जो व्यक्ति निरंतर हमारे उत्पीड़न का कारण बनते हैं, क्या उनके दुर्व्यवहार के दंड की कामना करना उचित नहीं है?
हम कौन होते हैं किसी को उसके किए का प्रतिफल देने वाले? यह कार्य तो केवल ईश्वर का है. प्रत्येक व्यक्ति अपने किए को स्वयं भोगेगा. कई बार मनुष्य स्वयं को ही विधाता समझने लगता है. न्यायकर्ता केवल ईश्वर है. हम अपने सीमित ज्ञान के आधार पर सोचते हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है, हम भूल जाते हैं कि कभी हमने भी किसी के प्रति अन्याय किया था. कई बार हमें अपने बल एवं सामर्थ्य पर भी अभिमान होने लगता है और हम परिस्थितियों को अपने पक्ष में मोड़ना चाहते हैं. अगर शक्ति है तो उसके प्रयोग से स्वयं पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए. यदि विजय प्राप्त करनी है, तो उन कारणों पर विजय प्राप्त करो, जिनके कारण हृदय में वैर भाव एवं उद्वेग उत्पन्न होता है. जीवन में कितनी ही बाधाएं क्यों न आए, धैर्य के साथ परिस्थितियों के आवेग को सहन करना चाहिए. जिसे हम अपना शत्रु समझते हैं, उसके प्रति उदार होने के लिए बहुत आत्मबल की आवश्यकता होती है. आज यदि हम प्रतिक्रिया करके उद्वेग उत्पन्न करने वाले कुछ कारणों से अपने को बचा लेते हैं, तो कल संसार में उद्वेग उत्पन्न करने वाले नए कारण उत्पन्न हो जाएंगे. इस प्रकार हम कारणों के चक्र में कैद होकर रह जाएंगे.
सद्गुरु हमें मुक्ति प्रदान करना चाहते हैं. वे हमें एक ऐसे स्थान पर ले जाना चाहते हैं, जहां पहुंचकर स्वयं सभी समस्याओं का अंत हो जाता है और आनंद की धारा प्रवाहित होती है. परंतु हम इस मार्ग की तनिक-सी कंटीली झाड़ियों में अटके हुए हैं और उनके कांटों की चुभन से विकल हो रहे हैं. तनिक सी पीड़ा को सहन करने के लिए तैयार नहीं हैं. चाहते हैं कि सद्गुरु हमें पीड़ा पहुंचाने वाले कांटों को निकालें. अपना तथा सद्गुरु का समय व्यर्थ में नष्ट नहीं करना चाहिए. क्यों नहीं श्रद्धा एवं धीरज के मंत्र को हृदय में धारण करते हुए सद्गुरु के चरणों में अपना ध्यान लगाएं? हमारे समस्त दुःख-दर्द, धीरे-धीरे स्वतः ही विलुप्त हो जाएंगे. यदि हमारा सद्गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण है तो हमें उन्हें अपना कष्ट बतलाने की आवश्यकता ही नहीं होगी. उन्हें अपने भक्तों के विषय में सब ज्ञात है. भक्तों का भार उठाने के लिए वे सदा तत्पर रहते हैं.
चरम करुणा का ही मूर्त रूप सद्गुरु होते हैं. प्राकृतिक नियम के भीतर रह कर भी कृपास्वरूप उसके परे जा कर प्राणियों के दुःख को अपने ऊ पर झेलते हैं, बदले में स्वयं के लिए बिना कुछ चाहे.