मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, विंध्य, ग्वालियर-चंबल और उत्तर प्रदेश से लगे जिलों में बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी का प्रभाव माना जाता है, जबकि महाकौशल के जिलों में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का असर है. 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी ने 3 सीटें जीती थीं, लेकिन इसके बाद से आपसी बिखराव के कारण उसका प्रभाव कम होता गया है. पिछले चुनाव के दौरान उसे करीब 1 प्रतिशत वोट मिले थे. ऐसा माना जाता है कि गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी का अभी-भी शहडोल, अनूपपुर, डिंडोरी, कटनी, बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों के करीब 10 सीटों पर प्रभाव है.
परम्परागत रूप से मध्यप्रदेश की राजनीति दो ध्रुवीय रही है. अभी तक यहां की राजनीति में कोई तीसरी ताकत उभर नहीं सकी है. हमेशा की तरह आगामी विधानसभा चुनाव के दौरान भी मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होने वाला है, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि इस बार यह मुकाबला बहुत करीबी हो सकता है. इसे क्षेत्रीय पार्टियां एक अवसर के तौर पर देख रही हैं.
प्रदेश की राजनीति में बसपा, सपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) जैसे पुराने दल तो पहले से ही सक्रिय हैं, लेकिन इस बार कुछ नए खिलाड़ी भी सामने आये हैं, जो आगामी चुनाव के दौरान अपना प्रभाव छोड़ सकते हैं. आदिवासी संगठन जयस और मध्यप्रदेश में स्वर्ण आन्दोलन की अगुवाई कर रहे सपाक्स ने आगामी विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. मध्यप्रदेश में अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ने जा रही आम आदमी पार्टी तो अपने बूते पर सरकार बनाने का दावा कर रही है.
जाहिर है इस बार मुकाबला बहुत दिलचस्प और अलग होने जा रहा है, क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि किसी एक पार्टी के पक्ष में लहर ना होने के कारण हार जीत तय करने में छोटी पार्टियों की भूमिका अहम रहने वाली है. इसीलिए क्षेत्रीय पार्टियां पूरी आक्रमकता के साथ अपने तेवर दिखा रही हैं, जिससे चुनाव के बाद वे किंगमेकर की भूमिका में आ सकें.
मुख्य खिलाड़ी- कांग्रेस और भाजपा
कांग्रेस पिछले डेढ़ दशक से मध्य प्रदेश की सत्ता से बाहर है, लेकिन इस बार वो पुरानी गलतियों को दोहराना नहीं चाहती है. कांग्रेस पार्टी पूरे जोर-शोर से तैयारियों में जुटी है. कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद से पार्टी में कसावट आई है, गुटबाजी भी पहले के मुकाबले कम हुई है, लेकिन गुटबाजी अभी-भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है.
इसी तरह से मध्यप्रदेश में सत्ता के खिलाफ नाराजगी तो है, लेकिन अभी तक कांग्रेस इसे अपने पक्ष में तब्दील करने में नाकाम रही है. तमाम प्रयासों के बावजूद कांग्रेस का बसपा और अन्य छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन भी नहीं हो सका है. कमलनाथ का सबसे ज्यादा जोर बसपा के साथ गठबंधन का था, लेकिन मायावती ने 22 सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित करके कांग्रेस को परेशानी में डाल दिया है.
क्षेत्रीय दलों से किसे नुक़सान
पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान बसपा और गोंडवाना गणतंत्र जैसी पार्टियों ने 80 से अधिक सीटों पर 10,000 से ज्यादा वोट हासिल किए, जो की हार-जीत तय करने के हिसाब से पर्याप्त हैं. कांग्रेस की अंदरूनी रिपोर्ट भी मानती है कि मध्यप्रदेश के करीब 70 सीटें ऐसी हैं, जहां क्षेत्रीय दलों के मैदान में होने की वजह से कांग्रेस को वोटों का नुकसान होता आया है, जिसमें बसपा सबसे आगे है.
इसीलिए कांग्रेस की तरफ से बसपा के साथ गठबंधन को लेकर सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा था. बसपा द्वारा प्रदेश के सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद भी कांग्रेस की तरफ से गठबंधन को लेकर संभावना जताई जा रही है.
लेकिन अब यह भी माना जा रहा है कि मध्य प्रदेश में सवर्ण आंदोलन के जोर पकड़ने के बाद खुद कांग्रेस बसपा के साथ गठबंधन को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं दिखा रही है, जिससे भाजपा से नाराज चल रहे सवर्ण मतदाताओं को कांग्रेस के पक्ष में किया जा सके. सवर्णों की मुख्य नाराजगी भाजपा के साथ है, लेकिन वे कांग्रेस के खेमे में भी नहीं हैं. ऐसे में कांग्रेस पंडित राहुल गांधी की छवि और सॉफ्ट हिंदुत्व के रास्ते पर चलते हुए सवर्णों के वोट को अपने पक्ष में करना चाहती है.
