जाने माने उद्योगपति राहुल बजाज के निधन पर उनके व्यक्तित्व की कई खूबियों और सत्ता से उनकी करीबी के अनेक प्रसंग दोहराए जा रहे हैं। यूं बजाज उद्योग समूह बहुत से उत्पाद बनाता है, लेकिन अस्सी और नब्बे के दशक में देश के सामाजिक बदलाव और मध्यम वर्ग की आकांक्षाअोंको ट्रेस कर उसे उपभोक्तावाद में भुनाने का काम बजाज ने बखूबी किया है। आर्थिक आकांक्षाएं और जरूरतें सभ्यता के साथ-साथ सांस्कृतिक बदलाव भी लाती है। कभी यह अच्छा भी हो सकता है और कभी खराब भी। इसे थोड़ा और विस्तार दें तो देश में आर्थिक उदारीकरण की औपचारिक शुरूआत और एक कन्ज्यूमर सोसाइटी की वजूद में आने के नींव 80 के दशक में जिन दो स्वचालित वाहनो ने रखी थी वो थे- बजाज स्कूटर और मारूित 800 कार। एक में दावा बुलंद भारत को छूने का था तो दूसरे में आंखों का सपना साकार होने का था। ये वो दौर था जब छोटे पर्दे के रूप में टेलीविजन मध्यम और निम्न मध्यम वर्गीय घरों में पहुंच रहा था। नई पीढ़ी आधुनिक संचार साधनों को जीवन का जरूरी हिस्सा मानने लगी थी। दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन सीमित आय में खटने वाले वाले परिवारों के मन को मथने लगे थे। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ के उपदेश खोखले लगने लगे थे। भौतिक सुख ही जीवन का सच्चा सुख है, यह मानने वाली पीढ़ी आकार लेने लगी थी। परंपरागत रूप से एक गरीब, आत्मसंतोषी और आध्यात्मिक भारत पैसे की रंगीन दुनिया में उतराने के सपने देखने लगा।
किसी भी सफल उद्योगपति की पहचान यह है कि वो वक्त की आहट को कितना पहले जान लेता है। सत्तर का दशक आते-आते देश की आजादी के बाद जन्मी पीढ़ी जवान होने लगी थी और स्वतंत्रता संग्राम में अपने बुजुर्गों के त्याग तपस्या की कहानियां सुनकर ऊबने लगी थी। गांधी की सरल और सादगी भरी जीवन शैली का आग्रह मंदा पड़ने लगा था। पूंजीवादी सपनो को साकार करने वाला अमेरिका इस पीढ़ी का नया आदर्श था। हरित क्रांति ने गांवों की तस्वीर बदलनी शुरू कर दी थी। ‘मदर इंडिया’ वाले गांव धीरे धीरे आधुनिकता की हवा महसूस करने लगे थे। मध्यम वर्ग में सरकारी स्कूलों की जगह कान्वेंट कल्चर का बोलबाला होने लगा था। मान लिया गया था िक फर्राटेदार अंग्रेजी ही सुखी-सम्पन्न जीवन की कुंजी है। 1977 में जनता पार्टी के शासन में मल्टीनेशनल ‘कोका कोला’ की देश से रवानगी का उल्टा असर यह हुआ कि बाजार ने नए सिरे से हमारे जीवन में हस्तक्षेप शुरू कर दिया। इसी के साथ समाजवादी आग्रहों को भी तिलांजलि मिलने लगी। अस्सी के दशक में धार्मिक आग्रह राजनीति में घुलने लगे और बाजार की संस्कृति को तुच्छता से देखने की प्रवृत्ति घटने लगी। मनमाफिक पैसा कमाना और पैसा खर्च करना नैतिक जुर्म नहीं रहा।
