( नोट: यद्यपि एस. पी. शुक्ला जी का यह लेख उत्तर प्रदेश में 2017 के चुनाव परिणामों के वास्तविक निहितार्थ को लेकर लिखा गया था परंतु इसमें जिन सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियां जिन्होंने भाजपा की जीत को संभव बनाया था, आज भी यथावत मौजूद हैं। यह भी स्पष्ट है कि 2022 के चुनाव में भाजपा वही एजंडा और रणनीति लेकर, शायद पहले से ज्यादा आक्रामकता के साथ चुनाव में उतर सकती है जिसका मुकाबला करने के लिए विपक्ष के बड़े गठजोड़ और वैकल्पिक राजनीति की जरूरत है।

इधर चर्चा में आया है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए विपक्ष की पार्टियां जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, आजाद समाज पार्टी आदि एक महागठबंधन बनाने का प्रयास कर रही हैं। जहां तक भाजपा को हराने के लिए महागठबंधन का सवाल है उसका स्वागत है परंतु मूल प्रश्न यह है कि इस गठबंधन की दिशा क्या है और कार्यक्रम क्या है? इसके पास भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जो वास्तव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण है और सांप्रदायिक चेतना जिसका भाजपा/आरएसएस ने व्यापक निर्माण किया है, का मुकाबले करने के लिए कौन सी वैकल्पिक चेतना लाई जाएगी? इसी प्रकार भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग जो वास्तव में सामाजिक जोड़-तोड़ है के मुकाबले में सामाजिक एकता मजबूत करने और अल्पसंख्यकों में सुरक्षा भाव पैदा करने का कार्यक्रम क्या है?

भाजपा के शासन काल में किसानों की जो दुर्दशा हुई, जिसको लेकर वे 6 महीने से जन आंदोलन चला रहे हैं, उसके बारे में इन पार्टियों की नीति क्या है? यह देखा गया है कि पूर्व में जब यह पार्टियां सत्ता में रही हैं तो उनकी भी कृषि के बारे में वैसी ही नीतियाँ रही हैं। इसी प्रकार युवाओं में बेरोजगारी को लेकर भी इनकी नीतियों में कोई विशेष अंतर नहीं रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि सपा की पिछली सरकार के दौरान ही मुजफ्फरनगर में भयानक सांप्रदायिक दंगा हुया था जिससे हजारों लोग प्रभावित हुए थे। इनके विकास के माडल और भाजपा के विकास के माडल में कोई बुनियादी फर्क दिखाई नहीं देता है। यह सभी पार्टियां बसपा और कांग्रेस सहित उन्हीं उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करती रही हैं जिनको भाजपा लागू कर रही है।

अतः यह विचारणीय है कि क्या कोई भी राजनीतिक गठबंधन (महागठबंधन) विश्वसनीय वैकल्पिक राजनीतिक एजंडा तथा कृषि एवं बेरोजगारी के संकट को हल करने की उचित रणनीति एवं कार्यक्रम के बिना भाजपा को आसानी से हरा पाएगा? यदि हरा भी दे तो इससे प्रदेश की जनता को क्या राहत मिलेगी? – एस आर दारापुरी, राष्ट्रीय प्रवक्ता, आल इंडिया पीपुल्स फ़्रंट)

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों को लेकर काफी कुछ लिखा जा चुका है। इन नतीजों ने आलोचकों और चुनाव में हिस्सा लेने वालों को समान रूप से चौंकाया है। जो कुछ कहा गया है वह विश्लेषण कम और नतीजों का विवरण अधिक है। उदाहरण के लिए चुनाव नतीजे सामने आने के बाद चुनाव लड़ने वाले और उस पर टिप्पणी करने वाले, दोनों मोदी ‘लहर’ या फौजी तर्ज पर मोदी की मार्च या चढ़ाई की बात कह रहे हैं। एक वरिष्ठ विपक्षी नेता ने तो उनकी प्रशंसा में यह तक कह डाला कि प्रधानमंत्री मोदी इस समय भारतीय राजनीति के सबसे प्रभावशाली और असरदार शख्स हैं।
ऐसी टिप्पणियाँ जीत से प्रभावित होती हैं और उनके पीछे उतना ही विवेक काम करता है। इनको हम नज़रंदाज़ कर दें क्योंकि ये दरअसल उन नतीजों को ही अधिक सरलीकरण के साथ बयान कर रही हैं जो वैसे ही सामने दिख रहे हैं। और उस बयान पर भी सवाल खड़े होते हैं।

