भारत सरकार द्वारा 1975 में समेकित बाल विकास योजना (आईसीडीएस) की शुरुआत की गई थी, जिसके अंतर्गत ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या के आधार पर आंगनवाड़ी एवं लघु आंगनवाड़ी केंद्र संचालित किए जाते हैं. योजना का मुख्य उद्देश्य 0 से 6 वर्ष के बच्चों, गर्भवती-स्तनपान कराने वाली महिलाओं केे स्वास्थ्य, पोषण एवं शैक्षिक सेवाओं का ध्यान रखना है. 2009-10 के केंद्रीय बजट के अनुसार, योजना के तहत उक्त सभी सेवाएं इस आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को गुणवत्ता के साथ उपलब्ध कराई जाएगी. योजना पर खास ध्यान देते हुए 2012-13 के बजट में इसके लिए 15,870 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. इसके बावजूद देश के दूरदराज के इलाकों में इस योजना का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो पा रहा है. सीमावर्ती इलाकों में सरकार की यह योजना स़िर्फ फाइलों में सिमट कर रह गई है. सवाल यह पैदा होता है कि क्या केंद्र सरकार की इस योजना का फ़ायदा वास्तव में उन लोगों तक पहुंच रहा है, जिनके लिए यह शुरू की गई थी?
जम्मू-कश्मीर के पुंछ ज़िले की सुरनकोट तहसील के फागला के मोहल्ला कसलां स्थित आंगनवाड़ी केंद्र की संरक्षिका मुंबई में रहती हैं. यह केंद्र तब खुलता है, जब राशन वगैरह बच्चों के लिए आता है. यह सामान आने के बाद कहां जाता है, इसका कुछ पता नहीं? इस बारे में संबंधित विभाग का कहना है कि जांच हो रही है. स्थानीय लोगों का कहना है कि जिस दिन टीम जांच के लिए पहुंचती है, बच्चे इकट्ठे हो जाते हैं और केंद्र खुल जाता है. सुरनकोट के गांव बफलियाज़ के मोहल्ला सेठा का आंगनवाड़ी केंद्र दोपहर 12 बजे तक बंद मिला. केंद्र सहायिका ने बताया कि संरक्षिका की शादी मंडी तहसील में हो गई है, इस वजह से वह कभी-कभी आती हैं. जब सहायिका से पूछा गया कि आप केंद्र को समय पर और नियमित रूप से क्यों नहीं खोलतीं? तो जवाब मिला, आपको यह पूछने का हक़ किसने दिया? जब संरक्षिका से फोन द्वारा जानने की कोशिश की गई, तो उन्होंने भी सहायिका वाला जवाब दोहरा दिया.
बफलियाज़ से 9 किलोमीटर की दूरी पर मड़हा गांव है. यहां के आईसीडीएस केंद्र की कहानी बड़ी अजीबा़ेगरीब है. स्थानीय निवासी मौलाना नूर ए इलाही नक्शबंदी कहते हैं कि गांव के एक ही मोहल्ले में दो केंद्र हैं और दोनों एक साथ दो भाइयों के घर में चलते हैं. एक को नीचे और दूसरे को ऊ पर की मंजिल मिली हुई है. दूसरी ओर इसी गांव में एक ऐसा मोहल्ला ऐसा भी है, जहां पर तक़रीबन 40 घर हैं, लेकिन कोई केंद्र नहीं है. उधर भाइयों की सरपरस्ती में चलने वाले दोनों केंद्रों का हाल बेहाल है. स्थानीय लोग बताते हैं कि उक्त केंद्र कभी भी खुले हुए नहीं देखे गए. इन केंद्रों के बच्चों के हिस्से का राशन कब आता है और कहां चला जाता है, किसी को नहीं मालूम.
सुरनकोट के हाड़ी बुढ्डा गांव निवासी मोहम्मद इरशाद (50) बताते हैं कि उनके वार्ड नंबर एक में कोई भी केंद्र नहीं है, जिससे बच्चे फ़ायदा ले सकें. जब दूसरे मोहल्लों में केंद्र हैं, तो फिर यहां क्यों नहीं? लोगों ने संबंधित अधिकारी से बात की, लेकिन कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला. केंद्रीय महिला एवंं बाल कल्याण मंत्रालय की संयुक्त सचिव प्रीती मदान ने बीते जनवरी माह में कहा था कि इस मामले की जांच कराई जाएगी, लेकिन तीन महीने बीत जाने के बावजूद कोई सुधार होता नहीं दिख रहा है. एक रिपोर्ट के अनुसार, जम्मू-कश्मीर के सामाजिक कल्याण विभाग के अधिकारी इन केंद्रों के लिए आने वाला सरकारी राशन बेचकर अपनी जेब भर रहे हैं और बच्चों को घटिया राशन दिया जा रहा है. कहीं-कहीं तो वह भी नहीं.
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