वहीं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी अच्छी तरह से जानती है कि कांग्रेस के हाथों मध्य प्रदेश की सत्ता गंवाना उसके लिए कितना भारी पड़ सकता है. भाजपा के लिए गुजरात के बाद मध्य प्रदेश सबसे बड़ा गढ़ है और कांग्रेस उसे यहां की सत्ता से बेदखल करने में कामयाब हो जाती है तो इसे इसका बड़ा मनोवैज्ञानिक लाभ मिलेगा. पिछले दो चुनाव की तरह मध्य प्रदेश में इस बार बीजेपी के लिए राह आसान दिखाई नहीं दे रही है. इस बार कांग्रेस कड़ी चुनौती पेश करती हुई नजर आ रही है.
किसान आंदोलन, गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप तो पहले से ही थे, उधर उसे सवर्णों की नाराजगी को भी झेलना पड़ रहा है. पिछले दिनों सवर्णों के गुस्से को देखते हुए शिवराज सिंह ने ऐलान किया था कि प्रदेश में बिना जांच के एट्रोसिटी एक्ट के तहत मामले दर्ज नहीं किए जाएंगे, लेकिन इससे भी सवर्णों की नाराजगी कम नहीं हुई है, उलटे सपाक्स ने सभी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है. अगर चुनाव तक भाजपा सवर्णों की नाराजगी को शांत नहीं कर पाई तो इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ सकता है.
मध्य प्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं, जिनमें से 82 सीटें अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए आरक्षित हैं, जबकि 148 सामान्य सीट की है. भाजपा की चिंता इसी 148 सामान्य सीटों को लेकर है, जिस पर सपाक्स के आन्दोलन का प्रभाव पड़ सकता है.
पुरानी खिलाड़ी- बसपा, सपा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड, विंध्य, ग्वालियर-चंबल और उत्तर प्रदेश से लगे जिलों में बहुजन समाज पार्टी व समाजवादी का प्रभाव माना जाता है, जबकि महाकौशल के जिलों में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का असर है. 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी ने 3 सीटें जीती थीं, लेकिन इसके बाद से आपसी बिखराव के कारण उसका प्रभाव कम होता गया है. पिछले चुनाव के दौरान उसे करीब 1 प्रतिशत वोट मिले थे.
ऐसा माना जाता है कि गोंडवाणा गणतंत्र पार्टी का अभी-भी शहडोल, अनूपपुर, डिंडोरी, कटनी, बालाघाट और छिंदवाड़ा जिलों के करीब 10 सीटों पर प्रभाव है. 2003 के विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी 8 सीटें जीतकर मध्य प्रदेश की तीसरी सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरी थी. प्रदेश में उसके एक भी विधायक नहीं हैं, पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सपा को करीब सवा प्रतिशत वोट हासिल हुए थे. बहुजन समाज पार्टी कांग्रेस के अलावा सपा और गोंगपा से भी गठबंधन करना चाहती थी, लेकिन अब सपा और गोंगपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की संभावना बन रही है.
2013 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान बसपा तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. उसके चार प्रत्याशी जीते थे. इस चुनाव में बसपा को करीब 6.29 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि 11 अन्य सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे थे. इस पर बसपा 15 सीटें जीतकर मध्य प्रदेश में सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखने का ख्वाब देख रही है, लेकिन ये आसान नहीं है. इस दौरान पार्टी के कई नेता पार्टी छोड़ चुके हैं, जिसका असर आगामी चुनाव में पड़ सकता है. इसी तरह से कांग्रेस के साथ गठबंधन ना होने का नुकसान बसपा को भी उठाना पड़ेगा. बसपा अगर सभी सीटों पर चुनाव लड़ती है तो इसका सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को होगा.
इन तीनों पाटियों के वोट बैंक भले ही कम हो, लेकिन यह असरदार हैं. इनकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इनका प्रभाव पूरे प्रदेश में बिखरा न होकर कुछ खास जिलों और इलाकों में केंद्रित है. जिसकी वजह से यह पार्टियां अपने प्रभाव क्षेत्र में हार-जीत को प्रभावित करने में सक्षम हैं.
नए खिलाड़ी- आप, सपाक्स और जयस
आम आदमी पार्टी पहली बार मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में उतरने जा रही है. पार्टी काफी पहले ही प्रदेश के सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी है. पार्टी के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया है. आलोक अग्रवाल लम्बे समय से नर्मदा बचाओ आंदोलन में सक्रिय रहे हैं. लेकिन सबसे ज्यादा ध्यान खींचा है, सपाक्स और जयस ने. दोनों संगठनों ने विधानसभा चुनाव में उतरने का ऐलान किया है. सपाक्स ने तो बाकायदा पार्टी बनाकर प्रदेश के सभी सीटों से राजनीति में उतरने का ऐलान कर दिया है. वहीं जयस भी लगभग अस्सी सीटों पर चुनाव लड़ने का इरादा जता चुकी है.
