कहते हैं जहां चाह वहां राह. शेखावाटी के झूंझूनू जिले के नवलगढ़ तहसील से कुछ ही दुरी पर बसे नाहरसिघानी गांव की एक विधवा कमला देवी के लिए यह कहावत एक बार फिर सच साबित हुई है. पति कि मृत्यु के बाद जैसे कमला के क़दमों के नीचे से ज़मीन खिसक गई, उसका जीवन जैसे अंधकार में डूब गई और दूर-दूर तक उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं दे रही थी. उसके पूरे परिवार की जिम्मेदारी अचानक उसके कन्धों पर आ टिकी. लेकिन उसने हालत का डट कर मुकाबला किया और परिस्थितियों के आगे खुद को मुजबूर नहीं होने दिया. भंवरी देवी की आमदनी इतनी थी जिससे उसके परिवार का पेट तो भर सकता था, लेकिन उसकी दूसरी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही थीं. जिसकी वजह से उसकी 14 वर्ष की बेटी को स्कूल छोड़ कर मां के कामों में हाथ बटाने पर मजबूर होना पड़ा. मोरारका फाउंडेशन के सांझा चुल्हा कार्यक्रम से जुड़ कर न सिर्फ कमला देवी की आमदनी बढ़ गई बल्कि उसकी बेटी स्कूल भी जाने लगी. फ़िलहाल वह 12वी क्लास की छात्र है.
महिलाएं एक साथ एक केंद्र पर पहुंच कर सांझा गैस रसोई योजना का लाभ उठा रही हैं. ईंधन का मासिक ख़र्च जो पहले हज़ार रुपये से ज़्यादा था (जलाई गई लकड़ी और कंडों की क़ीमत जोड़कर), वह अब स़िर्फ तीन-साढ़े तीन सौ रुपये आता है. साथ ही हर सेंटर को चलाने के लिए एक महिला को हेड भी बनाया गया है यानी यह योजना ग्रामीण महिलाओं के लिए रोज़गार के एक अवसर के रूप में भी सामने आई है.
इसी तरह, झाझड़ गांव में भी फाउंडेशन की ओर से सांझा गैस रसोई योजना चलाई जा रही है. योजना के अनुसार पिछड़े व गरीब लोगों के 4 से 5 परिवारों को समूह को सांझा रसोई के प्रति जागरूक करके उन्हें गैस कनेक्शन समेत तमाम सुविधाएं दी गईं. जिस परिवार की आय सबसे कम थी उसे इस केन्द्र का मुखिया बनाया गया. बाकी परिवार अपन खाना बनाने के लिए इस केन्द्र पर आते हैं और एक तय रकम केन्द्र प्रभारी को देते हैं. इस प्रयास से न केवल इन परिवारों को लकड़ी चुनने के झंझट से आजादी मिली है बल्कि बिना किसी निवेश के गैस सुविधा भी मिल गई है. इस केन्द्र की मुखिया सुभीता देवी बताती है कि इस प्रयास से सब परिवारों में मेल-मिलाप व अपनापन भी बढ़ा है और समूह से जुड़ी अन्य महिलाओं को भी राहत मिली है.
मोरारका फाउंडेशन की ओर से गांव की ग़रीब महिलाओं के लिए सांझा चूल्हा कार्यक्रम कई सालों से चलाया जा रहा है. इस योजना के तहत ग़रीब महिलाएं, जो कभी खेतों से लकड़ियां चुनकर अपना चूल्हा जलाती थीं, आज रसोई गैस पर खाना बना रही हैं. 4 से 5 महिलाएं एक साथ एक केंद्र पर पहुंच कर सांझा गैस रसोई योजना का लाभ उठा रही हैं. ईंधन का मासिक ख़र्च जो पहले हज़ार रुपये से ज़्यादा था (जलाई गई लकड़ी और कंडों की क़ीमत जोड़कर), वह अब स़िर्फ तीन-साढ़े तीन सौ रुपये आता है. साथ ही हर सेंटर को चलाने के लिए एक महिला को हेड भी बनाया गया है यानी यह योजना ग्रामीण महिलाओं के लिए रोज़गार के एक अवसर के रूप में भी सामने आई है. इसके अलावा ऑर्गेनिक टिफिन स्कीम के ज़रिए भी रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराए गए हैं. सीकर ज़िले के बेरी गांव की सुशीला कंवर और मूल सिंह को लोगों तक ऑर्गेनिक खाना पहुंचाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है. इस स्कीम के तहत छात्रों, नौकरीपेशा या अस्पताल या कचहरी में आने वाले लोगों तक ऑर्गेनिक टिफिन पहुंचाया जाता है. इसके लिए नवलगढ़ के तहसील कार्यालय, 3 अस्पतालों और मोरारका ऑर्गेनिक रिसर्च सेंटर को कलेक्शन सेंटर बना दिया गया है, जहां से ऑर्गेनिक टिफिन लोगों तक पहुंचाए जाते हैं. शेखावाटी के लोगों को बना-बनाया ऑर्गेनिक खाना मिल सके, इसलिए नवलगढ़ में एक ऑर्गेनिक रेस्तरां भी खोला गया है.