आखिर यह कैसी लहर थी जिसने पंजाब, गोवा या मणिपुर में परिणामों को प्रभावित नहीं किया। जबकि इन राज्यों में भी चुनाव उत्तर प्रदेश के साथ ही हुए थे? आखिर भारतीय राजनीति के सबसे प्रभावशाली और असरदार शख्स इन राज्यों के नतीजों को प्रभावित क्यों नहीं कर सके? जो थोड़ा बहुत विश्लेषण कहीं आया भी, वो बिल्कुल नाकाफ़ी था। मसलन कहा गया कि भाजपा और आरएसएस ने बड़े पैमाने पर अपना काडर तैयार किया है जो कांग्रेस अथवा क्षेत्रीय दलों के पास नहीं है। इसकी वजह से भाजपा को अच्छी-खासी बढ़त हासिल हुई।

एक अन्य दलील यह भी दी गई कि यह कि भाजपा ने मतदाताओं को ‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण’ और जातीय आधार पर ‘सोशल इंजीनियरिंग’ करके बाँटने का एजेण्डा कामयाबी से आगे बढ़ाया और इसने नतीजों को उसके पक्ष में करने में मदद की। बेशक यह सही भी है लेकिन इन दोनों ही बातों में कुछ भी नया नहीं है। देश के अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग दलों में काडर की मौजूदगी या नामौजूदगी में कोई नयी बात नहीं है। साथ ही सामाजिक इंजीनियरिंग और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी भाजपा के नए औजार नहीं हैं। यह हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा तैयार की गई उसकी दीर्घकालिक सामाजिक-राजनीतिक नीति का हिस्सा है और वो हर चुनाव में इसका पूरा फायदा उठाती है।

एक अहम सवाल, जिसकी जाँच ज़रूर की जानी चाहिए, यह है कि जब इन्हीं रणनीतियों से भाजपा 2015 में बिहार में जीतने में विफल रही तो फिर 2014 में और 2017 में उत्तर प्रदेश में सफलता कैसे मिली। आमतौर पर इसका तुरंत ये जवाब सूझता है कि बिहार में विपक्ष ने सभी मतभेद भुलाकर महागठबंधन कर लिया था जबकि उत्तर प्रदेश में विपक्ष बँटा रहा। मेरे ख्याल से महागठबंधन की मौजूदगी या नामौजूदगी पर बात करने के बजाय यह समझने की आवश्यकता है कि दीर्घकालिक परिदृश्य और व्यापक संदर्भ में हो क्या रहा है?

समूचे भारत के एक देश के रूप में राष्ट्र निर्माण की परियोजना सन 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के वक्त शुरू हुई थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई ने इसे आगे बढ़ाया। इस राष्ट्र निर्माण की परियोजना की नींव में उपनिवेशवाद का विरोध था। इसलिए इसने भारतीय उप महाद्वीप के समाज और राजनीति पारंपरिक तौर पर मौजूद रहे विभाजन और अन्याय को दूर करने की कोशिश की। कोशिश की गई कि आपस में बाँटने वाली धार्मिक, क्षेत्रीय और सामाजिक पहचानों को अगर पूरी तरह जीता न भी जा सके तो भी उन्हें कुछ तार्किक स्तर तक कम किया जा सके। इसके लिए पूरे उपमहाद्वीप में भारत के एक ऐसे विचार को बढ़ावा दिया गया जो पारंपरिक जाति, धर्म या लैंगिक भेदभावों से धीरे-धीरे मुक्त होकर एक आधुनिक देश बनने के रास्ते पर चल रहा था और जिसमें किसी भी तरह के अन्याय की जगह धीरे-धीरे समाप्त होती जानी थी।

