बिहार में सत्ता में आते ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायक निधि का प्रावधान समाप्त कर दिया था. केंद्र में सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांसद निधि पर अंकुश लगाने की प्रक्रिया तेज कर दी है. विधायक एवं सांसद निधि के बेजा इस्तेमाल और भ्रष्टाचार के मामले विधानसभाओं से लेकर संसद तक उठते रहे हैं, साथ ही निधि की व्यवस्था समाप्त करने की बात भी उठती रही है, वहीं निधि की राजनीति भी उतनी ही गति से चलती रही है. उसी राजनीति का नतीजा है कि यूपीए सरकार ने सांसद निधि की राशि अप्रत्याशित रूप से बढ़ाकर ढाई गुनी कर दी थी. एक बार फिर सांसद निधि चर्चा में है और भाजपा शासित राज्यों के राज्यपालों से इस पर भूमिका बांधने के लिए कहा गया है. भाजपा के विचार-प्रचारकों को भी इस काम में लगाया गया है, ताकि विधायक निधि एवं सांसद निधि को लेकर एक व्यापक जनमत तैयार हो सके, जिसे आधार बनाकर सरकार को कोई फैसला लेने में सुविधा हो. उत्तर प्रदेश के राज्यपाल राम नाइक ने पिछले दिनों लखनऊ में कहा कि विकास के लिए शुरू की गई सांसद निधि का सही उपयोग नहीं हो पा रहा है और अधिकांशत: दुरुपयोग होता है. हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि इसका मतलब यह नहीं कि सांसद निधि बंद कर दी जाए, लेकिन इसमें भ्रष्टाचार बंद होना चाहिए, तभी गांव स्तर तक विकास कार्य हो सकते हैं. नाइक ने कहा कि उन्हीं की पहल पर 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने सांसद निधि की शुरुआत की थी.
राज्यपाल राम नाइक की बातों के निहितार्थ समझे जा सकते हैं. केंद्र सरकार सांसद निधि पर होने वाले खर्च पर नज़र रखने पर जोर दे रही है. पिछले कई वर्षों से सांसद निधि में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की शिकायतें आती रही हैं. भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने 2010-11 की अपनी रिपोर्ट में इसके क्रियान्वयन में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुलासा किया था. 2008 में तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सदन में कहा था कि यह योजना तुरंत बंद कर दी जानी चाहिए. 2009 में एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्म्स कमीशन ने कहा था कि सांसद निधि और विधायक निधि में जिस पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है और जिस तरह जनता की गाढ़ी कमाई राजनेताओं द्वारा डकारी जा रही है, उसे देखते हुए इन निधियों की व्यवस्था तत्काल बंद कर देनी चाहिए, लेकिन इस दिशा में केंद्र सरकार या राज्य सरकारों (बिहार सरकार छोड़कर) की तऱफ से कोई पहल नहीं हुई. ग़ौरतलब है कि सांसद निधि की शुरुआत 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने की थी. उन्होंने हर सांसद को प्रति वर्ष एक करोड़ रुपये बतौर सांसद निधि देने का प्रावधान किया था. कहा गया था कि सांसद की सिफारिश पर उसके निर्वाचन क्षेत्र में विभिन्न विकास कार्यों के लिए प्रत्येक वर्ष एक करोड़ रुपये खर्च किए जा सकेंगे. धीरे-धीरे यह रकम एक करोड़ रुपये से बढ़कर पांच करोड़ रुपये प्रति वर्ष हो गई.
क्षेत्रीय विकास के लिए सांसद निधि में 150 प्रतिशत की वृद्धि के साथ ही इस व्यवस्था के औचित्य पर बहस शुरू हुई. इससे पहले बिहार में विधायक निधि बंद करने के राज्य सरकार के ़फैसले के बाद कमोबेश ऐसे ही सवाल उठने शुरू हुए. तमाम विरोधों के बीच बिहार सरकार का यह ़फैसला तब आया था, जब पूरा देश भ्रष्टाचार की आग से झुलस रहा था. सांसदों को जनलोकपाल के दायरे में लाने की मांग को लेकर संसद के अंदर बवाल चल रहा था. 90 से ज़्यादा सांसदों के ़िखला़फ भ्रष्टाचार के मामले लंबित रहे हैं. तक़रीबन 180 सांसद तो ऐसे रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में आपराधिक चरित्र रखते हैं. वैसे भी यह आम धारणा बन चुकी है कि सांसद निधि भ्रष्टाचार का पोषण करती है. आंध्र प्रदेश के छह ज़िलों के लिए इस मद में आवंटित 64 करोड़ रुपये की बैंक में एफडी कराकर उसकी ब्याजखोरी का मामला किसी से छिपा नहीं है. कुछ अर्सा पहले एक स्टिंग के ज़रिये कुछ सांसदों को ठेके के लिए कमीशनबाजी करते रंगे हाथों पकड़ा जा चुका है. ज़मीनी स्तर पर विकास के लिए आवंटित यह रकम आम तौर पर राजनीतिक लाभ के लिए खर्च की जाती है या फिर राजनेताओं की जेब के हवाले हो जाती है.
