Arak_Heavy_Water4ईरान और पश्चिमी ताक़तों के बीच रिश्तों में खटास तो इस देश में 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से ही चला आ रहा है, लेकिन ईरान के परमाणु कार्यक्रम के चलते वर्ष 2002 के बाद कई मौके ऐसे आए, जब लगा कि ईरान पर अमेरिका और उसके सहयोगी देशों की तरफ से किसी भी समय फौजी करवाई हो सकती है. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ईरान पर अघोषित परमाणु कार्यक्रम चलाने का आरोप 1992 से ही लगाता आ रहा है. 2002 में ईरान के एक असंतुष्ट ग्रुप नेशनल कॉन्सिल ऑ़फ रेसिस्टेंट ऑ़फ ईरान के प्रवक्ता अलीरज़ा ज़फरजादे ने भी यह आरोप लगाया था कि देश में दो परमाणु ठिकाने ऐसे हैं, जिसका ज्ञान दुनिया को नहीं है. उसके बाद से ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में कई प्रस्ताव पारित हुए. इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी (आईएईए) को देश के परमाणु ठिकानों की जांच की ज़िम्मेदारी दी गई. आईएईए ने वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें कहा गया कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है. उसके बाद से सुरक्षा परिषद ने ईरान पर चार बार सीमित प्रतिबन्ध के प्रस्ताव पारित किए. वर्ष 2009 के प्रस्ताव पर भारत ने भी ईरान के विरोध में मतदान किया था. इसके अतिरिक्त अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने अपनी तरफ से ईरान पर अतिरिक्त प्रतिबन्ध लगा रखे थे.

इस पृष्टभूमि में ईरान और पी 5 प्लस 1 (अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, चीन और जर्मनी) के बीच स्विट्ज़रलैंड के शहर लोज़ान में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हुआ अंतरिम समझौता कई दृष्टि से महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर यह इस साल जून महीने में प्रस्तावित दोनों पक्षों के बीच व्यापक समझौता हो जाता है, तो इससे जहां इस क्षेत्र की भू-राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ेगा, वहीं आर्थिक रूप से भी यह समझौता बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगा. जहां तक इस समझौते का सवाल है, तो वह जून 2013 में ईरानी वार्ताकार हस्सन रूहानी के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से ही अमेरिका और ईरान में इस मुद्दे पर गोपनीय बातचीत शुरू हो गई थी, जिस पर अभी व्यापक समझौता होना बाकी है.
ईरान हमेशा से अपने परमाणु कार्यक्रम को लेकर किसी तरह का समझौता नहीं करने की बात कहता रहा है. देश के कट्टरपंथी भी सरकार पर इस मसले को लेकर नहीं झुकने के लिए दबाव डालते रहे हैं. हालिया समझौते के विरोध में कट्टरपंथियों ने तेहरान में विरोध प्रदर्शन भी किया, लेकिन सरकार ने उसे गैर कानूनी बता कर ख़ारिज कर दिया. बहरहाल, मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक ईरान में इस समझौते के बाद विजय जुलूस निकाले गए और इसे एक बड़ी कामयाबी के रूप में देखा गया, लेकिन दोनों पक्षों के रिश्तों में खटास का सिलसिला इतना पुराना है कि दोनों तरफ के लोग इसको संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं. इस पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि यह समझौता कितने दिनों तक कायम रह सकेगा या यह कि यह समझौता ईरान को परमाणु हथियार संपन्न देश बन जाने में कितने समय तक रोके रख सकता है? इस सवाल का जवाब देते हुए अमेरिकी ऊर्जा मंत्री अर्नेस्ट मोनिज़, जिन्होंने इस समझौते में अहम भूमिका निभाई थी, कहा कि यह समझौता किसी खास अवधि के लिए नहीं है, बल्कि हमेशा के लिए है.
