2011 और 2016 में सत्ता हासिल की. कई राज्यों में ऐसे नेता हुए हैं, जिन्होंने अपनी छाप छोड़ी है. दरअसल, सभी राज्यों में ऐसे मुख्यमंत्री रहे हैं, जिन्होंने अपनी छाप छोड़ी है. जयललिता ने निश्चित रूप से ऐसी छाप छोड़ी है, जो काफी समय तक याद रखा जाएगा.

जहां तक तमिलनाडु की राजनीति का सवाल है, तो करुणानिधि की उम्र 95 साल हो गई है. उनके उत्तराधिकारी स्टालिन हैं. ये स्टालिन पर है कि वो कैसे लोगों को संगठित करते हैं. जहां तक जयललिता की पार्टी का सवाल है, तो उसमें कोई नंबर दो, नंबर 3 या नंबर 4 का नेता नहीं है.

पनीरसेल्वम उनके भरोसेमंद व्यक्ति थे, जिन्होंने सीएम पद संभाला है, लेकिन वे अपने दम पर वोट हासिल नहीं कर सकते हैं. बेशक चुनाव में अभी 4 साल हैं, हमें इंतजार करना चाहिए कि क्या होता है?

दूसरा मुद्दा ये है कि कल वरिष्ठ नेता एलके आडवाणी ने संसद में हो रहे हंगामे की वजह से अपना आपा खो दिया. उन्होंने कहा कि उन्हें ये पता नहीं चल रहा है कि यहां क्या हो रहा है? न तो लोकसभा अध्यक्ष सदन को चला पा रही हैं और न ही संसदीय कार्य मंत्री इस संबंध में कुछ कर पा रहे हैं. सदन भ्रम की हालत में चल रहा है.

उनका गुस्सा जायज है. मुझे नहीं मालूम कि संसदीय कार्य मंत्री लोकसभा अध्यक्ष को गाइड कर सकते हैं या नहीं. लेकिन जो मुख्य बात है वो ये कि विपक्ष के साथ दूरी को कम किया जाए, जो पहले दिन से दिखाई नहीं दे रही है.

जब सरकार सत्ता में आई थी, उस समय कांग्रेस को 44 सीटें मिली थी. लीडर ऑफ अपोजीशन के लिए 55 सीटें चाहिए. कोई भी परिपक्व और विश्वासी सरकार बिना झिझक कांग्रेस को नेता विपक्ष का दर्जा दे देती. नेता विपक्ष का महत्व क्या है, कुछ भी नहीं. शायद उन्हें कुछ सुविधाएं मिल जाती, लेकिन एक अहंकारपूर्ण और बचकाना रवैया दिखाते हुए भाजपा ने कांग्रेस को नेता विपक्ष का आधिकारिक दर्जा नहीं दिया.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. कांग्रेस संसदीय दल का नेता सबसे बड़ी पार्टी का नेता है और सरकार को उनकी बातें सुननी पड़ेगी, लेकिन लोकसभा में बहुमत के बाद भी सरकार कांग्रेस के साथ एक बेहतर वार्ता नहीं कर पा रही है. धन या वित्त विधेयक के मामले में यह साफ है कि इसमें राज्य सभा की कोई भूमिका नहीं है, फिर भी धन विधेयक को लेकर हो-हल्ला होता है. इसका मतलब है कि सरकार, विपक्ष को विश्वास में नहीं लेती या नहीं लेना चाहती है.

वेंकैया नायडू संसदीय कार्यमंत्री के तौर पर फ्लॉप हैं. उन्होंने स्थिति को और बुरा बना दिया है, सरकार को चाहिए कि उनका पोर्टफोलियो बदले. इन्हें कांग्रेस के संसदीय कार्यमंत्री जैसे कमलनाथ से सीखना चाहिए. मुझे संसदीय कार्यमंत्री के रघुरमैय्या के दिन याद आते हैं. नेहरू और इंदिरा गांधी के पास बेहतरीन संसदीय कार्यमंत्री थे. ये मंत्री संसद में नाराज सांसदों को व्यक्तिगत रूप से मनाते थे, शांत कराते थे.