इस विचार का विरोध करने वाले भी थे। औपनिवेशिक ताकतों की ओर से इसके दमन के साथ-साथ देसी तत्त्वों से भी इसे प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। ये वे तत्त्व थे जो भारतीय राष्ट्रीयता की धारणा को यूरोपीय धारणा की अनुकृति बनाना चाहते थे। यानी ऐसा देश जो धर्म और सांस्कृतिक पहचान पर आधारित हो और जो ‘आंतरिक शत्रु’ का प्रतिलोम हो। इस तरह के विचार का औपनिवेशिक शासकों ने बहुत खुशी -खुशी स्वागत किया और इसे खूब प्रोत्साहन दिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि पूरे देश में देश होने के विचार को नया अर्थ देने वाली देश निर्माण की आधुनिक परियोजना को बँटवारे के रूप में ज़बरदस्त झटका लगा। आज़ादी बँटवारे के साथ आई। फिर भी इस परियोजना में मौजूद वैचारिक मजबूती और अंतर्निहित व्यावहारिक क्षमताएँ एक बार फिर संविधान के अंगीकरण के रूप में प्रकट हुईं। भारतीय संविधान ने भारत होने के इस नये विचार की कुछ बुनियादी स्थापनाओं को मजबूती से थामे रखा। हालाँकि आज़ादी के बाद की देश की राजनीति खुद को बराबरी और समानता पर आधारित व्यवस्था कायम करने और सामाजिक व आर्थिक स्तरों पर अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था में रूपांतरित करने में नाकाम रही। इस नाकामी से ‘भारत के विचार’ (आइडिया आफ इंडिया) की कमजोरियाँ और सीमाएँ भी क्रियान्वयन के दौरान सतह पर उभरने लगीं।

इस परियोजना के बदलावपरक एजेंडे की कमजोरी देश के किसानों के सवाल से निपटने में विफलता के रूप में सबसे साफ़ तौर पर सामने आई। इसी तरह आर्थिक वृद्धि को गति देने के लिए नव उदारवादी नीतियों को स्वीकार करना भी उस परियोजना की एक बड़ी खामी थी जिसमें बेरोजगारी की समस्या को हल करने का कोई उपाय ही नहीं था। इन दोनों ही मुद्दों पर देश के सभी ढाँचों में बँधे राजनीतिक दल दोषी हैं। ये हालात ‘अस्मिता या पहचान की राजनीति’ के लिहाज से एकदम अनुकूल है। जाति पर आधारित ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति का उदय इसका उदाहरण है। लेकिन इसकी सीमाएँ भी जल्दी सामने आ जाती हैं क्योंकि जो वृद्धि हो रही है उससे रोज़गार नहीं पैदा हो रहे और वो अनैतिक भी है। इस तरह बेरोजगारी और अन्याय का सिलसिला बढ़ता ही जाता है। इस तरह की वृद्धि से लाभान्वित होने वाले निहित स्वार्थी तत्त्वों को ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का कार्ड खेलना सुविधाजनक लगता है। वे एक ओर इसे आजमाते हैं और दूसरी ओर ‘सामाजिक तोड़फोड़ को जिसे वे सोशल इंजीनियरिंग कहते हैं’। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में समाज में पहले से मौजूद सामाजिक और आर्थिक अन्याय को छिपाने की कोशिश जाती है और इसके अलावा एक बहुसंख्यक पहचान को प्रचारित-प्रोत्साहित और पोषित किया जाता है जो छोटी-छोटी पहचानों को अपने घेरे में समेटती जाती है। और सोशल इंजीनियरिंग सामाजिक न्याय की जाति आधारित राजनीति को उसके तार्किक अंजाम यानी पूरी तरह तहस-नहस करने तक ले जाती है।

मोदी और शाह की जोड़ी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में इसी नीति को अपनाया। उनको सफलता मिली क्योंकि लोगों के सामने उनकी तरफ से कोई विश्वसनीय विकल्प नहीं प्रस्तुत किया गया जो उनका विरोध कर रहे थे। अन्य पिछड़ा वर्ग के सबसे पिछड़े छोटे और सीमांत किसानों को विकास के मौजूदा माडल से सबसे अधिक नुकसान पहुँचा है। विकास का यह माडल भाजपा और सपा, बसपा जैसे सभी राजनीतिक दलों द्वारा आजमाया जाता है। इन परिस्थितियों में इन वर्गों को सत्ता में साझेदारी का वायदा देने और ‘जातिगत पहचान’ की राजनीति करते हुए सत्ता में रहे आए राजनीतिक दलों के खिलाफ अपनी ओर मोड़ लेने के लिए काफ़ी मजबूत अपील चाहिए होती है। इतना ही नहीं, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित ‘व्यापक पहचान’ की राजनीति उन लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है जो ‘सामाजिक न्याय’ का दम भरने वाली बड़ी पार्टियों द्वारा भी त्याग दिए जाते हैं या हाशिये पर धकेल दिये जाते हैं।

‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ कुछ और नहीं बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ही एक और नाम है। इसमें समाज के बेहतर धड़े, ऊँची जातियाँ, तथाकथित आकांक्षी युवा और कट्टर हिंदुत्ववादी समूह शामिल है। इसका विरोध करने वाले धर्मनिरपेक्ष धड़े के पास बहुसंख्यक आबादी के लिए कोई लोकप्रिय अपील नहीं है जैसी कि स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में थी जब उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को एक आधुनिक एकीकृत राजनीतिक मोर्चे की ज़रूरत भी थी। ऊपर से, जब भी सांप्रदायिक दंगे हुए हों या ढँके-छिपे तरीके से किसी समुदाय को भेदभावपूर्ण नीतियों का शिकार बनाया गया हो या यहाँ तक कि सांप्रदायिक ताक़तों के साथ मौकापरस्ती का गठबंधन बनाने की नौबत आई हो, आपको धर्मनिरपेक्ष राजनीति की झंडाबरदार कहने वाली कांग्रेस और उत्तर प्रदेश की क्षेत्रीय पार्टियाँ धर्मनिरपेक्षता की अपनी उस गरिमा को उतार फेंकने में जरा देर नहीं करतीं। इसीलिए धर्मनिरपेक्षता की लोकप्रिय अपील केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच सिमट कर रह गई जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदारों के शासन में अपने समुदाय की सुरक्षा और कल्याणकारी योजनाओं को लेकर खासे चिंतित रहते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने इसी का सहारा लेकर धर्मनिरपेक्ष राजनीति को मलिन किया। उसने इसे अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की राजनीति करार दे दिया। बहुसंख्यक समुदाय, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौर से बहुत बाहर निकल चुका है, अब उसे तुष्टीकरण का विचार रास नहीं आता।

उत्तर प्रदेश में कोई विश्वसनीय वैकल्पिक राजनीति नहीं थी। न ही वहाँ कोई विश्वसनीय नेतृत्व अल्पकालिक राजनीतिक विकल्प ही दे पा रहा था। दूरगामी की तो बात छोड़िए, कुछ संक्रमणकालीन एजेण्डा वहाँ से नहीं निकल रहा था जैसा बिहार में 2015 में हुआ था। नतीजा हम सब देख ही रहे हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे बहुत अहम हैं। केवल इसलिए नहीं कि उत्तर प्रदेश देश का हृदयस्थल है या फिर जैसा कि कुछ विपक्षी नेताओं ने कहा कि उसने 2019 में मोदी की राह आसान कर दी है। ये चुनाव अहम हैं क्योंकि भारतीय राजनीति की व्याधि को बहुत स्पष्ट और साहसी तरीके से सामने लाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो राजनीतिक विपक्ष ने भी कोई विकल्प की राजनीति का कोई आख्यान पेश नहीं किया। निकट भविष्य में भी कोई विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प नहीं दिख रहा है। ऐसा भी नहीं जिसके पास भले संक्रमणकालीन एजेंडा न हो लेकिन वह विकल्प के तौर पर खड़ा तो हो।

मोदी के 2019 में जीतने संभावना उतनी चिंतित करने वाली नहीं है। हमारे जो हालात हैं, उनमें उस किस्म की राजनीति और नीतियाँ अपने आप में ही चल नहीं सकतीं। जो बात चिंताजनक है, वो इन नीतियों की अव्यावहारिकता से कहीं ज़्यादा गंभीर है। कृषि संकट जिस विस्फोटक स्थिति में पहुँच चुका है, उसका बयान भी नहीं किया जा सकता। न ही सम्मानपूर्ण रोजगार की तलाश करते युवाओं की लगातार बढ़ती जाती तादाद का। आज भले ही उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारे और सोशल इंजीनियरिंग की तरकीब से जीता जा सकता है लेकिन जल्दी ही इस नीति का खोखलापन सामने आ जाएगा। इससे भयंकर असंतोष और अराजकता पैदा होना लाजिमी है।

अपनी 18 करोड़ से अधिक आबादी को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर और उन्हें असुरक्षित महसूस करवाकर कोई भी राष्ट्र-राज्य समृद्ध होना तो दूर, लंबे समय तक अपना अस्तित्व भी नहीं बचा सकता। राष्ट्रवाद का कितना भी नारा लगा लिया जाए लेकिन इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता। कितनी भी जोर-आजमाइश और ताकत इसे बदल नहीं सकती। भारत के लिए इकलौती व्यावहारिक राजनीति समावेशी और समता, आजादी, भाईचारे-बहनापे और न्याय के आधुनिक मूल्यों पर निर्भर है। हमें अपने संविधान में निहित इन मूलभूत बातों को पुनर्जीवित और नए सिरे से ताक़तवर बनाना होगा। ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम राष्ट्र निर्माण का एक नया आख्यान तैयार करें।