दरअसल, पी 5 प्लस 1 के देशों का उद्देश्य यह था कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम को ऐसी अवस्था में ले जाया जाए, जहां से उसे परमाणु हथियार बनाने में कम से कम एक साल का समय लगे. समझौते में यूरेनियम संवर्धन में लगे सेंट्रीफ्यूज में दो-तिहाई कटौती की जाने की बात कही गई है, इस्तेमाल में न आने वाले सेंट्रीफ्यूज और देश के सभी परमाणु केन्द्र आईएईए नियमित रूप से निरीक्षण में रहेंगे. साथ ही इस बात पर भी सहमती बन गई है कि ईरान के अरक के परमाणु संयंत्र को दोबारा डिजाइन किया जाएगा. हालांकि अमेरिका ओबामा प्रशासन से जुड़े लोग भी इसको संदेह की नज़र से देख रहे हैं कि कहीं आर्थिक प्रतिबन्ध हटाने की वजह से हुए आर्थिक लाभ को ईरान के कट्टरपंथी क्षेत्र के आतंकी संगठनों को मज़बूत करने में न लगा दें.
तेहरान ने अंतरिम समझौते के कुछ समय बाद ही यह कहना शुरू कर दिया कि जब तक उस पर से सभी प्रतिबन्ध पूरी तरह से उठा नहीं लिए जाते, तब तक वह असल समझौते पर दस्तखत नहीं करेगा, फिर भी तेहरान इस समझौते को लेकर आशान्वित है. उसे उम्मीद है कि इसके बाद देश पर लगे कठिन आर्थिक प्रतिबन्ध समाप्त हो जाएंगे और ईरान की अर्थव्यवस्था विदेशी विनेवेश के लिए खुल जाएगी, जिसकी वजह से आम लोगों की ज़िन्दगी में सुधार आएगा.
भारत और ईरान के सम्बन्ध हमेशा से मधुर रहे हैं, लेकिन ईरान पर आर्थिक प्रतिबन्ध के बाद दोनों देशों के बीच व्यापार पर एक तरह से विराम लग गया था. भारत चीन के बाद ईरान का सबसे बड़ा तेल आयातक देश था, लेकिन आर्थिक प्रतिबन्ध के बाद और अमेरिका के दबाव में भारत ने तेहरान से आयात किए जाने वाले तेल की मात्रा में काफी कटौती की. भारत के मुताबिक, उसके ऊपर ईरान का 8.8 अरब डॉलर बाकी है, जिसे भारत को लौटाना है. ज़ाहिर है, इस प्रतिबन्ध के उठने के बाद दोनों देशों एक बीच व्यापार फिर से पटरी पर आ जाएगा और भारतीय कंपनियों को ईरान में निवेश का अवसर भी प्राप्त होगा.
अब रही बात इस समझौते से क्षेत्र की भू-राजनीति के प्रभावित होने की, तो वह भी एक जटिल मसला है. सद्दाम हुसैन के शासन के खात्मे के बाद और अरब स्प्रिंग के बाद की स्थिति में मध्य पूर्व की सियासत पर ईरान का प्रभाव बढ़ा है, जिसकी वजह से सऊदी अरब और दूसरे सुन्नी बहुल अरब देश चिंतित हैं. वहीं इजराइल ने भी इस समझौते का कड़े शब्दों में विरोध करते हुए कहा है कि इसकी वजह से इजराइल के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाएगा. इजराइल ने इस समझौते में ईरान द्वारा इजराइल को मान्यता देने की शर्त रखने को भी कहा है, जिसे ़िफलहाल अमेरिका ने यह कह कर ख़ारिज कर दिया कि इजराइल की मान्यता एक अलग मुद्दा है.
हालांकि आधिकारिक तौर पर सऊदी अरब ने इस समझौते का स्वागत किया है, लेकिन वहां से यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि प्रतिबन्ध हटने के बाद ईरान क्षेत्र की स्थिरता का ़फायदा उठा कर इराक, यमन और सीरिया में अपने प्रभाव बढ़ाएगा, जो क्षेत्र में शांति के लिए ठीक नहीं है. ईरान-अमेरिका संबंधों में अगर सुधार होता है, तो इसका प्रभाव दक्षिण एशिया के सामरिक संतुलन पर भी पड़ सकता है और अ़फग़ानिस्तान में सप्लाई के लिए नाटो को पाकिस्तान पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा. कुल मिला कर देखा जाए, तो इस समझौते से जहां ईरान के लिए विकास के नये दरवाज़े खुल जाएंगे, वहीं इससे सामरिक असंतुलन का भी खतरा पैदा हो जाएगा, लेकिन जब तक समझौता हो नहीं जाता, तब तक इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी.

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