समाज के इसी मानसिक और नैतिक बदलाव को दो वाहनों ने रफ्तार प्रदान की। हालांकि इस देश में दोपहिया पहले भी थे और कारें भी (मुख्य रूप दो ब्रांड एम्बेसेडर और फिएट) थीं। लेकिन मध्यम वर्ग इनसे दूर ही था। पचास के दशक में खुद की एक अदद साइकिल खरीदने के सपने का ‘दि एंड’ अस्सी के दशक में साफ दिखने लगा था। राहुल बजाज और उनकी कंपनी ‘बजाज आॅटो लिमिटेड’ ने आंकाक्षाअो के इस बदलाव को आॅटोमोबाइल में अनूदित करने की सफल कोशिश की, जब 1986 में बजाज का चेतक स्कूटर बाजार में आया। अपने रंग-रूप और माफिक रखरखाव ने मध्य वर्ग में चेतक स्कूटर खरीदना स्टेटस सिंबल बन गया। नौकरी लगते ही युवा चेतक खरीदना अपना कर्तव्य समझने लगे। हालांकि उस जमाने में लड़कियां आम तौर पर स्कूटर-बाइक नहीं चलाती थीं। लेकिन पति/परिजन या प्रेमी के साथ स्कूटर के पीछे वाली सीट पर बैठकर उड़ते पल्लू या दुपट्टे के साथ हवा से बातें करना नई आजादी का परिचायक बन गया।
दूसरी तरफ चार पहियों वाली मारूति 800 गाड़ी ‘चेतक’ के तीन साल पहले ही देश के शहरों की सड़कों पर दौड़ने लगी थी। मारूति ने भी उस उच्च मध्यमवर्ग के अरमानों को कैच किया, जो पुरानी बुलेट, राजदूत जैसी मोटर साइकिलो और वेस्पा, लैम्ब्रेटा जैसे स्कूटरों की दुनिया से अागे निकलना चाहता था। एक ऐसे चौपहिया वाहन की दरकार महसूस की जा रही थी, जो कीमत में सस्ती हो और जिसमें बैठकर ‘हम दो हमारे दो’ का सुख भोगा जा सके। ये वो दौर था, जब 1 हजार रू. मासिक की नौकरी ‘अच्छी’ मानी जाती थी और ‘फोर फिगर सेलेरी’ होना तो सम्पन्नता की निशानी था। आज की पीढ़ी को शायद भरोसा न हो कि मारूति 800 की पहली गाड़ी तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने लांच की थी। पहली गाड़ी एक सरदार हरपालसिहं ने 47 हजार 500 रू. में खरीदी थी ( इतने में तो अब स्कूटर भी शायद ही आती हो)। मैं और मेरे मित्र ने जब पहली बार इंदौर की सड़कों पर मारूति दौड़ती देखी तो उसने कहा, यार ऐसा लगता है मानो गोगल गाय सड़क पर दौड़ रही है। यानी बड़े सपनो को छोटी सी गाड़ी में समोने का जादू। जिनके पास दुपहिया गाडि़यां थीं, वो एक अदद मारूति खरीदकर ‘अमीरों’ की लाइन में लगने की जुगत में लगे थे।
तब देश में दो धाराएं साथ चल रही थीं। एक वो वर्ग जो साइकिल से स्कूटर पर आने की जुगत में था और दूसरा वो जिसके पास पहले से दोपहिया थे, वो चौपहिया मारूति पर सवार होकर अपना स्टेटस और सामाजिक दबदबा बढ़ाने में लगा था। जीवन की नई बुलंदी को छूने के लिए मानो इन तेज रफ्तार वाहनों पर सवार होना जरूरी हो गया था।
बजाज स्कूटर और मारूति की गाड़ी मैकेनिकों और उपभोक्ताअों की दुनिया में मुहावरे बन गए थे। ये दो ऐसी गाडि़यां थीं, जो कहीं भी सुधर सकती थीं, जिन्हें कोई भी मैकेनिक ठीक सकता था। सीमित आय में बड़े सपने देखने वाले मध्यम वर्ग को और क्या चाहिए था?