सपाक्स यानी सामान्य, पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वर्ग अधिकारी कर्मचारी संस्था मध्य प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों का संगठन है जो प्रमोशन में आरक्षण और एट्रोसिटी एक्ट के ख़िलाफ आन्दोलन चला रहा है. सपाक्स ने 2 अक्टूबर 2018, गांधी जयंती के मौके पर अपनी नई पार्टी लॉन्च करते हुए सभी 230 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. सपाक्स का सवर्णों और ओबीसी समुदाय के एक बड़े हिस्से पर प्रभाव माना जा रहा है.
सपाक्स के नेता हीरालाल त्रिवेदी ने कहा है कि उनके संगठन ने राजनीतिक दल के पंजीयन के लिए चुनाव आयोग में आवेदन किया है. यदि चुनाव से पहले पंजीयन नहीं होता है तो भी सपाक्स पार्टी निर्दलीय उम्मीदवार खड़ा कर के चुनाव लड़ेगी. जानकार मानते हैं कि अगर सपाक्स चुनाव लड़ती है तो इसका सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा हो सकता है. दरअसल, इन दिनों मध्य प्रदेश में सपाक्स को मजाक के तौर पर नोटा कहा जा रहा है.
हालांकि, सपाक्स को लेकर दिग्विजय सिंह का एक बयान भी काबिले गौर है, जिसमें उन्होंने सपाक्स को भाजपा द्वारा प्रायोजित आंदोलन बताते हुए इसके नेता को भाजपा से मिला हुआ बताया था. सपाक्स को लेकर दिग्विजय सिंह की तरह ही कई विश्लेषक भी यह मान रहे हैं कि सपाक्स की पूरी कवायद भाजपा पर दबाव डालने की है, जिससे अपने लोगों के लिए ज्यादा से ज्यादा टिकट हासिल किया जा सके.
पिछले कुछ सालों के दौरान मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों में जय आदिवासी युवा शक्ति यानी जयस एक ताकत के रूप में उभरी है. धार, झाबुआ, अलीराजपुर, बडवानी, खरगोन, खंडवा जैसे आदिवासी बाहुल्य इलाकों में इसका खासा प्रभाव माना जाता है. मध्य प्रदेश में 47 विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं, जिनमें से 32 सीटों पर भाजपा का और 15 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है.
इनके अलावा करीब 30 सीटें ऐसी मानी जाती हैं, जहां आदिवासियों के वोट निर्णायक हो सकते हैं. जयस का फोकस इन्हीं 70 से 80 सीटों पर है, जहां से वो अपने उम्मीद्वारों को चुनाव लडवा सकता है. हालांकि अभी तक जयस का राजनीतिक दल के रूप में पंजीयन नहीं हुआ है, लेकिन वह अपने आजाद उम्मीदवार उतार सकती है.
अभी 2 अक्टूबर गांधी जयंती के दिन धार जिले के कुक्षी में जयस द्वारा किसान महापंचायत का आयोजन किया गया था. जयस के राष्ट्रीय संरक्षक हीरालाल ने कहा कि इस बार प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री से कम कुछ भी मंजूर नहीं है. इस कार्यक्रम में अभिनेता गोविंदा भी शामिल हुए.
जयस के चुनाव में उतरने से दोनों ही पार्टियों का नुकसान होगा, लेकिन अभी से यह कहना मुश्किल है कि इसका फायदा किसे होगा. पिछले दिनों जयस को लेकर कांग्रेस के आदिवासी नेता कांतिलाल भुरिया ने कहा था कि जयस और कांग्रेस की एक ही विचारधारा है और आगामी विधानसभा चुनावों में दोनों साथ मिलकर भाजपा का मुकाबला करेंगें.
जाहिर है सपाक्स और जयस दोनों ताल ठोक रहे हैं, लेकिन आगामी चुनाव में इन दोनों की क्या पोजिशनिंग होगी, इसको लेकर अभी-भी स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है. स्थिति जो भी बने, आगामी विधानसभा चुनाव में जयस और सपाक्स दोनों असर डालने वाली हैं. फिलहाल इन दोनों को लेकर कांग्रेस और भाजपा दोनों ही कम्फर्ट नहीं हैं.
मध्य प्रदेश का चुनावी इतिहास देखें तो समय-समय पर कई राजनीतिक ताकतें उभरी हैं, लेकिन उनका उभार ना तो स्थायी रहा है और ना ही उनमें से कोई पार्टी निर्णायक भूमिका में आ सकी हैं. इसी तरह से मध्य प्रदेश में गठबंधन की राजनीति भी नहीं हुई है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के अलावा किसी भी तीसरे दल के लिए उभरना आसान नहीं है. इसके लिए सिर्फ पार्टी ही काफी नहीं है, बल्कि ऐसे नेता और नीति की भी जरूरत है जो प्रदेश स्तर पर मतदाताओं का ध्यान खींच सके.
लम्बे समय से मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव लोकसभा चुनाव से ठीक पहले होते रहें हैं, लेकिन इस बार परिस्थितयां अलग हैं. इन तीनों राज्यों के चुनाव नतीजों का प्रभाव आगामी लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा. इनके नतीजे ही तय करेंगें कि 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्षी पार्टियों का गठबंधन होगा या नहीं और अगर गठबंधन होगा भी तो इसका स्वरूप क्या होगा.