राज्य सत्ता की तरह लोक-शक्ति का आधार शस्त्र की शक्ति नहीं है जो शक्ति उसका आधार है. उसे गांधी जी ने आत्मा की शक्ति कहा है. आत्मा की यही शक्ति थी, जो सत्याग्रह के रूप में आजादी की लड़ाई में निहत्थी जनता के हाथों में अमोघ अस्त्र बनी. विनोबा जी के भूदान-ग्रामदान आंदोलन में हमने इस शक्ति का एक दूसरा आयाम देखा. हमने इसे लोकमानस को ऊंची सामाजिक प्रेरणाओं से अनुप्राणित करके देखा. अभी कुछ वर्ष हुए जे पी ने लोकात्मा को फिर ऊंचे धरातल पर पहुंचाया और उसकी शक्ति का प्रयोग लोकतंत्र पर होने वाले प्रहारों के प्रतिकार में किया.
कुछ भी हो, एक परिवर्तन बहुत बड़ा हुआ है. अंग्रेजी राज में मुट्ठीभर अंग्रेज हमारे ऊपर हुकूमत करते थे और आज 10 फीसदी लोग 90 फीसदी के सीने पर सवार हैं. अंग्रेजों की सरकार तलवार के बल पर बनी थी, हमारी सरकार हमारे वोट से बनी है और हमारे नोट से चलती है. पिछले पैंसठ वर्षों में हमारी राष्ट्रीय राज सत्ता का बेहद विस्तार हुआ है. जहां देखिए, सरकारी दफ्तर और सरकार के लोगों की भरमार है. एक औसत पंचायती क्षेत्र में, जिसमें मिडिल स्कूल हो, लगभग 39 सरकारी आदमी रहते हैं. कोने-कोने में फैला एक विशाल परिवार है सत्ता का, सत्ता के इर्द-गिर्द एक पूरा शासक वर्ग बन गया है, जिसके हाथ में सत्ता है, संपत्ति के साधन हैं और शासन के सूत्र हैं. दल कोई हो 65 वर्षों से यही वर्ग देश को चला रहा है.
बस यही हमारे संकटों का स्त्रोत है. एक शासक वर्ग द्वारा संचालित राज्य-सत्ता के हाथ में राजनैतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, आदि सभी शक्तियों का केंद्रित हो जाना ही. हमारा मुख्य संकट है. केंद्रीकरण के इस स्त्रोत से निकले प्रवाह ने, जिसकी धाराएं अनेक हैं. पूरे राष्ट्रीय जीवन को विष से भर दिया है. जिस दलीय चुनावी और काले धन पर चलने वाली राजनीति की नींव पर राज्य-सत्ता का महल खड़ा है, उसमें कोई नीति नहीं रह गई है. रह गया है केवल राज, जिसे चाहे जैसे अपने हाथ में कर लेने और एक बार कर लेने के बाद, बनाए रखने का सदाबहार संघर्ष चलता रहता है. यह संघर्ष भी सिमटते-सिमटते दल और इस गुट के बाद इस बिंदु पर पहुंच गया है कि एक परिवार विशेष की महात्वाकांक्षा राष्ट्र की आकांक्षा के रूप में प्रस्तुत की जाने लगी है.
मुक्ति: नई शक्ति और नई दिशा प्रश्‍न है कि राष्ट्र के संकट की इस घड़ी में क्या करें? हमारा क्या कर्तव्य है? और मुक्ति की दिशा क्या है?
अब इस बात में संदेह नहीं रह गया है कि प्रचलित दलीय राजनीति के पास इस संकट का कोई उपाय नहीं है. यदि हो भी तो, मात्र सत्ता के परिवर्तन से राज्य-सत्ता अथवा समाज के बुनियादी स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. शराब वही रहती है, सिर्फ बोतलें बदल जाती हैं. इतना ही नहीं, क्या शासक दल और क्या विरोधी दल, दोनों की मूल निष्ठाएं समान हैं. वह मूलत: राज्य की ही सत्ता और शक्ति में विश्‍वास रखते हैं, यद्यपि अधिकारवादी और उदारवादी राजनीति के चरित्र में अंतर है. फिर भी राज्यवाद की मूल निष्ठा को कायम रखकर मुक्ति की युक्ति नहीं निकाली जा सकती. राज्यवाद और उस पर आधारित समाजवाद का अर्थ ही है केंद्रित सत्ता और केंद्रित संचालन. इसके अलावा देश की राजनीति में एक नई विघटनकारी प्रवृत्ति बढ़ती रही है-क्षेत्रीय दलों का बनना. इसलिए शक्ति की नई गंगोत्री की तलाश राजनीति की परिधि के बाहर ही करनी पड़ेगी. लोकतंत्र में शक्ति की गंगोत्री स्वयं जनता है. वही शक्ति का अक्षय स्त्रोत है. लोक-शक्ति ही रज्य-शक्ति के बढ़ते फौलादी पंजों को रोक सकती है और राष्ट्र के जीवन में नया मोड़ ला सकती है.