बजाज स्कूटर और मारूति को लोकप्रिय बनाने में उनके दिल को छूने वाले विज्ञापनों का बड़ा हाथ रहा है। दरअसल एक उत्पाद बेचने के लिए बनाए गए विज्ञापन कैसे ‘देश का सपने ‘ में तब्दील कर दिए जाते हैं, ये मामला उसका बढि़या उदाहरण है। याद करें मारूति 800 का पहला विज्ञापन जो 1984 के बाद टीवी पर झलकना शुरू हुआ। इस विज्ञापन के बोल थे- ‘कल आंखो में थी, आज हाथो में है…मेरा सपना, मेरी मारूति…!’ इसी के साथ युवा पति पत्नी और दो बच्चों का एकल परिवार मारूति में अपने सपनों को फिट होता हुआ महसूस करता है। गोया जिंदगी का सच्चा सुख यही है। इसके बाद आए बजाज के विज्ञापन ने इसी उपभोक्तावादी सपने को बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर में तब्दील कर दिया। बजाज का टारगेट ग्रुप मुख्य रूप से निम्न मध्य वर्ग था, जो साइकिल पर चलते-चलते थक चुका था। ऐसा स्कूटर जो कीमत में माफिक, दिखने में सुंदर और एकल परिवार के सुखी जीवन के अरमानों को फर्राटे से ले चलने का दावा करता
था। बजाज का यह विज्ञापन टीवी पर 1989 में दिखने लगा, जब देश में आर्थिकी बदहाल थी और उससे उबरने के लिए आर्थिक उदारीकरण की गरज के तर्क दस्तक देने लगे थे। बजाज के विज्ञापन में खास तौर से उस निम्न मध्यमवर्ग को टारगेट किया था, जो गरीब बस्तियों में रहता था। इस विज्ञापन की पहली लाइन ‘हमारा बजाज’ मानो बदलते मध्यम वर्ग की टैग लाइन बन गई थी। इस विज्ञापन के जिंगल का संगीत जाने माने संगीतकार लुई बैंक्स ने दिया था और लिरिक लिखे थे जयकीर्ति रावत ने। इस एड फिल्म का निर्देशन सुमंत घोषाल ने किया था। मारूति के विज्ञापन की तर्ज पर इसमें मध्यम वर्गीय उद्घोष था ‘हमारा कल, हमारा आज…बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर…हमारा बजाज।‘ इस उद्घोष ने मध्यवर्ग की उस हिचक पर ब्रेक लगा दिया कि पैसा कमाना और ऐशो आराम के लिए उसे खर्च करना बुरी चीज है। इन विज्ञापनो ने मानो गांधी युग के सादगी के सबक भी अल्मारियों में बंद कर िदए। राहुल बजाज के निधन पर आज चार दशक बाद उन बदलावों को महसूस करना, उनका आकलन करना और वर्तमान संदर्भों में उनके औचित्य को परखना सचमुच दिलचस्प है। जो बदला, उससे देश का कितना भला हुआ, यह बहस का विषय है। आज की तो समूची पीढ़ी उपभोक्तावादी हो चुकी है। ‘किसी भी तरह कमाअो और मनमर्जी से उड़ाअो’ इस पीढ़ी का आदर्श है। अब जबकि सुई से लेकर कार तक शोरूम में हर वक्त बिकने के लिए उपलब्ध है, ऐसे दौर में कार या स्कूटर का नंबर लगाने के बाद महिनो अथवा बरसों में मिलने वाली उसकी डिलीवरी का स्वर्गिक आंनद ये पीढ़ी कभी महसूस नहीं कर पाएगी। बजाज ने एक सुस्त मगर धीरता भरी जिंदगी को अधीर और असंतोषी जीवन तक ले जाने में भी अहम भूमिका निभाई है, इसमे दो राय नहीं।
वरिष्ठ संपादक
‘सुबह सवेरे
‘बजाज’ और ‘मारूति’ ने रखी थी रफ्तार भरे अधीर जीवन की नींव !
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