इससे संसद में एक बेहतर माहौल बनता था, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण रूप से अहंकार इस सरकार की पहचान बन गई है. इसलिए मैं नहीं समझता कि संसद फिर से पटरी पर लौटेगी.

विमुद्रीकरण का मसला अब भी हर वर्ग के लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है. इससे जुड़ी दो अहम बातें हैं. विमुद्रीकरण से होने वाले लाभ की बात बहस का मुद्दा है. यहां तक कि कुछ साल बाद भी लोग पीछे मुड़ कर देखेंगे और यह चर्चा करेंगे कि उस विमुद्रीकरण से हमें क्या मिला, क्या नहीं मिला. समस्या मौजूदा स्थिति को लेकर है. इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

यदि सरकार ने करोड़ों नोट को एक फैसले से अवैध बना दिया, तो सरकार को उतने ही वैध नोट छाप कर तैयार रखने चाहिए थे. यह आसानी से समझा जा सकता है कि या तो यह फैसला एक झटके में लिया गया या फिर पर्याप्त तैयारी नहीं थी. लेकिन सच यही है कि ठीक उसके उलट हो रहा है, जैसा कि प्रधानमंत्री चाहते थे. प्रधानमंत्री कैशलेस सोसाइटी चाहते थे, कैशलेस व्यवस्था जहां लोगों का विश्वास बैंक में हो, क्रेडिट कार्ड में हो.

अभी हो क्या रहा है? आज एक आदमी अपने अकाउंट से अपना ही पैसा नहीं निकाल पा रहा है. जाहिर है, वो आदमी यही सोचेगा कि मैं अपना पैसा बैंक में क्यों रखूं. क्यों न इसे मैं अपने घर पर रखूं.

इस वक्त बैंकों के लिए सबसे जरूरी ये है कि बैंक एक व्यक्ति के खाते का पैसा, उस व्यक्ति को देने में सक्षम हो. आप खाताधारी से ये नहीं कह सकते हैं कि हमारे पास पैसा नहीं है या पैसा छापा जा रहा है. अभी एक और खतरनाक चीज हो रही है. प्रवर्तन निदेशालय ने बैंकों की 50 शाखाओं पर छापे मारे हैं. क्या आप लोगों का भरोसा बैंकिंग सिस्टम से खत्म करने के लिए जबरदस्ती कर रहे हैं? अगर हां, तो फिर आप गलत रास्ते पर हैं.

क्या आप सोचते हैं कि प्रवर्तन अधिकारी, सरकारी अधिकारियों से ज्यादा ईमानदार हैं? कानून अपना काम करेगा. यदि किसी बैंक ने गलत किया है, तो स्थानीय पुलिस एक्शन लेगी. लेकिन इसके लिए प्रवर्तन निदेशालय की क्या जरूरत है? मुझे नहीं मालूम कि प्रधानमंत्री को इस संस्था (प्रवर्तन निदेशालय) पर इतना भरोसा क्यों है? यह कोई बहुत अच्छी संस्था नहीं है.

फेरा कानून के दिनों में इस संस्था ने तबाही मचा दी थी. फेमा कानून आने के बाद चीजें सही हुईं. अभी इनके अधीन मनी लॉन्ड्रिंग का मसला है. मनी लॉन्ड्रिंग क्या है? इसका मतलब है ड्रग मनी. इसका मतलब भारत में काला धन को सफेद करने से नहीं है. अगर आप इसे ही मनी लॉन्ड्रिंग मानते हैं, तो प्रवर्तन निदेशालय का काम अभी खत्म नहीं होगा.

सरकार अब भी सही ट्रैक पर नहीं है. मुझे नहीं मालूम कि कौन इनकी नीतियां बना रहा है. ये काम नॉर्थ ब्लॉक ने किया या साउथ ब्लॉक ने या खुद प्रधानमंत्री ने या राजस्व सचिव ने, लेकिन निश्चित रूप से इस फैसले में परिपक्वता का अभाव दिख रहा है. जितनी जल्दी वे इसे समझ जाएं, अच्छा होगा.

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