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) सांसद निधि के इस्तेमाल में ठेका प्रथा और कमीशनखोरी पर अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं. कैग की रिपोर्ट बताती है कि 11 राज्यों में सांसद निधि से प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री राहत कोष को सात करोड़ 37 लाख रुपये किस तरह नियम विरुद्ध दिए गए. 14 राज्यों में सांसदों ने एयरकंडीशनर, फर्नीचर खरीदने के अलावा ट्रस्ट के अस्पतालों एवं स्कूलों को किस तरह छह करोड़ रुपये दे दिए. छह राज्यों में सांसद निधि से सात करोड़ रुपये खर्च करके नामवर लोगों के नाम पर निर्माण कार्य कराए गए.
सांसद निधि के बेजा इस्तेमाल में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा. तमिलनाडु दूसरे और पश्चिम बंगाल तीसरे स्थान पर हैं. इसके बाद क्रमश: असम, सिक्किम, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, नगालैंड, गोवा, मणिपुर, हिमाचल, उत्तराखंड एवं राजस्थान का नंबर आता है. सरकारी दावों के विपरीत कैग की राय में योजना लागू होने के डेढ़ दशक बाद भी इस मद के 1053.63 करोड़ रुपये खर्च नहीं किए गए. आम तौर पर चुनावी वर्ष में यह निधि दिल खोलकर खर्च की जाती है. जाहिर है, इस निधि का इस्तेमाल राजनीतिक प्रयोजन के लिए किया जा रहा है. प्रशासनिक आयोग ने भी सांसद निधि समाप्त करने की सिफारिश कर रखी है. आयोग का तर्क है कि सांसदों का काम प्रशासनिक खर्च पर नज़र रखना है, न कि स्थानीय निकायों के काम हथिया लेना.
नेशनल कमीशन फॉर रिव्यू ऑफ द वर्किंग ऑफ कांस्टीट्यूशन और वर्ष 2005 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सांसद निधि के पक्ष में न होने के बावजूद केंद्र सरकार ने सांसदों की सालाना निधि दो करोड़ से बढ़ाकर पांच करोड़ रुपये कर दी. यूपीए सरकार ने यह काम राजनीतिक लाभ देखते हुए सांसदों को उपकृत करने के इरादे से किया था, क्योंकि उसके अन्य मंत्री भी घपलों-घोटालों में लगे हुए थे. यह सवाल कई बार उठा कि सांसद निधि का आ़िखर औचित्य क्या है? क्या वाकई इससे विकास का सरकारी संकल्प पूरा होता है? लेकिन, इन सवालों का कोई जवाब आम नागरिकों को नहीं मिल सका. लोकसभा के प्रत्येक सांसद को अपने कार्यकाल में क्षेत्रीय विकास कार्यों पर 25 करोड़ रुपये खर्च करने का अधिकार है. ज़िलाधिकारी सांसदों की सिफारिशों का अनुपालन करने के लिए बाध्य हैं, लेकिन उन्हीं ज़िलाधिकारियों की मिलीभगत से बड़े पैमाने पर धांधली हो रही है. संसद सदस्यों की तरह राज्यों में विधायकों ने भी विधायक निधि की मांग की और प्राय: हर राज्य में उन्हें उतनी ही रकम दी गई, जितनी किसी सांसद को मिलती है. इस रकम में भी जमकर बंदरबांट होती है. लेकिन, किसी भी सरकार ने कभी यह कोशिश नहीं की कि कैग की रिपोर्ट के आधार पर मामले की गहराई और निष्पक्षता से जांच हो. सांसद निधि और विधायक निधि पर कितना खर्च हुआ और कौन-कौन सी योजनाएं कार्यान्वित हुईं, यह पता लगाने या जांच करने की कोई ज़रूरत महसूस नहीं की जाती.
पूरे भारत में, खासकर गांवों में शौचालयों का घोर अभाव है, लेकिन सांसद निधि से शौचालय बनाए जाने का कोई प्रयास नहीं होता. यदि गांव में सांसद निधि से शौचालय या सामुदायिक केंद्र बन भी जाता है, तो वह सांसद एवं उनके गुर्गों के कब्जे में रहता है. महिलाएं पूर्ववत असुविधा का सामना करती रहती हैं. ग्रामीण इलाकों में यदि कोई शख्स गंभीर रूप से बीमार हो जाता है, तो उसे शहर के अस्पताल में ले जाने के लिए कोई साधन नहीं मिल पाता. इस दिशा में कोई सांसद अपनी निधि से कभी कुछ नहीं करता. बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के बहुत-से मरीज दिल्ली में एम्स और सफदरजंग अस्पताल के सामने सड़क पर रहने के लिए मजबूर हैं. यदि इन राज्यों के सांसद अपनी-अपनी निधि से थोड़ी रक़म खर्च करके दिल्ली या कहीं आसपास धर्मशालाएं बनवा दें, तो मरीजों एवं उनके तीमारदारों को बहुत सुविधा होगी. लेकिन, सांसद निधि खर्च करने की व्यवस्था अपने पुराने ढर्रे पर कायम है. हां, घोटाले दर घोटाले की ़खबरों का आना जारी है.
अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों के साथ ही सांसद निधि पर भी नज़र रखने की कोशिश कर रहे हैं. सांसद निधि के खर्च में भ्रष्टाचार और धांधली की शिकायतों के मद्देनज़र मोदी सरकार इसके तहत होने वाले विकास कार्यों की थर्ड पार्टी निगरानी की व्यवस्था कर रही है. खासकर 25 लाख रुपये से अधिक के विकास कार्यों पर पैनी नज़र रखी जा रही है. आज 21 साल पहले शुरू हुई सांसद निधि व्यवस्था जितनी लोकप्रिय हुई, उससे कहीं अधिक बदनाम हुई. इसके तहत काम कम हुआ और लूट ज़्यादा. ऐसे सांसदों की संख्या बहुत कम रही, जिन्होंने इस निधि की शत-प्रतिशत धनराशि सही तरीके से विकास कार्यों में इस्तेमाल की. केंद्र सरकार ने सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की स्वतंत्र संस्थाओं, शैक्षिक संस्थानों और कंसल्टेंट्स के ज़रिये देश के 100 ज़िलों में निगरानी कराने का ़फैसला किया है. सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय को उन संस्थाओं की पहचान करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है, जो सांसद निधि के इस्तेमाल की ज़मीनी स्तर पर थर्ड पार्टी निगरानी कर सकें. उक्त संस्थाएं ज़िला मुख्यालय, शहरों, कस्बों एवं गांवों में जाकर यह पड़ताल करेंगी कि सांसद निधि के तहत हुए किसी विकास कार्य के लिए कितना पैसा मंजूर हुआ और उस पर कितना खर्च हुआ. कार्य की गुणवत्ता परखने का काम भी यही संस्थाएं करेंगी और नियमित तौर पर अपनी रिपोर्ट केंद्र को भेजेंगी. संस्थाओं की रिपोर्ट के आधार पर ही केंद्र सरकार राज्य सरकारों से सवाल-जवाब करेगी. विकास कार्यों के साथ ही सांसद निधि के तहत सोसायटी, ट्रस्ट या एनजीओ के लिए किए जाने वाले कार्यों की निगरानी भी होगी. पेयजल, सिंचाई, सड़क, पुल, खेल परिसर आदि सुविधाओं पर हुए खर्च की पाई-पाई का हिसाब रखा जाएगा.
दरअसल, केंद्र सरकार अगले पांच वर्षों में सांसद निधि पर लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये से अधिक खर्च करने जा रही है. लिहाजा, धांधलियों और घोटालों को देखते हुए थर्ड पार्टी निगरानी तंत्र की ज़रूरत महसूस की गई. धनराशि केंद्र देता है और सांसद की सिफारिश पर ज़िला प्रशासन उसे खर्च करता है, लेकिन राज्य सरकार एवं ज़िला प्रशासन द्वारा इसकी निगरानी नहीं की जाती. सांसद निधि के तहत प्रत्येक सांसद अपने क्षेत्र में हर साल पांच करोड़ रुपये के विकास कार्यों की सिफारिश कर सकता है. केंद्र सरकार राज्य सरकारों की समीक्षा बैठक बुलाकर सांसद निधि के इस्तेमाल का जायजा लेती है और कभी-कभी ज़मीनी स्तर पर जांच के लिए दल भी भेजती है, लेकिन इतने बड़े स्तर पर निगरानी की व्यवस्था पहली बार की जा रही है.
कई सांसदों ने अब तक नहीं किया निधि का इस्तेमाल
16वीं लोकसभा के गठन हुए दस महीने बीत चुके हैं, लेकिन कई सांसदों ने अभी तक अपनी निधि का इस्तेमाल नहीं किया है. स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के कई सांसद भी इस निधि का इस्तेमाल न कर पाने वालों में शामिल हैं. राजग के सहयोगी दलों एवं विपक्षी पार्टियों के ज़्यादातर सांसदों ने अभी तक अपनी सांसद निधि से एक रुपया भी खर्च नहीं किया. आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 36 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 10 राज्यों के सांसदों ने अपनी सांसद निधि का इस्तेमाल शुरू किया है.