जाहिर सी बात है इसका प्रस्थान बिंदु सन 1857 की आजादी की पहली लड़ाई होना चाहिए। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में किसान से सैनिक बने लोग ही उसके मुख्य आधार को बनाते थे। और वे ही उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ़ उठे जनविद्रोह की अगली कतार में थे। आज के छोटे और सीमांत किसानों की गरीबी और सम्मानजनक रोजगार के अवसर न मिलने पर क्षुब्ध युवाओं की मौजूदा पीढ़ी ही इस दौर में नवउदारवादी नीतियों, और उन नीतियों की बदौलत थोपे गए विकास माडल के खिलाफ लोकतांत्रिक लड़ाई की पहरुआ और अगुवा बनेंगी।

कृषि संकट और बेरोजगारी की समस्या का नव उदारवाद के ढांचे में तो कोई हल है नहीं। और न ही इसके कहीं भी आसान उपाय हैं। जाहिर है हमें उत्पादन शैली में बदलाव की दिशा में बढ़ना होगा। यह काम कृषि क्षेत्र में भी करना होगा और औद्योगिक अर्थव्यवस्था में भी। सहकारी खेती को जनांदोलन का रूप देकर इस दिशा में एक शुरुआत की जा सकती है। कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कच्चे माल की खरीद और उत्पादित माल का प्रसंस्करण, और वाटरशेड नियोजन के लिए व्यापक अभियान, इसके साथ ही पानी और मिट्टी का संरक्षण, सामाजिक वानिकी, ग्रामीण बुनियादी ढाँचा विकसित करने और सबसे प्रमुख रूप से सबको सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा मुहैया कराने का काम करना चाहिए। यह सारा सिलसिला युवाओं को रोजगार के तमाम अवसर देगा।

इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह की औद्योगिक और कारोबारी नीतियाँ बनानी होंगी जो इस वैकल्पिक कार्यक्रम को सहारा दें। जाहिर है कि ये कदम नवउदारवादी नीतियों और उनके विकास माडल के प्रतिकूल होंगे। खुद औद्योगिक देश ही वैश्वीकरण और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों से पीछे हट रहे हैं, ऐसे में नवउदारवादी नीतियों का विकासशील देशों में टिका रह पाना और भी कठिन हो जाएगा। इससे नई नीतियों की तलाश की गुंजाइश पैदा होगी और हम चरणबद्ध ढंग से पुरानी नवउदारवादी नीतियों से दूरी बना सकेंगे।

दूसरे शब्दों में कहें तो उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों ने जिस राजनीतिक संकट को रेखांकित किया है वह राजनीति और राजनीतिक अर्थव्यवस्था में वैकल्पिक आख्यान की मांग करता है। एक भरोसेमंद राजनीतिक विकल्प की मदद से शायद यह संकट शायद कुछ समय के लिए टाला जा सके, और यही उपाय ढूँढ़ने की जद्दोजहद सक्रिय राजनीति में शामिल सभी की मुख्य चिंता बनी हुई है, लेकिन वह फौरी उपाय होगा। उससे इस तथ्य पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला कि उस किस्म की राजनीति के पास इन संकटों का कोई समाधान है ही नहीं। बल्कि विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प और एक कारगर राजनीतिक अर्थशास्त्र के अभाव में संकट की भयावहता और विस्फोटक क्षमता ज़रूर पहले से भी ज़्यादा बढ़ जाएगी।
समस्या का हल एक वैकल्पिक राजनीतिक आख्यान विकसित करने और किसानों और युवाओं को उससे जोड़ने में निहित है।

(एसपी शुक्ला भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। वह भारत सरकार में वित्त सचिव रह
चुके हैं। फिलहाल सेंटर फार पालिसी एनालिसिस और जोशी -अधिकारी इंस्टिट्यूट आफ सोशल स्टडीज़ के
अध्यक्ष हैं। उनका ये लेख 14 मार्च, 2017 को वेब समाचार पत्र ‘दि सिटीज़न’ में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ
था।)

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