तेजी से बदलती हुई परिस्थिति में हमारी पहली चिंता क्या होनी चाहिए? शांतिपूर्ण परिवर्तन की संभावना को बनाए रखना ही हमारी चिंता होनी चाहिए. इसलिए आवश्यक है कि संविधान में मिले हमारे नागरिक अधिकार सुरक्षित रहें. ताकि विचार की शक्ति से हम लोक-चेतना को जगा सकें, संगठित और सक्रिय कर सकें.

राज्य सत्ता की तरह लोक-शक्ति का आधार शस्त्र की शक्ति नहीं है, जो शक्ति उसका आधार है. उसे गांधी जी ने आत्मा की शक्ति कहा है. आत्मा की यही शक्ति थी, जो सत्याग्रह के रूप में आजादी की लड़ाई में निहत्थी जनता के हाथों में अमोघ अस्त्र बनी. विनोबा जी के भूदान-ग्रामदान आंदोलन में हमने इस शक्ति का एक दूसरा आयाम देखा. हमने इसे लोकमानस को ऊंची सामाजिक प्रेरणाओं से अनुप्राणित करके देखा. अभी कुछ वर्ष हुए जे पी ने लोकात्मा को फिर ऊंचे धरातल पर पहुंचाया और उसकी शक्ति का प्रयोग लोकतंत्र पर होने वाले प्रहारों के प्रतिकार में किया. आगे वह उसे नया बिहार और नया भारत बनाने की क्रांति का साधन बनाते, लेकिन गांधी जी की तरह उनके लिए भी नियति ने कुछ दूसरा ही सोच रखा था.
हमारा राष्ट्र को आवाहन उसी लोकात्मा और लोक-शक्ति का आवाहन है, जिसके सफल प्रयोग हम देख चुके हैं और कुछ अभ्यास भी कर चुके हैं. उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है. जनता अपनी आत्मा की शक्ति को पहचान ले और संगठित होकर खड़ी हो जाय, तो मुक्ति को ढकने वाले काले बादलों को काटते कितनी देर लगेगी?
तेजी से बदलती हुई परिस्थिति में हमारी पहली चिंता क्या होनी चाहिए? शांतिपूर्ण परिवर्तन की संभावना को बनाए रखना ही हमारी चिंता होनी चाहिए. इसलिए आवश्यक है कि संविधान में मिले हमारे नागरिक अधिकार सुरक्षित रहें. ताकि विचार की शक्ति से हम लोक-चेतना को जगा सकें, संगठित और सक्रिय कर सकें. बोलने-लिखने संगठन बनाने और मत व्यक्त करने के लोकतांत्रिक अधिकारों को खोकर जनता पंगु हो जाएगी. इसलिए इन अधिकारों पर होने वाले प्रहारों का आवश्यक प्रतिकार सहज ही हमारा पहला कर्तव्य हो जाता है.
विघटन के बढ़ते वातावरण में परिस्थिति की तत्काल मांग है कि इस विविध और विशाल देश के करोड़ों-करोड़ नागरिक इस बात को समझें कि सह-अस्तित्व और सहकारी अस्तित्व में ही सबकी भलाई है और यही सदियों-सदियों से हमारी नियत रही है, जिसे हमारे पूर्वजों ने पहचाना था तथा अनेक भेदों के बावजूद साथ जीने और जीने देने की एक पद्धति विकसित की थी. अंग्रेजों के जमाने में तोड़ी गई और सत्ता की राजनीति अपने हित में उसे तोड़ती ही चली जा रही है.
 

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